Original Photo by Akshay Mahajan (http://www.flickr.com/photos/lecercle/145468455), artistic variation by Debashish

यूँ तो उसका नाम था – दीप, घसीटा या भूरा नहीं। विकास के नाम पर इतना काफी नहीं? घसीटा से भी ज्यादा घसीटे गए अर्धकिशोर बालक का नाम एक दम ताज़ा .. साहित्यिक भी, पर उसे देख कर मैं यही सोचती — काश इसका नाम घसीटा होता… हो सकता है कि महादेवी जी की आत्मा जीवन्त हो उठती हो। खैर जो भी हो, उसका नाम दीप ही था। अरे हाँ, कहाँ मिला, कैसे मिला, यह बताना तो मैं भूल ही गई। दरअसल बरसों बाद कानपुर जाना हुआ, यूँ तो ससुरालगृह होने के नाते कानपुर नाम से ही फुरफुरी चढ़ती रही है, फिर भी इस पुरातन प्रदेश को गले अंग की तरह काट कर न फेंक पाने की बाध्यता तो रही ही है। एक वक्त कारखानो का सरताज शहर, चमड़े का सौदागर, अपने सीने पर गंगा का फैलाव समेटे, अपने नाम से बड़ा नाम हुआ करता था कानपुर। आज उसे कूड़े के ढ़ेर में तब्दील देख ज्यादा हैरानी नहीं हुई। मशीनी सभ्यता के उगालदान बने सभी प्रान्तों का लगभग यही हश्र निश्चित है।

वातायनदिल्ली से कानपुर के लिए जाने वाली गाड़ी में रात की यात्रा इतनी सुविधाजनक थी कि विश्वास होने लगा कानपुर के दुर्दिन फिर गए होंगे। लेकिन गाड़ी से उतरते ही पीकदान बने स्टेशन में गरीबी और अमीरी दोनो अपनी हदों मे लबलबाती दिखाई दी। उतरते ही कुली.. सामान देखा और भाड़ा — पचास रुपये। बिटिया की आँखे फैल गईं.. त्रिवेन्दम में जिस सामान के लिए 200 रुपये और दिल्ली में 150 लिए गए, उसी के लिए 50 रुपये हमने हाँ कहने की जल्दी की तो कुली भी सकते में आ गया.. अरे बोहनी भी ऐसों ने की जिनमे जरा भी झिक-झिक करने की औकात नहीं। उधर टैक्सी वालो ने तो इतनी काँय-काँय मचा दी कि पितृपक्ष के कौओ को भी शर्म आ जाए। अन्ततः जिस टैक्सी पर सामान चढ़ाया गया उसकी रेट थी 50 रुपये "माँ, ये कोई कानपुर के ठग तो नहीं, दिल्ली में तो टैक्सी के स्टार्ट होने में ही ५० रुपये लग जाते हैं"। "श् श् श् शशशश.." मैंने उसे चुप तो किया पर रास्ते के मामले में कुछ ज्यादा ही सजग हो गई।

हाँ तो हम कानपुर में थे, मकान बेचा जा रहा था — मैं त्रिवेन्द्रम से पैकर्स और मूवर्स बहू के रूप में हाजिर थी, साथ में थी बिटिया, जिसने हाल में ही आर्कीटेक्ट की डिग्री हासिल की थी अपने खाली दिनो में माँ की सहायता करने साथ-साथ चली आई थी। खैर, हम सकुशल घर के आगे पहुँच चुके थे। रास्ते भर सड़क के दोनो ओर लगे कचरे के ढेर मेरे लिए तो कोई नए नहीं थे, लेकिन त्रिवेन्द्रम की सफाई पसन्द जिन्दगी की अभ्यस्त बिटिया की आँखे फैल गईं… "माँ यहाँ कचरे के बीच आदमी रहता है या आदमी के बीच कचरा?"

