खुद को पत्नी माना ही नहीं कभी

संवादसमर्थ कथा लेखिका व उपन्यासकार, मैत्रेयी पुष्पा को समकालीन महिला हिंदी लेखन की सुपरस्टार कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। 30 नवंबर, 1944 को अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा गांव में जन्मी मैत्रेयी के जीवन का आरंभिक भाग बुंदेलखण्ड में बीता। आरंभिक शिक्षा झांसी जिले के खिल्ली गांव में तथा एम.ए.(हिंदी साहित्य) बुंदेलखंड कालेज, झाँसी से किया। मैत्रेयी पुष्पा की प्रमुख साहित्यिक कृतियों में शामिल हैं स्मृति दंश, चाक, अल्माकबूतरी जैसे उपन्यास, कथा संग्रह चिन्हार और ललमनियाँ, कविता संग्रह- लकीरें। मैत्रेयी ने  लोकगायक ईसुरी की जीवनी पर उपन्यास लिखा है कहैं ईसुरी फाग। उनकी लिकी कहानी “ढैसला” पर टेलीफिल्म का भी निर्माण हुआ है।

श्रीमती पुष्पा को हिंदी अकादमी द्वारा साहित्य कृति सम्मान दिया गया है। उन्हें कहानी ‘फ़ैसला’ पर कथा पुरस्कार मिला तथा ‘बेतवा बहती रही’ उपन्यास पर उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद सम्मान व ‘इदन्नमम’ उपन्यास पर शाश्वती संस्था बंगलौर द्वारा नंजनागुडु तिरुमालंबा पुरस्कार। वे म.प्र. साहित्य परिषद द्वारा वीरसिंह देव सम्मान से भी नवाज़ी जा चुकी हैं।

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में बुंदेलखंड अंचल की जीवंत झांकी मिलती है। उनके कथा साहित्य में बदलते हुये समय के साथ बदलती हुयी स्त्री के आख्यान हैं। नारी जो घर से निकलकर अपने सपने देखती है, अपनी नियति खुद बनाने के लिये उपक्रम करती है, स्वाबलंबी बनने के लिये जद्दोजहद करती है।

पिछले दिनों अपनी कथाजगत में सक्रिय योगदान के साथ-साथ ही अपने सनसनीखेज बयानों के लिये जाने वाले हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने हंस के जुलाई, 2006 के अंक में मैत्रेयी पुष्पा की तुलना मरी हुयी गाय से करने की बात पर साहित्य जगत में काफी हलचल हुयी। हंस में आजकल प्रकाशित हो रहे प्रभा खेतान के एक विवाहित डाक्टर से संबंधों को लिखे जा रहे आत्मकथात्मक संस्मरण काफी चर्चा में हैं।

इन्हीं सब बिंदुओं को लेकर वरिष्ठ कथाकार अमरीक सिंह दीप ने मैत्रेयी पुष्पा से विस्तार से बातचीत की। निरंतर के पाठकों के लिये खासतौर पर पेश है इस बातचीत के मुख्य अंश।

मैत्रेयी पुष्पा, अमरीक सिंहजुलाई, 2006 के ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादकीय नियति पहचानो मैत्रेयी में राजेंद्र यादव ने आपको ‘मरी हुई गाय’ का लकब देने के बाद आपकी तारीफ़ के पुल बांधे हैं। क्या आप उससे सहमत हैं?

अब देखिए कि मरी गाय भी कहा और तारीफ़ के पुल भी उन्होंने बांधे हैं। तारीफ़ सच है या यह दूसरी बात सच है यह तो आप लोग समझें कि ये क्या है। बहरहाल जो मैंने लिखा है या जिन विषयों को लेकर मैंने लिखा है उन्हीं विषयों के मद्देनज़र रखा है और सिर्फ यह कहा है। तारीफ़ लग रही है आप लोगों को लेकिन उन्होंने सिर्फ यह कहा है कि यह (मेरा लेखन) अलग है। अलग था,  आया नहीं था अभी तक। जो चीज नयी आयी होती है वह नयी लगती ही है। और लगता है नया शोध है, नयी खोज है और नये तरह का साहित्य आ रहा है। जब और लोग पढ़ते हैं तो उन्हें तारीफ़ लगती है। वरना तो तारीफ़ इसमें कुछ भी नहीं है। एक तरह की नयी बात आती है तो यही उन्होंने कहा है। और तो कुछ नहीं। मुझे तो ऐसा ही लगा बाकी…।

