नर्मदा सागर बांध परियोजना

संवादस्वतंत्रता के बाद से बड़े बांध,कारखाने देश के विकास के मापदंड माने गये। नेहरू जी तो बांधों को आधुनिक भारत के मंदिर कहा करते थे। सिंचाई, बिजली, बांध नियंत्रण आदि बांध से होने वाले फायदे हैं तो बांध के डूब क्षेत्र से जन सामान्य का विस्थापन एक भयावह त्रासदी। बांधों से होने वाले लाभों की चकाचौंध में उससे उपजने वाली त्रासदियां नेपथ्य में चली जाती हैं।

कुछ ऐसा ही भारत की बहुउद्देशीय नर्मदा सागर बांध परियोजना में होता। लेकिन जागरूक पत्रकार विजय मनोहर तिवारी ने इस परियोजना के डूब क्षेत्र में आने वाले कस्बे ‘हरसूद’ के लोगों के विस्थापन के साक्षत अनुभव पहले टेलीविजन से लोगों तक पहुँचाये तथा बाद में अपने अनुभवों को लेखनी बद्ध किया पुस्तक-‘हरसूद 30 जून’ में। मध्य प्रदेश के पूर्वी निमाड़ में खंडवा जिले में पुनासा के पास नर्मदा नदी पर बनने वाले बांध का की नींव 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रखी थी। उनकी हत्या के उपरांत नर्मदा सागर बांध का नाम उन्हीं की स्मृति में इन्दिरा सागर बांध कर दिया गया।

इन्दिरा सागर बांध कंक्रीट का एक जीता जागता कमाल है। इस पूरी परियोजना में जितनी कंक्रीट का इस्तेमाल हुआ उतने में दिल्ली से लंदन तक सड़क बन सकती है या फिर 2 फुट व्यास का पाइप पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा सकता है। बांध के डूब क्षेत्र में कुल 255 गांव थे। इन्हीं में से खंडवा के पास मध्यप्रदेश का 700 सौ वर्ष पुराना कस्बा ‘हरसूद’ भी था। ‘हरसूद’ को सन् 2004 के मानसून में डूब जाना था इसलिये वहां के लोगों को 30 जून को निर्ममता पूर्वक, बिना समुचित पुर्नवास की व्यवस्था किये, उजाड़ दिया गया।

जिस समय हरसूद उजड़ रहा था उस समय ‘सहारा न्यूज चैनेल’ से इस घटना का कवरेज करने के लिये टीवी पत्रकार विजय मनोहर तिवारी वहां मौजूद थे। विजय मनोहर ने विस्थापन की विसंगतियों को लोगों को दिखाया तथा वे अपने कवरेज के द्वारा हरसूद की आवाज बन गये। बाद में अपनी किताब ‘हरसूद 30 जून’ में विजय मनोहर तिवारी ने अपने हरसूद के दिनों के संस्मरण लिखे हैं। निरंतर के पाठकों के लिये यहां प्रस्तुत है विजय मनोहर तिवारी से अनूप शुक्ला की बातचीत के प्रमूख अंश।

हरसूद पर किताब लिखने का विचार कब बना? आपकी किताब के बारे में लोगों की प्रतिक्रिया कैसी रही?

जून..जूलाई २००४ में कवरेज के दौरान जो हालात देखे उसके बाद इस हादसे पर कुछ लिखना ही था! लंबे टीवी कवरेज के वक्त ही यह तय कर लिया था कि इस विषय पर किताब लिखना है। तीन महीने में यह किताब लिखी। टीवी कवरेज कितनों को याद रहता, लेकिन यह किताब हरसूद को हमेशा जिंदा रखेगी। लोगों की जबर्दस्त प्रतिक्रिया मिली। पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ी नामचीन हस्तियों ने इस किताब को सराहा। देश भर के मीडिया में चर्चा हुई। एन एस डी ने भी इस पर नाटक तैयार किया, इसकी उम्मीद नहीं थी।

पहले भी बाँध बने हैं। वे आधुनिक भारत के मंदिर माने गये। भाखड़ा नांगल, रिहन्द आदि। इन बाँधों के साथ भी विस्थापन की समस्यायें रहीं होंगी लेकिन उनके बारे में बहुत कुछ सुनने में नहीं आता। जब भी बात चलती है तो इन बांधों से मिली सुविधाओं का ही ज़िक्र होता है। क्या यह उस समय मीडिया की उदासीनता के कारण यह हुआ या उस समय विस्थापन इस तरह से हुआ कि कोई समस्या नहीं आई?

