(गतांक से जारी)

लाल परीउँगलियाँ अब थक चुकी थीं टाईप करते करते। मैं सीधा लेट गई। अस्पताल में हूँ न। जल्दी थक जाती हूँ। कूल्हे में ऑपरेशन हुआ है। कभी पहले वहाँ एक इंजेक्शन पडा था। वो हिस्सा पहले नर्म हुआ फिर सख्त। फिर दर्द का दायरा बढने लगा। शुरु में आदतन ध्यान नहीं दिया। हम भारतीय स्त्रियाँ हमेशा अपने स्वास्थ्य को नज़रांदाज़ करने वाली। शुतुरमुर्ग। न ध्यान दो तो शायद तकलीफ अपने आप गायब हो जाये। कोई जादू का हमेशा इंतज़ार। पर, न जी। ऐसा कोई जादू नहीं हुआ। उससे क्या? हम ढीठ स्त्रियाँ कभी सीखती हैं भला। कुत्ते की दुम कभी सीधी भी हुई है क्या। वर्षों के संस्कार, दबने कुचलाने के, ऐसा लहू में पेवस्त हो गया है कि अब उसके बिना जी नहीं मानता। क्या कहते हैं उसे जो खुद को पीडा दे। हाँ मेसोचिस्ट।

हाथियों में सुना है कि कोई स्मृति विरसे में आती जाती है अगले पीढियों में, कई कई पीढियों में। कहते हैं न, हाथी जैसी याददाश्त। तो हम स्त्रियाँ भी कोई कम नहीं। हम भी ढोती हैं पीडाओं की स्मृति, चिपका रखती हैं छाती से नन्हे छौने सा, बन्दर का चिपका बच्चा। हाँ तो हम भी उसी कौम से हैं सो करते रहे नज़र अंदाज़। जब तकलीफ हद से बाहर हुई तो पति नाम के जीव को बताया। कुछ दिन और बीत गये। दर्द बढ़कर फुनगी पर टिक गया। कभी जाये ही न। आखिर भरती हो गये अस्पताल में।

हाथियों में कोई स्मृति विरसे में आती जाती है अगले पीढियों में। हम स्त्रियाँ भी कोई कम नहीं। हम भी ढोती हैं पीडाओं की स्मृति, चिपका रखती हैं छाती से नन्हे छौने सा।

अब यहाँ अकेले हैं। साथ में एक अटेंडेंट, माने दूर की ननद सुमित्रा। चुप्पी सुमित्रा। बिलकुल बोलती नहीं। मेरे ज़रूरत भर का कर के मगन हो जाती है किसी गुलशन नन्दा टाईप किताब में। टोक टोक कर आजिज कर दिया पर वही ढाक के तीन पात। आखिर थकहार कर छोड दिया। अभी तो हफ्ता दस दिन और रहना है। पति दौरे पर हैं। फोन करते रहते हैं। घर पर बूढ़ी झुरझुर सास हैं। पड़ी रहती हैं अपने कमरे में। फूलमणि करती है देखभाल। आदिवासी फूलमणि। गोदने वाली फूलमणि। खिल खिल हँसती है फूलमणि। घर टिका है उसपर। कहाँ कहाँ दिमाग भटकता है मेरा। पर चुप पड़े पड़े भी क्या करूँ। सुमित्रा पढ रही है, सोफे पर अडस कर। कूल्हे में दर्द हो रहा है, बेतरह। घँटी बजाती हूँ।

नर्स आती है मुस्कुराती हुई, "क्या हुआ आँटी? दर्द हो रहा है क्या?"

मुझे ये वाली नर्स अच्छी लगती है। जेसी, केरल की है। मुस्कुराती है बात करती है। यहाँ नर्स का युनिफॉर्म सफेद नहीं है। गुलाबी सफेद धारियों वाला ट्यूनिक और पैंट।

"एक पेनकिलर दे दो जेसी"

"थोडा रुक जाना आँटी। अभी डॉक्टर आयेगा राउंड पर"

चादर ठीक कर देती है। दवाइयों की शीशी तरतीब से सजा देती है। साथ साथ लगातार बात कर रही है। मैं उतनी देर सूरजमुखी के फूल सी खिल जाती हूँ।