तो आप सहमत नहीं हैं इस बात से?
किस तरह मेरी तारीफ़ की है? अरे नहीं। जो मैंने किया है, लिखा है वही लिखा है उन्होंने। एक बात मुझे अच्छी लगी जो उन्होंने कही, ” तुम स्त्री को गांव लाई। गांव की
स्त्री और स्त्री के गांव में फर्क है।” उनका यह कहना मुझे ठीक लगा कि ये एक नई बात हुई। क्या वाकई ही मैंने ऐसा किया है! यूं तो लोग तरह-तरह के कमेंण्ट देते हैं, अपनी समझदारी से देते हैं, सहमति-असहमति प्रकट करते हैं। उससे मुझे खास वो नहीं है। जैसे उन्होंने सिर्फ कहा (लिखा) था -“तुम नाराज हो?” मैंने कहा था –  मनोहर श्याम जोशी के लिये आपने इस तरह क्यों लिखा?

(गांव में) अभी भी नहीं बदला है- पिता के दबाव, पति के दबाव, भाइयों, रिश्तेदारों के दबाव- वे तो बराबर बने हैं अभी भी।

मैंत्रेयीजी, आपने अपने उपन्यासों में वही स्त्री दिखाई है, वही गांव है जो 35-40 साल पहले का गांव था। क्या अब आपके अगले उपन्यास में गांव की वह स्त्री आ रही है जिसमें बहुत से बदलाव हो चुके हैं?
आपने जो कहा है वह कहां? 30-40 साल पहले तो स्त्री बाहर ही नहीं निकलती थी। सारंग जो साहस दिखाती है, मंदा जैसी लड़की कोई नहीं हो सकती जो कुंवारी रह जाये और गांव, समाज के लिये पूरा जीवन बलिदान कर दे। जिसमें इतना विक्षोभ भी है और साहस भी। तो यह तो 35-40 साल पहले की स्त्री तो बिल्कुल नहीं है।

नहीं, मेरा कहना यह था कि अब जो गांव की बहुत सी महिलायें सुरक्षित सीट या महिला सीट होने के चलते आगे तो आ गईं हैं, भले ही वे पिछड़ी हुईं थी लेकिन दो चार महीने में वे भी ‘सिस्टम’ में रवां हो जाती हैं और वे भी आधुनिकता का वही रूप पकड़ लेती हैं। आप अपने उपन्यास में इस स्त्री को लेकर लिखने के बारे में कुछ सोचती हैं?
देखिये, मेरी एक कहानी है- ‘फैसला” और चार-छह उपन्यास भी यही कहते हैं कि वो घर से निकलकर पंचायत तक आ गई। पर्चा भरने खुद गई। वह समझ रही है कि जब तक इस पंचायत में हस्तक्षेप नहीं होगा तब तक प्रधान और ये सब मिलकर उसे ऐसे ही धचके देते रहेंगे जो उसे तबाह करते रहेंगे। कहानी ‘फैसला’ में यही है कि जो पतियों के दबाव हैं वे बरकरार रहेंगे गांव में। अभी भी नहीं बदला है- पिता के दबाव, पति के दबाव, भाइयों के दबाव, रिश्तेदारों के दबाव- तो वे तो बराबर बने हैं वहां पर अभी भी। फैसला की बासुमती कहती है-” जो आप कह रहे हैं वह नहीं। जो मैं सोच रही हूं वो…। जो मैं सोच रही हूं जो मेरा फैसला है वो।” उसमें भी वो पति के खिलाफ वोट देती है।

आप पहली महिला लेखिका हैं जिसने गांव की स्त्री की व्यथा को पूरी गहराई से जाना, समझा और व्यक्त किया है। आपके उपन्यासों ‘इदन्नमम्’, ‘चाक’, ‘अल्मा कबूतरी’ में गांव की स्त्रियां जितनी प्रगतिशीला चित्रित हुयी हैं क्या आज गांव समाज की स्त्रियां वास्तव में इतनी बदल चुकी हैं?
देखिये, प्रेमचन्द ने कहा है कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। तो कहीं तो हैं ऐसी स्त्रियां। इसमें कहीं मुझे ‘विशफुल थिंकिंग’ नहीं दिखानी पड़ी कि ऐसा होना चाहिये ऐसा होगा…।