उस समय टीवी चैनल नही थे। अखबारों की प्रसार संख्या भी आज जैसी नहीं रही होगी। हरसूद मामले को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने देशभर में चर्चा का विषय बनाया। अगर टीवी नहीं होता तो हरसूद की खबरें स्थानीय अखबारों के खंडवा संस्करणों में सिमटकर रह गई होतीं। एक शहर के खत्म होने और डूबने के दृश्य चैनलों को भी पहली बार यहीं मिले थे। यह बिकने वाला माल था। मेरे ख्याल से विस्थापन तो कहीं भी आदर्श ढंग से नही हुआ। आप भी जाकर देख सकते हैं कि विकास की यह अवधारणा लाखों परिवारों के लिये अभिशाप की तरह साबित हुई है।

पुस्तक पढ़ने के बाद लगता है कि हरसूद के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति राजनैतिक चेतना में कुछ कमी थी जो अपने हक के लिये लड़ना नहीं जानते थे। क्या आपको लगता है कि अगर लोगों में राजनैतिक चेतना होती तो ऐसी हड़बड़ी में विस्थापन न होता?

राजनीतिक चेतना दलिय राजनीति में बिखरी थी। जो आंदोलन के अगुआ थे, वे राजनीतिक दलों से भी जुड़े थे। वे सभी स्वार्थी और धोखेबाज निकले। गैर राजनीतिक चेतना की जरूरत है। राजनीति से परे मानवीय चेतना होना जरूरी है। न हरसूद में यह था, न देश में ऐसा है। हरसूद जैसे मामलों में राजनीति से परे जाकर फैसला होना चाहिए। राजनीति समस्याएं बढ़ा रही है।

हरसूद के लोग रोटी-रोजगार की चिंता में लगे सीधे-साधे, साधारण लोग थे। कुछ-कुछ अपने में मगन। क्या उन लोगों को अपने उजड़ने का अहसास नहीं था? अगर था तो उसका विरोध समय रहते क्यों नहीं हुआ?

लोगों को उजड़ने का अहसास अक्टूबर 1984 में तब ही हो गया था, जब इंदिरा गांधी ने बाँध की पहली ईंट रखी थी। विस्थापन और पुनर्वास को लेकर समय समय पर विरोध होता रहा और बांध भी बनता रहा। विरोध के बहाने विपक्षी दल राजनीति करते रहे। हरसूद के लोग इस आशा में रहे कि बच जाएंगे, लेकिन जब बाँध २४५ मीटर तक बन चुका तो उनके बचने के सभी रास्ते बंद हो गए।

आपके अनुभव पढ़कर लगता है कि हरसूद वासी किसी मसीहा के इंतजार में थे, जो आता और उनके लिये लड़ता। क्या आपको यह भी यह लगता है कि सिर्फ हरसूद की नहीं, यह सामान्य भारतीय जनमानस की ही मन:स्थिति है?

यह हमारा दुर्भाग्य है और हरसूद ही नही देश कि दुर्दशा का कारण भी यही है। एक हजार साल गुलाम यह देश रहा और किसी अवतार या चमत्कार कि आशा में करोड़ों लोग आराम फरमाते रहे। अगर आप सोचते हैं कि 1947 में आप आजाद हो गए तो आप धोखे में हैं। हम एक अलग गुलामी में पड़ गए। अब अंग्रेजों कि जगह हमारे नेता हैं, जो बांटो और राज करो कि उसी नीति पर चलकर देश को आग में झोंक रहें हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश बनने के बाद बचे खुचे भारत का भविष्य अंधकार में है। आजाद देश का यह एपिसोड ऐसा ही चलता रहा तो सौ डेड़ सौ सालों में देश की पुरातन सभ्यता और संस्कृति का नामोनिशान नहीं रहने वाला। यह संस्कृति तेजी से अपने अंत की और अग्रसर है। आइए, हम सब किसी मसीहा के लिये प्रार्थना करें!!!

The begining of submergence“जब हरसूद डूब रहा था तब वहाँ के विधायक मंत्री बनने की जुगाड़ में लगे थे।” क्या यह हमारे देश के राजनैतिक चरित्र का प्रतिबिम्ब है? जब यही विधायक मंत्री बनकर आये तो हरसूद वासियों की प्रतिक्रिया कैसी थी?