"माँ यहाँ कचरे के बीच आदमी रहता है या आदमी के बीच कचरा?" "चुप करो", मैंने कहा। अनुभव था कि हम भारतीयों को कचरे की आदत होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है, हमारे इतिहास में भी कचरा ही भरा पड़ा है।

"चुप करो, इसी कचरे के ढेर से तुम्हारा इतिहास जुड़ा है", मैंने उसे रोकते हुए कहा। दरअसल मैं चाहती नहीं थी कि वह शुरुआत में ही बिचक जाए। अनुभव था कि हम भारतीयों को कचरे की आदत होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है, हमारे इतिहास में भी कचरा ही भरा पड़ा है। हुआ भी कुछ ऐसा ही, शिफ्टिंग का इंतजार करते घर में गर्द और गन्दगी का अम्बार स्वाभाविक था, किन्तु हमें उसका आदी होने में कोई ज्यादा वक्त नहीं लगा, बल्कि बिटिया तो चूहों के बच्चों के साथ दोस्ती करने का प्लान तक बनाने लगी। खैर अब फिर से पहुँचा जाए दीप के पास।

दरअसल सामान की बेतरबी देख मेरे हाथ-पाँव इस कदर फूल गए कि समझ में ही नहीं आया कि क्या करूँ। बस तभी यह दीप महोदय सहायक के रूप में उपस्थित हुए। पड़ोस में पतंग खेलते बच्चों में से शायद वही पैसे के लालच में आया था। देखने पर मुश्किल से 10-12 बरस का लगता। पहली बार तो लगा कि यह नन्हा सा बच्चा मेरी क्या मदद करेगा, किन्तु जब उसने फुर्ती से हाथ चलाते हुए सुबह की रोशनी को दुपहरी से चमका दिया तो मन को ढाढस आया। हमने सोचा, बच्चा है थक गया होगा, उससे खाने का भी पूछ लेते हैं — लेकिन बिटिया ने बताया कि वह दुपहरी से पहले खाना खाने का आदी ही नहीं है। भरी दुपहरी को ही उसे चाय के साथ रोटी मिला करती है। दीप भी चाह रहा था कि खाने की जगह उसे पैसे मिल जाएँ तो अच्छा है। पहले दिन वह बेहद कम बोल रहा था। हाँ इस इस बीच बिटिया उसकी दीदी बन चुकी थी और वह उसी से थोड़ बहुत बतिया लेता था। दुपहरी को माताजी ने उसे देने को दस रुपये निकाले तो हम सकते में आ गए। बिटिया जल्दी से बोली, "दादी क्या कर रहीं हैं आप? चार घण्टे काम करने के दस रुपये! अरे कम से कम चालीस तो होते ही हैं।" तभी माताजी की वृद्धा सहेली बोली, "अए हए, आदत न बिगाड़ो लौण्डे की। ज्यादा पैसे दे दिए तो कल आएगा भी नहीं।" लड़का जल्दी से बोला, "नहीं माता जी, कल जरूर आ जाऊँगा। खैर हम लोगों की जिद से 25 रुपये दे दिए गए।"

दूसरे दिन सुबह हम लोगों ने चाय तक नहीं पी थी कि वह चला आया। उसके साथ एक और लड़का था, "दीदी जी, आप चाहें तो इस लौण्डे को भी रख लीजिए, काम जल्दी होगा।" बिटिया ने तुरन्त हामी भर दी, "माँ! कल तक हम सोच रहे थे कि कैसे काम करेंगे, लेकिन दीप के आने से हमे समझ में तो आने लगा है कि किस तरह से काम खत्म किया जा सकता है। आज यदि दोनो लड़के काम में लग गए तो काफी सामान बन्ध सकता है।"

पिछले दिन मुझे बैंक के काम निपटाने थे, इसलिए मैं सामान बान्धो अभियान में ज्यादा भाग नहीं ले पा रही थी। किन्तु आज मैं साथ जुट गई थी। काम करते-करते लड़को से बातचीत शुरु हो गई। पिछले दिन दीप कुछ असहज सा था, किन्तु आज खुल कर बोल रहा था। सबसे पहले तो बिटिया ने उनकी खिंचाई की, दीप बिना मुँह धोये चला आया था।