कितने प्रतिशत होंगी ऐसी स्त्रियां?
ऐसी स्त्रियां निखालिश हों यह नहीं। इनमें कुछ न कुछ यथार्थ मिला हुआ है और कुछ कल्पना। अनुपात, जरूर उसका फर्क हो सकता है। कहीं कल्पना ज्यादा, कहीं यथार्थ ज्यादा। और वो जो स्त्री है जो एक हिम्मत है, हौसला है, जो खुद को व्यक्त करने की क्षमता आ रही है स्त्रियों में। इतना मैं दिखा भी रही हूं लेकिन कहीं-कहीं जहां मुझे कमजोर लगता है, वहां मैं अपनी विशफुल थिंकिंग से, आकांक्षा से अपने सपने को सच करती हूं।

मैत्रेयी पुष्पा, गिरिराज किशोर, प्रियंवदआपकी आत्मकथा, ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ में वैसी बेबाकी नहीं है जैसी अभी प्रभा खेतान की आत्मकथा,  से अनन्या तक में हैं।
मुझे नहीं मालूम। मैंने पढा़ भी नहीं अभी। थोड़ा पढा़ है, जितना हंस में छ्पा है। देखिये मेरा और उनका ( प्रभा खेतान का) परिवेश बिल्कुल अलग है। जिन परिस्थितियों ने मुझे बनाया जाहिर है उन्ही परिस्थितियों ने उन्हें नहीं बनाया। उनका बचपन देखिये और मेरा बचपन देखिये। बहुत अन्तर दिखाई देगा आपको। मैं एक गांव की लड़की, जहां सड़क भी नहीं, कोई सुविधा नहीं, कोई स्कूल नहीं।… और वो एक मारवाड़ी परिवार और वह भी अच्छे-खासे धनाढ्य। उसमें पली-बढ़ीं वे, तो उसमें फर्क तो होगा ही।

और आप जिसे बेबाकी मानते हैं उसका मुझे नहीं मालूम। जो मैंने पढ़ा है वो उनका इसलिये है कि डाकटर से जो संबंध हैं, उसमें बेबाकपना दिखाती हैं, वो उस समय का है जब वे काफ़ी ‘मैच्योर’ हो चुकीं थीं। मेरा उस जमाने का है जब मैं बहुत कच्ची अवस्था में, ‘स्कूल गोइंग’ लड़की थी। उनके अन्दर बहुत समझदारी भी है। मेरे अन्दर समझदारी भी नहीं है। तो उसे आप बेबाकी में रखिये। मेरे को चाहे आप नादानी में रखिये-यह आपके ऊपर है।

हिंदी साहित्य के समकालीन स्त्री लेखन से क्या आप संतुष्ट हैं?
अभी संतुष्ट होने की बात ही नहीं है। अभी वो चीजें आरी नहीं हैं जिन्हें आना है। एक और बात है कि अभी स्त्रियां दो ‘ग्रुप्स’ में बंटीं हैं। एक तो वे जो स्त्री विमर्श को खारिज कर रही हैं। दूसरी स्त्री विमर्श को महत्व दे रहीं हैं। अभी तो यह भी मुद्दा चल रहा है क्योंकि स्त्री विमर्श यहां बहुत पुराना नहीं है। स्त्री के ऊपर स्त्री ने लिखा है लेकिन स्त्री विमर्श क्या है इस पर बात नहीं हुई। अभी तो पूरा स्त्री विमर्श् क्या होता है इसी की परिभाषा नहीं पता स्त्रियों को और् राजेंद्र् यादव ने जो हंस के सम्पादकीय में लिखा है उसमें बहुत कुछ समझाया है। हालांकि वे पुरुष हैं लेकिन मेरे ख्याल में स्त्री लेखन से ही लेकर उन्होंने निचोड़ निकाला है।

एक सम्पन्न परिवार की महिला होते हुये भी कैसे आप बुंदेलखंड के गांव की निम्नवर्गीय स्त्री की समस्यायों व पीड़ाओं को इतनी गहराई से समझ और व्यक्त कर लेती हैं?
असल में दीपजी, लोगों को ऐसा भ्रम है कि मैं एक सम्पन्न परिवार की महिला हूं। जब मैं महिला हुई और उतरती अवस्था की महिला हुई तब सम्पन्नता दिखने लगी क्योंकि लड़कियां बड़ी हो गयीं, परिवार भी समर्थ हो गया। उससे पहले तो मैं बहुत विपन्न और बहुत निम्न मध्यवर्ग की लड़की थी जिसके पास वो सहारा भी नहीं था जो गांव की लड़कियों के पास होता है। आपने ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ में पढ़ा होगा कि मैं ऐसी लड़की थी जिसके पास खाने के लिये रोटी भी नहीं थी, रहने के लिये घर नहीं था, पढ़ने के लिये साधन नहीं थे…।