घर पर बेटा है। बारहवीं का इम्तहान देगा।

बेटा, मतलब कान फोड संगीत, रेड हॉट चिली पेपर और बैक स्ट्रीट ब्वाय्ज़, धोनी और युवराज के बडे बडे पोस्टर्स, कान में इयरफोन जैसे कान का ही हिस्सा हो,
बेटा मतलब बेतरतीब कमरा, उलटपुलट कपडे, बिखरी किताबें ढेर की ढेर,
बेटा मतलब हाय मॉम बॉय मॉम,
बेटा मतलब बर्गर, पित्ज़ा,फूटलॉंग,
बेटा मतलब पढाई पढाई और फिर पढाई।

एक बेटी भी है।

बैगलोर में मेडिकल की पढाई,
हाथ पैर की वैक्सिंग,
फेशियल और लोरियाल,
क्लच में फँसे स्ट्रीक्ड बाल,
कमर पर टैटू,
नाभी में नथनी,
पैरों में रंगीन धागे,
उजला कोट और स्टेथोस्कोप,
सपने सपने और फिर सपने।

और पति नाम के जीव को कैसे भूला जा सकता है। पति माने फिट फाट पर थोड़े उडते बाल। दौरे और मीटिंग़्स, लगातार फोन – खाना खाते वक्त, सुबह टहलते वक्त, ओफ़िस जाते वक्त, सुबह के वक्त, शाम के वक्त, रात के वक्त, मुझसे बात करते वक्त, मुझसे प्यार करते वक्त।

मेरी आँखें चैट खुमार में मुन्दती हैं। कूल्हे का दर्द बुझ जाता है। चेहरे पर दिव्य मुस्कान बिखर जाती है।

और इन सब के बीच टँगी मैं। बीस साला नहीं पचास साला। किटी पार्टी और ब्रिज, रंगे बाल और ढलकती जवानी। कोई दोस्त नहीं कोई यार नहीं पर कहने को ऐश ही ऐश क्योंकि आखिर मालकिन हूँ एक आलीशान मकान की, घूमती हूँ फोर्ड फियेस्टा में, बीबी हूँ एक वीपी की, माँ हूँ दो होनहार बच्चों की। वक्त ही वक्त है मेरे पास पर अरमेना कोई नहीं।

इसलिये, हाँ हाजरीन, इसलिये लिखती हूँ कहानियाँ। पहले लिखती थी रोने धोने की कहानियाँ। अब लिख रही हूँ एक नये ज़माने की मॉडर्न कहानी। इसलिये सीखा है कम्प्यूटर। पति अच्छे हैं। ला दिया है लैपटॉप। तो, भाइयों अरु तो कोई नहीं पर लाल परी मैं ही हूँ। सचमुच चैट करती हूँ ताकि कहानी का मसाला तीखा तेज़ हो। चैट का नशा छा रहा है आजकल। डरती हूँ कहीं पूरी तरह से न डूब जाऊँ इसमें। और ये जो खिर्के, नैना, जतीन वगैरह हैं, न न कोई असल नहीं है। सब पतिदेव के ऑफिस से चुने हुये कैरिकेचर्स हैं। समझ रहे हैं न आप। कैरिकेचर मतलब किसी एक शारिरिक या फिर मानसिक गुण को खींचो रबर की तरह कि शेप बिगड जाये पर इतना भी नहीं कि असल खो जाये कहीं।

तो लालपरी तो मैं हूँ पर कूल ड्यूड कौन है? खिर्के, या जतिन या फिर बग्गा द यूनिवर्सल बाबा, या क्या पता नैना नैनकटारी ही हो या फिर वो जो हैंडसम डॉक्टर आता है रोज़ ग्यारह बजे राउंड पर बिना नागा, हैंडसम तो है पर शायद साईनस से पीडित है, हर वक्त सिनकता सुड़कता रहता है। वो भी तो कूल ड्यूड हो सकता है। मैं लैप टॉप बूट करती हूँ। लॉग इन करती हूँ। मेरी उँगलियाँ की बोर्ड पर फिसल रही हैं। कूल्हे का दर्द जलता बुझता है।

"हाय लाल परी, मेरी जान कहाँ हो तुम"

मेरी आँखें चैट खुमार में मुन्दती हैं। कूल्हे का दर्द बुझ जाता है। दवाइयों की महक, बैंडेज़ और पस, आईवी की सूई, कैथेटर की जलन, सब विलीन हो जाता है। मेरे चेहरे पर दिव्य मुस्कान बिखर जाती है।