"तुम मुँह क्यों नहीं धोते? कितने गंन्दे मुँह से चले आए हो। और यह मुँह में क्या छिपा रखा है? गुटका? छिः छिः इतनी गन्दी आदत? अच्छा मुँह धो कर आओ, मैं तुम्हे टाफी दूँगी।" पता नहीं दीदी की फटकार का असर था या शर्म आ गई। दीप तुरन्त घर गया और मुँह धोकर चला आया। मुझे लगा कि इस लड़के में तो बड़े अच्छे संस्कार छिपे हैं, कुछ मुझे भी आजमाना चाहिए।

मैंने उनसे पूछा, "स्कूल गए हो?"

"न, कभी नहीं।"

"क्यों?"

"बस, वैसे ही"

"क्यों, कभी इच्छा होती है?"

"नहीं, कभी नहीं।"

अब मेरे अचकचाने की बारी थी, कहाँ मैं सोच रही थी कि उनका स्कूल न जाना एक सामाजिक व राजनीतिक प्रसंग है और कहाँ यह बिल्कुल व्यक्तिगत पसन्दगी की बात निकल पड़ी फिर भी मैंने हार नहीं मानी, "देखो पढ़ोगे-लिखोगे तो तुम्हारा ही भला होगा।"

"काहे का भला आण्टी जी, हम तो वैसे ही भले-चंगे हैं।"

"देखो, पढ़ने के बाद तुम बाहर जा सकते हो, दुनिया देख सकते हो।"

"दुनिया तो हम यहाँ बैठे ही देख लेते हैं, सब कुछ तो आता है टी.वी. में।"

"पढ़ना बहुत जरूरी है, बड़ा अच्छा लगता है नई-नई बाते पढ़ना, अच्छा देखो मैं तुम्हे "अ" लिखना सिखाती ही हूँ। देखो ऐसे चूल्हे पर चूल्हा बनाओ.. ऐसे लकड़ी रखो और बन गया "अ"। "मैंने खड़िया से "अ" खींचते हुए कहा। दोनों बच्चो ने मेरी बात आई-गई कर दी। मैं जिद में आ गई कि उनसे कुछ लिखवा कर ही रहूँगी। बार-बार पीछे पड़ने पर दूसरे लड़के ने तो चुपचाप "अ" बना दिया किन्तु दीप अड़ गया। काफी फुसलाने के बाद उसने भी पीछा छुड़ाने के लिए जल्दी से "अ" खींच दिया।

"बस आण्टी जी, अब कुछ नहीं खींचने को मत कहना।"

उसके लिखने के तरीके से मालूम पड़ रहा था कि वह अक्षरो से निरा अपरिचित नहीं है, पर न पढ़ने की जिद उसमें ठसी पड़ी थी कहाँ तो मैं सोच रही थी कि उनसे सारे स्वर तो लिखवा ही लूँगी और कहाँ "अ" लिखवाने में ही हिम्मत जवाब दे गई।

"अच्छा तुम करते क्या हो सारा दिन?" मैं हथियार फेंकने को तैयार नहीं थी।

"करते क्या हैं.. सिलाई का काम करते हैं, बाप की दर्जी की दुकान है।"

"माँ है?"

"सब हैं, भाई-बहन, सभी।" वह उकता चला था और जल्द से जल्द बात खत्म करना चाहता था।

"काम पर भी बिना मुँह धोए जाते होंगे," बिटिया ने चिढ़ाते हुए कहा। वह अभी तक यही नहीं समझ पा रही थी कि जो बच्चा मुँह धोने से परहेज करता हो, गुटका चबाता हो, उसे पहले जीना सिखाना चाहिए या सिर्फ अक्षर।

"अरे नहीं दीदी, वो तो हम सोचे कि आप लोगों का टाइम खोटा न हो।"