आदमी सुख भूला जाता है, दुख नहीं भूलता। जो मंजिल पा लेते है वो भी अपने संघर्ष याद रखते हैं।वे सारी इतनी पुरानी बातें आपकी स्मृति में कैसे संचित रहे गईं?
देखिये आदमी सुख भूला जाता है, दुख नहीं भूलता। आदमी जो मंजिल पा लेते है तो भी अपने संघर्ष याद रखता है।

इसको मैं पलट दूं कि आदमी सारी उम्र भूला जाता है लेकिन बचपन नहीं भूलता। तो बचपन ऐसी निश्छल चीज है जो अभी तक याद है। बचपन विपन्नता में गुजरा, संकटों में गुजरा। वही सब मेरे साथ था जिसे मैं साहित्य में ले आई। वही सब आज भी मुझे उनसे जोड़े हुये है। मुझे किसी भी क्षेत्र में, देश के किसी भी इलाके में भेज दीजिये मैं बहुत खुश रहूंगी और वहां जैसे मैंने बचपन काटा वैसे ही लोगों से जुड़कर फिर कुछ लिखना चाहूंगी।

इस वक्त आप क्या लिखा रहीं हैं?
हर लेखक से यह सवाल पूछा जाता है कि वह क्या लिख रहा है! यह तो पक्का है कि लेखक लिखे बिना नहीं रह सकता। उसके हिसाब से कोई छोटा-बड़ा लेखन नहीं होता है। लेखक जो भी लिखता है पूरी ताकत से लिखता हैं, उनकी किताब भी आ गई है- ‘सुनो मालिक सुनो’।

एक जो असंतुष्टि होती है लेखक में कि अभी हमने जो लिखना था वह लिखा नहीं पाया…?
हां…। अब तो मैं इसलिये लिख रही हूं कि आत्मकथा का दूसरा भाग लिख सकूं।

‘कस्तूरी कुंडल बसै’ का दूसरा भाग?
हां, मेरे लिये वह बहुत जरूरी है। कभी न कभी लिखूंगी। जो पाठक वर्ग इतना फैल गया है वह कहता है कि ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ के बाद यह बताइये कि आप लेखिका कैसे बनीं? जो लड़की इस तरह की थी वह लेखिका कैसे बन गई? इतने बीहड़ से आकर। और जान लीजिये इसमें मेरी शादी का, मेरे पति का कोई सहयोग नहीं। यह तो मेरे अंदर ही कुछ होगा उसी से लिखा यह सब। लेखिका कैसे बन गई यह सब बताना है मुझे।

लिखने की यह प्रेरणा, यह उत्कट जज्बा कहां से आया आप में?
लोग एकदम से कह देते हैं कि मेरी प्रेरणा यह है, वह है। यह गलत है। वो पूरा सोच नहीं पाते। एकदम से कह देते हैं, उतावली में। प्रेरणा एक नहीं होती। प्रेरणा एक भी नहीं होती, एक स्थितियां भी नहीं होतीं। प्रेरणा तो थोड़ी-थोड़ी जाने कहां-कहां से मिलती है और वह एक जज्बा बन जाती है।

आपने अपनी लेखन शुरू किया है सरिता वगैरह से और उसके बाद से एकदम इतना परिपक्व लेखन! यह कैसे हुआ?
असल में पहले तो मुझे यह भी नहीं पता था कि जो मैं लिखूंगी वह छप भी जायेगा, जैसा कि हर लेखक को लगता है। मैं बार-बार कहती हूं कि मेरी बड़ी बेटी है, उसने कहा कुछ लिखो। तुम हमारे लिये लिखतीं थीं तो कुछ इनाम-विनाम मिल जाते थे। अपने नाम से लिखो। तो मैंने उससे यह कहा था कि बेटा मेरा नाम क्या है? मैं तो नाम भी भूल गई। मैं तो मिसेज शर्मा हूं। डाक्टर आर.सी.शर्मा की वाइफ। इसके सिवा मुझे कुछ याद नहीं। तो उस वक्त मैं इस अवस्था में थी। बच्चियों के कहने से मैंने कहानी लिखी। मुझे नहीं पता था कि वह छपेगी भी या नहीं। वह छपी भी नहीं। पढती भी थी लेकिन पढने की एक और विडम्बना मेरे साथ थी कि जब मैं किसी की कहानी पढ़ती थी, मान लो मैं धर्मयुग या साप्ताहिक हिंदुस्तान में किसी की कहानी पढ़ रही हूं, उसके समानान्तर मेरे मन में कोई कहानी चलने लगती थी। मैं इससे इतनी परेशान हो जाती थी कि पढ़ना छोड़ देती थी और अपनी मन की कहानी कहने लगती थी। इस तरह दूसरे की कहानी को भी एक प्रेरणा कह सकते हैं। मैं उस समय इस अवस्था में थी कि यह जानते हुये भी कि यह कहानी छपेगी नहीं मैंने कहानी लिखी। कहानी छपी नहीं लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। जैसा कि नये लेखक करते हैं कि एक बार कहानी नहीं छपी तो निराश हो जाते हैं कि हम फिर कभी नहीं लिखेंगे। मैंने सोच लिया था कि बच्चों ने कहा है तो अब मैं यह नहीं करूंगी कि नहीं छपी तो नहीं लिखूंगी।