हरसूद का विधायक जब मंत्री बनकर आया तो अपने हाथों से अपने घर तोड़ने में लगे हजारों लोगों के दिल से आह निकली़, भरी आँखों से उन्होंने अपने एमएलए को लाल बत्ती में सवार होकर निकलते देखा। अवसरवादिता का यह नमूना नया नहीं है। ऐसे ही निर्लज्ज नेताओं ने अपने रुतबे की खातिर विदेशी आक्रमणकर्ताओं की मदद की और अंग्रेजों के तलवे चाटते रहे। हमारे नेताओं का ऐसा चरित्र ही रहा है। वे बहुराष्ट्रीय और बड़ी कंपनियों के हितों की खातिर आज भी बिक ही रहे हैं। अपनी कुर्सी के लिये वे सब कुछ दांव पर लागा सकते हैं, देश को भी। हरसूद का विधायक खुद को अलग साबित कर सकता था, लेकिन मंत्री पद की खातिर यह अवसर खो बैठा।

नेता तो हर पाँच साल में चुनाव में पब्लिक के बीच जाता है, भले ही जीते या हारे। नौकरशाहों की स्थिति अलग है। उन्हें ज़मीन पर भला कौन ला सकता है!

आपके कवरेज तथा प्रयासों से जनता की तकलीफ की ओर समाज का ध्यान गया। कुछ सुविधायें हासिल हुईं लोगों को। मंत्री वगैरह वहाँ आये। जो कुछ सुविधायें वहाँ लोगों को मिलीं क्या उनके कारण जनता के मन का आक्रोश भी क्रमशः कम होता गया?

मीडिया के कारण हरसूदवालों को कुछ तात्कालिक राहत ही मिली। थोड़ा मुआवजा बढ गया, मंत्री अफसर दौडे भागे लेकिन समस्या इतनी विकट थी कि यह सब नाकाफी था। गुस्सा तो लोगों का आज तक कम नहीं हुआ है। वे पीढियों पिछड़ गए हैं। उन्हें फिर से अपने पैर जमानें के लिए जीरो से जद्दोजहद करनी पड़ रही है। उनके कारोबार खत्म हो गए हैं। वे कई शहरों में बिखर चुके हैं। जहां भी हैं, परेशान हैं। वे कैसे खुश हो सकते हैं?

हमें लगता है कि आपकी प्रेस रपटों में यह भावना निहित थी कि विस्थापन कायदे से होना चाहिये, संवेदनहीन उजाड़ नहीं हो। अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति बाँधों का विरोध करते हैं, मुक्त बाज़ार व्यवस्था के समर्थक मानते हैं बिना ऐसी प्रगति के देश विश्वबाजार में जगह नहीं बना पायेगा। नई आर्थिक व्यवस्था और प्रगति जैसे इन मुद्दों पर आप क्या सोचते हैं?

विस्थापन और पुनर्वास के लिये सरकार की आदर्श नीतियां है। सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश हैं। पर सब कुछ कागजों पर हैं। कम से कम हमने इंदिरा सागर बाँध परियोजना में डूबे हरसूद समेत 250 गांवों में इनका कहीं पालन होते नही देखा। हमारे कवरेज का मकसद ही यह था कि विस्थापन और पुनर्वास कायदे से हो जाए। मुझे लगता है कि सरकार को ऐसी बड़ी विकास परियोजना पर पुनर्विचार करना ही चाहिए, जो हजारों परिवारों को उजाड़ डालती है। व्यापक विचार होना चाहिए और पवन व सौर्य ऊर्जा का दोहन होना चाहिए। वैकल्पिक तरीकों पर डटकर काम होना चाहिए। लेकिन हम 58 सालों से कर क्या रहें हैं? सबसे बडा सवाल तो यह कि क्या आबादी को कंट्रोल नही किया जाना चाहिए। रोजगार, बिजली, पानी, अनाज और मकानों जैसी बुनियादी जरूरतों कि अपनी सीमाएं हैं, लेकिन सरकार को कठिन फैसले लेने होंगे। इसके लिए नपुंसक नेतृत्व की जरूरत नही है। वोट की राजनीति ने नपुंसक नेता तैयार किए हैं। उनसे कोई उम्मीद करना बेमानी है।

आप माखनलान चतुर्वेदी संस्थान के स्नातक हैं। क्या पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान कोई इस तरह की केस स्टडी कराई गई जिनमें आपदाग्रस्त क्षेत्र से विस्थापन जैसे मुद्दों की कवरेज करने का सबक मिला हो?