शाम को जब दीप नें मज़दूरी पचास रुपये माँगी तो सोचा — देखा "अ" लिखते ही अपना हक माँगना आ गया, कल तक तो चार घण्टे के काम के दस रुपये भी माँगे नहीं जा रहे थे।

मेरा पढ़ाई अभियान इतना असफल रहेगा, मुझे उसका गुमान नहीं था। लेकिन शाम को जब दीप नें मज़दूरी पचास रुपये माँगी तो सोचा — देखा "अ" लिखते ही अपना हक माँगना आ गया, कल तक तो चार घण्टे के काम के दस रुपये भी माँगे नहीं जा रहे थे। केरल में इतने काम की मज़दूरी कम से कम 2 रुपया होती। वैसे इतना छोटा बच्चा काम के लिए आता ही नहीं, यदि आ भी जाता तो बड़ों से कम मज़दूरी लेता नहीं। साक्षर प्रदेश जो ठहरा, यह बात अलग है कि अधिकतर पाँचवीं-छटी ड्राप-आउट होते हैं, एक दम निरक्षर तो नहीं। मन में सन्तुष्टि हुई, चलो आज दीप ने एक अक्षर सीखा, कल कुछ और सीख ले, फिर तो उसे भी आजाएगा- अपने अधिकार के लिए लड़ना।

तीसरे दिन सुबह दुपहरी में बदलने लगीं तो मन चिंतित हुआ — दीप तो आया नहीं.. अब कैसे निपटेगा काम का बखेड़ा। पड़ोस में हुड़दंग मचाते कुछ बच्चों को बुलाया, उनमें से किसी की माता जी दीप के घर गईं। आकर खबर दी कि दीप रात 20 मील दूर देवी के मन्दिर गया था, अभी तक सो रहा है। अब आएगा थोड़ी देर में। चलो आएगा तो सही, कितना अच्छा बच्चा है, थोड़ी बहुत कमाई हुई तो देवी के यहाँ मन्नत पूरी करने चला गया।

आज दीप आया तो धुला-पुँछा था और पैंट पहने थे उसने आते ही कहा–"आण्टी जी, कल वाला लौण्डा नहीं आएगा"।

"क्यों?"

"क्या मालूम, कह रहा था कि मजा नहीं आया।"

"अच्छा काम भी मजे के लिए किया जाता है, अरे पैसे मिलेंगे तो अपने आप मजा आएगा", बिटिया ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा।

आज दीप चुपचाप काम करता रहा। बीच-बीच में गायब हो जाता तभी मालूम पड़ा कि वह लोहे लंगड़ में से कील-कुन्दे जैसी चीजें जेब में डाल लेता है और मौका लगा कर दो चार रुपयों में बेच आता है। शायद इसी लिए वह पैंट पहन कर आया था। मुझे आश्चर्य तो जरूर हुआ, जिन चीजों को फेंकने के लिए हम पैसा खर्च करते हैं, वे किसी के लिए कमाई का जरिया हो सकती हैं। मुझे लगा कि घर का सारा लोहा-लंगड़ उसे यूँ ही दे दूँ, किन्तु चुप रही, अपने अधिकार की सीमा जो मालूम थी। वैसे आज उसके काम में वह लगन नहीं दिखाई दे रही थी जो पिछले दो दिनों थी, पर आँखों में चतुराई झलक रही थी, वह हर सामान ध्यान से देख रहा था।

मैंने उसे खोदते हुए पूछा, "दीप, क्या बात है, तुम्हारे हाथ चल क्यों नहीं रहे?"

"आण्टी जी, कल हम लोग रात देवी के मन्दिर चले गए थे।"

"कहाँ है देवी का मन्दिर?"

"शहर के बाहर है, 20 मील दूर तो होगा ही।"

"इतनी दूर.. कैसे गए?"