फिर मैंने लिखी कहानी। वह नहीं छपी तो फिर लिखी। फिर-फिर लिखी। एक कहानी ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छप गई। जब एक बार छप गई तो लिखना शुरू हो गया। यह भी बहुत जरूरी है किसी लेखक के लिये उसका एकबार छप जाना।

शादी के शुरू-शुरू में मैंने पति को लिखा था, “मैंने तो साथी-सखा ढूंढा था तुम तो मालिक हो गये।” ये कीटाणु तब से रेंग रहे थे मेरे मन में!

अब आप कैसा महसूस करती हैं? एक नामी डाक्टर की पत्नी और एक प्रतिष्ठित लेखिका हैं, इन दोनों के साथ आप कैसा महसूस करती हैं?
देखिये डाक्टर की पत्नी तो मैंने कभी महसूस ही नहीं किया। ठीक है कि मैं शादी करके आई थी। अभी मैंने अपनी पुरानी चिट्ठियां निकालकर पढ़ीं तो मेरी एक चिट्ठी, बहुत पुरानी चिट्ठी, जब मैं बीस वर्ष की थी और मेरी शादी के शुरू-शुरू के दिन रहे होंगे, उसमें मैंने एक वाक्य अपने पति को लिखा था-“मैंने तो साथी-सखा ढूंढा था तुम तो मालिक हो गये।” तो मुझे एकदम से लगा कि ये कीटाणु कब से रेंग रहे थे मेरे मन में, कब से कुलबुला रहे थे जो मैंने ऐसा लिखा!

तो सच तो यह है कि पत्नी कभी माना ही नहीं मैंने खुद को। यह मेरे पति का दुर्भाग्य समझ लीजिये कि मैने पत्नी की तरह कभी उनकी सेवा नहीं की जैसी दूसरी औरतें करती हैं कि कहीं जा रहे हैं तो अटैची लगा दी, नहाने जा रहे हैं तो कपड़े रख देतीं हैं, उनके कपड़े प्रेस करतीं हैं -यह कभी नहीं किया। और पति ने कभी इस बात की शिकायत नहीं की। उन्होंने हमेशा अपना काम कर लिया। मैंने कभी नहीं पूछा कि तुम कब आओगे तो लोगों को इससे बहुत शिकायत होती है कि वो जाते हैं तो तुम तो पूछ लेतीं कि कब वापस आओगे? पर उनके जाने पर मैं खुद को स्वतंत्र महसूस करती। मैं सोचती कि अब मैं अपने मन का कुछ करूंगी। कुछ अपने मन का करूंगी, कुछ गज़ल सुनूंगी।

जैसे पेपरवेट उठ गया। अब मैं उडूंगी?
हां, इस तरह उडूंगी चाहे घर में ही उडूं। हालांकि पति सोचते थे कि ये क्यों नहीं मानती। वो मुझे उदाहरण भी देते दूसरी स्त्रियों के। मैं कहती थी कि पता नहीं, मैंने तुमसे शादी इसलिये नहीं की। हालांकि मेरा प्रेम विवाह नहीं हुआ था, अरेंज्ड मैरिज थी लेकिन अरेंज्ड मैरिज भी मेरी मर्जी से हुई थी। मैं कहती कि मैं तुमको पति मानकर नहीं आई थी मैंने तो सोचा था कोई साथी मिलेगा। तो यह समझे लीजिये कि मैंने पारंपरिक रूप में पत्नी कभी नहीं माना अपने-आपको। हां, लेखिका भी नहीं माना अपने आपको। कोई कहता है लेखिका तो मैं सकुचा जाती हूं,संकोच होता है कि मैं कहां लेखिका। जो था मेरे पास…तो ठीक है लिखती हूं। जो रचनाओं में, बहस में, विवादों में आया है वह मेरे लेखन का, साहित्यिक भाषा में क्या कहते हैं, अवदान रहेगा।