पत्रकारिता कि पढ़ाई के दौरान ऐसी कोई केस स्टडी नही की, लेकिन इतना सबक जरूर बार बार मिला कि पत्रकारिता की सार्थकता आम आदमी की तकलीफों और मुश्किलों को उजागर करने में ही है। भारत जैसे विकराल आबादी वाले देश में हर तरफ से परेशान और शोषित लोगों को मिडिया से ही उम्मीदें हैं। असंख्य लोग नेताओं और नौकरशाहों के प्रति विश्वास खो चुके हैं। ऐसे में मिडिया को भी संवेदनशील होने की जरूरत है। वैसे मिडिया अपना रोल निभा रहा है।

Image आपके प्रसारण से मीडिया में काफी हलचल मची तथा हरसूद का मामला भी गरमा गया। कहीं इसी लिये तो नेताओं ने नहीं सोचा कि लाओ अब हरसूद को भी निपटा ही देते हैं। वरना शायद अपने देश की नौकरशाही के अंदाज में सब कुछ खरामा-खरामा चलता रहता। एन.एच.पी.सी. के चेयरमैन ने भी कहा कि “आपने तो हमारा काम आसान कर दिया।” क्या आप महसूस करते हैं कि आपने उनके काम में शायद अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग ही किया?

हरसूद के कवरेज ने बेशक सरकार कि मुश्किलें बढ़ा दी थीं, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती ने भरसक कोशिश की कि मानसून सिर पर होने के बावजूद लोगों की दिक्कतें कम हों और विस्थापन ठीक से हो जाए। यह सरकार कुछ ही महीने पहले बनी थी और तब तक बाँध पूरा बन चुका था। पिछले 10 सालों तक कांग्रेस सरकार में थी। इतनी बडी परियोजना के समांतर विस्थापन और पुनर्वास के प्रयास पिछले सालों से चलते रहने चाहिए थे, लेकिन सब कुछ अचानक हुआ और अफरातफरी में ही लोगों को बारिश के दिनों में ही विस्थापित होना पड़ा। अफसरों का रवैया बिल्कुल संवेदनशील नहीं था। सामूहिक लापरवाही और बेईमानी के दुष्परिणाम आज हजारों लोग भोग रहे हैं।

युवा आरक्षण जैसे मसले पर संगठित नहीं हैं और कब्र में पैर लटकाये नेता उनकी तकदीर अंधेरे की स्याही से लिख रहे हैं।

आप युवा हैं, मेधावी हैं। जनता के अधिकारों के लिये आपके मन में तड़प भी है। क्या कभी यह नहीं लगा कि कैमरा, माइक छोड़ हरसूद की जनता का नेतृत्व करके उनके विस्थापन को राजनीति के मार्ग से ही रोकते या मानवीय तरीके से विस्थापन के लिये आंदोलनरत हो जाते?

ऐसा कई बार लगा कि मैदान में आकर हरसूद और 250 गांवों की बरबादी की आवाज बुलंद की जाए, लेकिन मैं मिडिया में रहकर अपना काम ठीक से कर पाया, इस बात का सुकून है। हमने हरसूद को गुमनामी की मौत नहीं मरने दिया। दुनिया भर को खबर मिली की एक हजार मेगावाट बिजली कितने घरों में अंधेरा लेकर आई और हमारी तथाकथित जनहितकारी व्यवस्था का व्यवहार कितना सभ्य रहा?

हरसूद में नौजवान भी रहे होंगे। आज ज़रा-ज़रा सी बात पर युवा हंगामा खड़ा कर देते हैं। किसी अभिनेता को मुंबई का आयकर विभाग नोटिस देता है तो नौजवान उस विभाग का आफिस ही फूंक देते हैं। क्या हरसूद के नौजवानों में ऐसी कोई तड़प दिखी आपको या वे उदासीन ही बने रहे?