"कैसे क्या? पैदल। पैदल चले गए।"

"इतनी दूर और पैदल!" बिटिया की आँखें फैल गईं।

"हम लोग पैदल ही जाते हैं देवी के दर्शनों के लिए", वह गर्व से बोला।

अब मुझे उस पर तरस आया, देखो बेचारा, देवी के दर्शनो के बाद थका-थकाया आया है और हम लोगो ने उसे काम में जुटा लिया। थोड़ी देर बाद अचार की अलमारी की सफाई करते वक्त उसने एक पीपी खोल सूँघ कर देखा — शायद पुराना सिरका रखा होगा — वह पहचान नहीं पाया और बोला, "दीदी, इसमे ड़म रखी है?"

"ड़म क्या होता है?"

"आण्टी जी से पूछो, आण्टी जी को मालूम होगा।"

"माँ, आपको मालूम है, यह क्या कह रहा है?" बिटिया मेरी ओर मुख़ातिब हुई।

"रम कह रहा होगा", मैंने अन्दाज़ा लगाते हुए उससे पूछा, "क्यों रे! तुझे कैसे मालूम है कि इसमे रम है?"

"हमें सब मालूम है, हम क्या कोई बेवकूफ हैं?", उसने शिकायत के लहजे में कहा।

"तो तू खुशबू से पहचान लेता है? है न!", मैंने हँसी बनाते हुए कहा।

"और क्या, हम तो चख कर भी पहचान लेते हैं। कल ही हमने चखी थी।"

"पर तुम तो कह रहे थे कि कल तुम मन्दिर गए थे", बिटिया ने अविश्वास से कहा।

"वो तो घर वालों को कहना ही पड़ता है, कल रात हम दोस्तों के साथ माधुरी पा रहे थे।"

"माधुरी, यह माधुरी कौन सा ड्रिंक है?" बिटिया ने आश्चर्य से पूछा।

"आण्टी जी को मालूम होगा।"

"अच्छा सब कुछ आण्टी जी को मालूम होगा। तुझे क्या मालूम है? तू तो कह रहा था कि मन्दिर गया था, अब यह माधुरी कहाँ से आ गई? झूठ बोल रहा था, क्यो रे!" मैंने उसे डपटते हुए कहा

"झूठ न बोले तो बप्पा मारे न!" उसने सफाई दी "जब पैसा मिले तो हम दोस्त लोग किसी के घर इकट्ठे होते हैं, माधुरी पीते हैं, गोश्त खाते हैं और सनीमा देखते हैं, सुबह घर आकर सोए रहते हैं, घर वालों को कह देते हैं कि देवी के मन्दिर गए थे।"

"सनीमा भी देखते हो, कौन सा?" मैरे हाथ-पाँव फूल से गए थे।

"कौन सा तो का मालूम, अंग्रेजी का देखते हैं।"

"समझ में भी आती है अंग्रेजी, पढ़ाई लिखाई तो तुमसे होती नहीं?" मैंने गुस्से से कहा।

"आएगी क्यों नहीं, जितनी आनी है, उतनी आ जाती है।" उसने दर्शन बघारा।

अब दीप मेरे सामने एक पहेली था, वह इतना भोला तो नहीं, जितना दिखता है। एक ऐसा बचपन जो शातिर जवानी की सीड़ियाँ चढ़ रहा हो, एक ऐसा जवान जो बचपने को एकदम लाँघ जाना चाहता हो। अक्षर भी न जानने वाले के लिए अंग्रेजी फिल्म देखने का केवल एक ही मकसद हो सकता है, यदि यही मकसद दीप का है तो उसके मन में कौन सा व्यापार चल रहा है, उसकी थाह लगाना भी मुश्किल है।

"माँ, माधुरी क्या होती है?", बिटिया ने अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाना चाहा।

"कोई देसी ठर्रा होता होगा", मैं बात समेटते हुए दीप की तरफ मुख़ातिब हुई, "देखो दीप, इतनी कम उम्र में शराब पीना कितनी गलत बात है, तुम्हे मालूम भी है, शराब में क्या होता है?"

"अरे कुछ नहीं होता, हमारा बाप पिये रहे, उसे तो कुछ हुआ नहीं, हमें का होगा?"