सभी चित्र व साक्षात्कार शब्दांकनः अनूप शुक्ला

5 प्रतिक्रियाएं
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  1. रागिनी का कहना सही है। हिन्दी जगत में लेखिकाओं के सामने वरिष्ठ मैत्रेयी का उदाहरण हो जो राजेन्द्र यादव की प्रेमिका बन कर हिन्दी में रानी मधुमक्खी का सा मजा उठाती है। तमाम पुरस्कार हथियाती है तो महुआ मांझी जैसी अति महत्वाकांक्षी औरतें क्यों पीछे रहें, जो साहित्य के बारे में विचार शून्य है। पंखुरी उसी के पदचिन्हों पर है अपने तलाक की गाथा किश्तों में लिख कर महान लेखका बनने की चाह में पोपले परमानंद को गाडफादर बना रही है। हिन्दी कथाजगत की नंगई की ईसी जगत में सबको खबर है।

  2. अभी आउटलुक साप्ताहिक में होली पर गीता श्री ने आजकल के हिन्दी साहित्य का मुखौटा उतार दिया। वहां स्त्री विमर्श के नाम पे यही हो रहा है। महुआ मांझी साहित्य की मल्लिका शेरावत बन गई है। राजेन्द्र यादव की सखि मैत्रेयी पुष्पा गाय नहीं लोमडी है। ये साहित्य का परिदृश्य इतना खराब कर चुकी हैं कि कोई भली लेखिका यहां नाम नहीं पा सकती। संपादक, प्रकाशक लेखिकाओं को सेक्स ऑबजेक्ट समझते हैं। राजकमल से छपने वाली हर लेखिका की यही विडंबना है। यह सच एक नंगा सच है। जिसे कोई ब्लॉग ही उघाङ सकता है। रागिनी गुप्त

  3. चुसे आम से चेहरे वाली लेखिका मैञेयी पुष्पा पत्नी पद को गाली और प्रेमिका पद को सिंहासन समझती है। जबकि पति के पैसे पर संपादकों को कृतार्थ करती है। महुआ माजी को बदचलन कहती है,खुद भी तो पुरस्कार के लिए बुङ्ढे राजेन्द्र यादव ……..खुद को महान, चिञा मुदगल, ममता जी के आगे यह स्तरहीन है, मस्तराम का फीमेल संस्करण। राजेन्द्र यादव को मरने दो इसे टके के भाव कोई नहीं पूछेगा.

  4. maitreyi chahe jo bhi hon mai unke personal life me nahi jana chahti lekin jo shabd yaha gyaniyo ne istemal kiya hai uspar kisi sahityik aur sanskari person ko apatti zaroor ho sakti hai.comment likhne ki bhi ek maryada hoti hai aur jin logo ko itni bhi tameez nahi hai ki social site par kaise vichar vyakt karne chahiye unhe sahitya se sarokar dikhane ka koi haq nahi hai.

  5. इसमें कोई संदेह नहीं मत्रैयी जी का लेखन गजब है। चाक और कहो ईसूरी फाग जैसे उपन्यास कलजयी हैं। ना होगीं वे कृष्णा सोबती और शिवानी जी जैसी लेखिका पर आज के साहित्यिक संसार में वे एकमात्र नारी है जिन्होंने इतना खुलकर लिखा है। निजी जीवन का क्या है सबके अपने होते है कुछ पल जिन्हें यादकर कोई भी खुशी पाना चाहेगा। क्या लेखिका नेत्री या किसी पद प्रतिष्ठा को पा चुकी महिला का अपना निजी जीवन नहीं होना चाहिये। वो हर स्त्री का अपना अधिकार है …कोई इतनी भी हिम्मत दिखाती हैं कि उन अपने नितांत निजी पलों घटनाओं और अवसरों को पाठकों से सांझेदारी के लायक मानती है कोई नहीं भी। पर इन चीजों का एक लेखक के अंतरमन से क्या ताल्लुक …। वह हर हाल में लेखन करते हैं …यह उनकी आत्मा का भोजन है। जब तक जीते हैं ….यही सब करेगें। अतः यह सब कहना बहुत हल्की बात करना है। लेखक को लेखक ही बने रहने देना चाहिए।

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