हरसूद गाँव नहीं छोटा शहर था। वे खुदकुशी तो कर सकते थे, लेकिन आंदोलन खड़ा करने की उन में ताकत नहीं बची थी। उन्हें हर तरफ और हर तरह से घेरकर मजबूर कर दिया गया था। यह नौबत नहीं आती, अगर वे समय रहते जागरूक होते, गैर राजनीतिक स्तर पर संगठित होते और कुछ साल पहले पहले से यह पहल होती तो शायद कुछ बेहतर होता। लेकिन देश का बड़ा दुर्भाग्य यह है कि करोड़ों युवा भी किसी न किसी राजनीतिक दल के चक्रव्यूह में फंसे हैं। उनकी स्वतंत्र आवाज नहीं है, इसलिये आरक्षण जैसे घातक मसले पर भी देशभर में वे कहीं भी संगठित नज़र नहीं आते और कब्र में पैर लटकाये नेता करोड़ों काबिल युवाओं की तकदीर अंधेरे की स्याही से लिख रहे हैं।

ऐसा लगता है कि नौकरशाही की अकूत ताकत के पीछे लोगों के विरोध घुटने देक देते हैं। क्या यह सच है?

नौकरशाहों के दिमाग में अंग्रेज़ों की अकड़ भरी हुई है। आम आदमी के दुख दर्द से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। वे सुविधाओं के गुलाम हैं और अपने पद और कमाई की खातिर नेताओं के साथ गठजोड़ बनाये रखते हैं। एक परीक्षा पास कर के वे तीस पैंतीस सालों के लिये देश की छाती पर सवार हो जाते हैं, कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। नेता तो हर पाँच साल में चुनाव में पब्लिक के बीच जाता है, भले ही जीते-हारे। नौकरशाहों की स्थिति अलग है। उन्हें ज़मीन पर कौन ला सकता है!

Imageआपकी किताब में अनेक खूबसूरत फोटो सम्मिलित हैं। बालों में फूल लगाये-मुस्काती सी अरुंधती राय, कागजों को देखने में तल्लीन मेधा पाटकर, पान मसाले के दुकान में कैमरे के सामने खड़े मुस्कराते बच्चे। क्या आपको कभी यह अपराधबोध भी हुआ कि किसी के उजड़ने में हम खूबसूरती तलाश रहे हैं?

बात तस्वीरों में खुबसूरती की! ऐसा नहीं है। हरसूद की त्रासदी अनुभव की बात थी। यह जरूरी था की तस्वीरों से उस भीषण एहसास की झलक मिले। जहाँ तक अरुंधती राय और मेधा पाटकर की मौजूदगी का सवाल है तो यह बहुत जरूरी था कि लोगों को पता चले कि जब चुने हुये नेता और अफसर धोखेबाज साबित हुये तब इस बस्ती में कौन हाल पूछने आया। जहाँ तक मैं समझता हूँ न तो अरुंधती और न ही मेधा को ही हरसूद से चुनाव लड़ना था, जो वहाँ गईं। उनका कोई हित नहीं था। अरुंधती ने हरसूद से लौट कर आउटलुक में लंबा आलेख लिखा, यह योगदान भुलाया नहीं जाना चाहिये।

वोट की राजनीति ने नपुंसक नेता तैयार किए हैं। उनसे कोई उम्मीद करना बेमानी है।

हरसूद के बारे में तमाम जगह किताबों के अंश दिये हैं। आपकी पुस्तक भी स्कूलों को अलविदा कहते हुये ५ हजार बेकसूर, मासूम बच्चों को समर्पित है। तो क्या आपको लगता है कि विस्थापन का सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ा?

विस्थापन का बुरा असर केवल बच्चों पर ही पड़ता है यह कहना ठीक नहीं है। लेकिन बच्चों की पढ़ाई पर ज़रूर असर हुआ। हरसूद में करीब पाँच हज़ार विद्यार्थी थे लेकिन सरकार ने कहीं भी इतने बच्चों की पढ़ाई के इंतज़ाम नहीं किये थे। परिवारों के आर्थिक हालात बिगड़े, रोजगार छिन गये ऐसे में बच्चों का भविष्य कैसे सुरक्षित रह सकता है। वे विकास की ऐसी विनाशकारी परियोजनाओं के सबसे मासूम शिकार होते हैं।

हरसूद का आप बहुत विस्तार से कवरेज कर रहे थे। स्थानीय अखबारों में तथा टीवी पर भी तब हरसूद के किस्से दिखाये जा रहे होंगे। लेकिन लगता है बाकी टीवी चैनलों तथा अखबारों ने इन खबरों को हाशिये पर ही रखा, नहीं तो शायद देश भर में इस मुद्दे की गूँज होती। क्या मीडिया की मुद्दों पर एक राय नहीं हो पाती खासतौर उस समय जब एक शहर डूब रहा हो?