"अच्छा बताओ, यह माधुरी कितने की आती है?"

"तीस रुपये की और क्या।"

"यानी कि कल तुमने जो कमाया वो सब खाने-पीने में उड़ा दिया। अरे, एक कमीज खरीद लेते। इतने में तो एक कमीज आ जाती।" मैंने उसे समझाने की कोशिश की।

"कमीज का क्या, फिर आ जावेगी", उसने बात टालने की कोशिश की।

आखिरकार मुझे हथियार डालने पड़े, न उसे शराब छोड़ने को राजी करवा पाई, और न ही उसे कुछ पढ़ा-लिखा पाई। मैं महादेवी तो नहीं जो घसीटा की गुरुजी बन जाऊँ, यह भी दीप है घसीटा नहीं। ऐसा दीप जो वक्त से पहले ही जल उठा है और अंधकार छाते ही बुझ जाएगा।

अब मैंने पूरी तरह से हथियार डाल दिये। अखबार में पढ़ी खबर दिमाग़ में घूम गई, झुग्गी-झोपड़ियों में ब्लू फिल्म का व्यापार, बच्चों को गिरफ्त में लेता जाल। दिमाग़ में एक कीड़ा घुसपैठ कर गया… यह लड़का जो बचपने की खोल में जवानी को ढो रहा है, इसके दिमाग़ में न जाने कितनी गाँठें होंगी। इसकी निगाहें न जाने क्या देखना चाहती होंगी। हमारे सहज लाड़ को यह न जाने किस रूप में देख रहा होगा। न जाने कौन सी खुराफात चल रही इसके दिल में।

दीप को पढ़ाने की बात तो मैं लगभग भूल गई, हाँ काफी देर तक उसे शराब की बुराइयों के बारे में प्रवचन देती रही। लेकिन उसने सारी बाते झाड़ते हुए कहा, "कुछ भी नहीं होता आण्टी जी। सराब पीने से कुछ भी बुरा नहीं होए। हम कोई अकेले हैं सराब पीने वाले?"

आखिरकार मुझे हथियार डालने पड़े, न उसे शराब छोड़ने को राजी करवा पाई, और न ही उसे कुछ पढ़ा-लिखा पाई। हमारा सामान बान्ध-बून्ध कर चलने का समय भी आ गया। सच कहो तो मेरी हिम्मत ने भी जवाब दे दिया था। मैं महादेवी तो नहीं जो घसीटा की गुरुजी बन जाऊँ, यह भी दीप है घसीटा नहीं। ऐसा दीप जो वक्त से पहले ही जल उठा है और अंधकार छाते ही बुझ जाएगा। काश यह दीप नहीं घसीटा होता। तभी मन ने धमकाया — मूर्ख, तू शाब्दिक विकास को भी महत्व नहीं दे पा रही है। इतना तो सोच उसके माँ-बाप ने अपने बेटे का नाम घसीटा न रख कर दीप रखा है। विकास के नाम पर इतना काफी नहीं? जब चतुर राजनीतिज्ञ इस बात का ढोल पीटते नहीं थकते कि देश के कितने नौजवान विश्व में देश की ध्वजा फहरा रहे हैं, जबकि असल में वे देशवासियों की रक्तधमनियों से पोषण ली विद्या को विदेशी नालियों में उँड़ेल रहे हैं। तू इस बात से खुश नहीं कि घूरे में पला बालक दीप है, घसीटा नहीं। फिर भी न जाने क्यों रह-रह कर मन में कसक उठती रही कि वह दीप क्यों है, घसीटा क्यों नहीं?

तो मित्रों, अब यह एक गुत्थी है कि इस देश के गुदड़ियों के लाल को दीप होना है या फिर घसीटा। मैं तो इस गाँठ को बाँध कर कानपुर से चली आई किन्तु लगता है कि काश कोई मदद करता इस गुत्थी को सुलझाने में।

Ratiji, bahut bhadiya likhi hain. Ek bahut hi mamuli se ghatnakram ko aapne ekdum rochak baana diya.