ऐसा नहीं है, स्थानीय अखबार खासकर दैनिक भास्कर हर दिन डेढ़ पेज की सामग्री छाप रहे थे। नईदुनिया जैसे अखबारों में भी हरसूद का दर्द छप रहा था। दिक्कत यह थी कि यह सब स्थानीय संस्करणों तक ही सीमित था और राजधानी भोपाल तक में कोई उल्लेखनीय कवरेज नहीं था। दूसरी तरफ टीवी वाले नेशनल न्यूज़ चैनल की ओर से थे। हमारे लिये हरसूद हेडलाईन की खबर थी और पूरे दो महीने तक हमने हर कोण से हरसूद की त्रासदी को कवर किया। इतने लंबा कवरेज किसी का भी नहीं हो पाया। हमने पूरी स्वतंत्रता से काम किया और आखों में आंसू, लेकिन दिल में सुकून लेकर बरबाद हरसूद से वापस आये।

अपने अनुभवों को किताब के रूप में लिखकर कैसा लगा? हरसूद के बारे में रिपोर्टिंग करने के बाद आपके सोच में क्या कुछ बदलाव आये?

अनुभव किताब के रूप में आये तो अच्छा लगा। हम हरसूद के साथ हर स्तर पर हुई नाईंसाफी में भागीदार नहीं बने और अपना काम पारदर्शिता के साथ पूरा किया। हमने अपने तेरह साल के पत्रकारीय जीवन में पहली बार इतनी भीषण मानवीय त्रासदी को इतने नज़दीक से देखा था। हरसूद जैसे खून में समा गया है। वह हमारी समकालीन व्यवस्था की निष्ठुरता का शिकार हुआ और हम चश्मदीद गवाह हैं। पूरी व्यवस्था हमारी नज़र में दूषित है और मजबूरी है कि इसी के बीच ज़िंदगी तमाम करनी है।

नर्मदा घाटी परियोजना के भविष्य के बारे में आपके क्या विचार हैं?

कहा नहीं जा सकता कि नर्मदा घाटी के बाँध कितने टिकाउ साबित होंगे और बिजली की कमी को कितना दूर करेंगे। लेकिन हमें छोटे बाँधों के विकल्पों पर विचार करना चाहिये। हमें भारत के भूगोल को मिले मौसम के वरदानों का भी दोहन करना चाहिये।

जून को हरसूद को डूबे दो साल हो गये। हरसूद के हालात अब कैसे हैं? वहाँ से विस्थापित लोगों से फिर कभी रूबरू होने का मौका मिला?

तीस जून को हरसूद की दूसरी बरसी थी। वहाँ के लोगों के साथ जीवंत संपर्क है। हम लगातार वहाँ जाते रहे हैं। विस्थापित परिवारों के साथ आत्मीय रिश्ते बनें हैं। हम पुनीत और प्रियंका के विवाह में शामिल हुये जो बस्ती के उजड़ने के बाद हुआ। वहाँ कुछ भी होता है तो लोग मुझे फोन करते हैं, हर घटना की जानकारी मुझ तक पहुँचाना वे अपना फर्ज समझते हैं, यह रिश्ता अजीब है। वे भले बुरे का फर्क समझते हैं। हम उनके बुरे दौर के साथी बने पर उनका बुरा दौर अभी तक खत्म नहीं हुआ है। हम दिल से उनके प्रति शुभकामना करते हैं।

आजकल क्या कर रहे हैं? क्या लिख-पढ़ रहे हैं?

आजकल भोपाल में हूँ। सहारा समय न्यूज़ चैनल से विदा लेने के बाद फिर से प्रिंट मीडिया में हूँ और दैनिक भास्कर में विशेष संवाददाता के तौर पर काम कर रहा हूँ। लेखन में हरसूद की किताब के बाद मीडिया और मीडिया में काम करने वालों की जिंदगी पर एक उपन्यास पूरा किया। इसके बाद अब एक साध्वी के चरित्र पर उपन्यास लिख रहा हूँ, जो सन्यास से सार्वजनिक जीवन में आती है और राजनीति के उतार चढ़ावों और षड़यंत्रों का शिकार होती है। आधा काम पूरा हो गया है, साल के आखिर तक पूरा करने का विचार है। यह किताब किसी व्यक्ति विशेष पर केंद्रित नहीं है, किंतु समकालीन राजनीति के कुछ चेहरों को आप इसके पन्नों पर पहचान पायेंगे।