Real Estate Bubble

“य

दि आपने होम लोन लिया है तो आप को आयकर में काफी छूट मिल सकती है, आज के समय में कर्ज़ लेकर घर लेना बहुत ही फायदेमंद हो सकता है।” कल जब मैं अपने काम के सिलसिले मैं श्रीमति नायर (बदला हुआ नाम) से मिला तो उन्हें सलाह दे रहा था। श्रीमति नायर दिल्ली के नजदीक गुड़गांव में रहती हैं तथा वहीं स्थित एक बड़ी सूचना प्रोद्योगिकी कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं। मेरा काम लोगों को टैक्स नियोजन और बेहतर निवेश के विकल्पों के बारे परामर्श देने का है। “आप यदि घर के लिये लोन लेते हैं तो एक वित्त वर्ष में आपके द्वारा होमलोन पर दिये गये ब्याज पर आप धारा 24(b) के अंतर्गत डेढ़ लाख रुपये तक तथा मूलधन की अदायगी पर धारा 80(c) के अंतर्गत एक लाख रुपये तक कर योग्य आय में कटौती के हकदार होते हैं”, मैंने उन्हें बताया।

“हम खोज में लगे हैं भाटिया साहब, मगर कोई भी मनपसंद मकान एक डेढ़ करोड़ से कम दाम में उपलब्ध ही नहीं है।” मायूस हो कर श्रीमति नायर ने कहा।

शहर चाहे गुड़गांव हो या बंगलूर, पुणे या हैदराबाद। प्रॉपर्टी की कीमतें पिछले तीन सालों में दो से तीन गुनी बढ़ गई हैं।

श्री नायर भी एक अन्य बड़ी आईटी कंपनी में ही प्रोजेक्ट मैनेजर हैं मगर पति पत्नी दोनों मिल कर भी अपनी ही पसंद का घर ले पाने में असमर्थ हैं। लगभग यही कहानी आज कई घरों में देखी जा सकती है। शहर चाहे गुड़गांव हो या बंगलूर, पुणे या हैदराबाद। प्रॉपर्टी की कीमतें पिछले तीन सालों में दो से तीन गुनी बढ़ गई हैं और इस तेज़ी में ठहराव के कोई संकेत नहीं दिख रहे। तो हैरत नहीं होनी चाहिये अगर आपको पुणे के कोरेगाँव पार्क इलाके में ब्रोकर एक करोड़ का बंगला दिखाये। हाल ही खबर के अनुसार दक्षिणी मुंबई में समुद्र की ओर मुंह बाये एक अपार्टमेंट 63,000 रुपये प्रति वर्गफुट के दर से बिकी, इसने तो न्यूयॉर्क की कीमत को भी धोबी पछाड़ दे दिया। मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता और चैन्नई जैसे महानगरों में कीमतें हर साल 30 से 40 प्रतिशत बढ़ती रही हैं। नीम चढ़े करेले की तर्ज़ पर होम लोन की ब्याज़ दरों में भी लागातार और बेलगाम बढ़त होती जा रही है, यह रपट प्रकाशित होने के कुछ दिन पहले ही, वित्त मंत्री की सारकारी बैंकों को कर्ज़ दरों पर नियंत्रण रखने की सलाह को लगभग मुंह चिढ़ाते हुये एक निजी बैंक ने अपनी होम लोन की ब्याज़ दर में 1 प्रतिशत की बढ़त की घोषणा कर दी। जनवरी 2007 में महंगाई दर अपने चरम पर है।

क्या ये बुलबला है या…

क्या प्रॉपर्टी की कीमतों में यह अव्यावाहारिक उछाल बाजार में मांग और पूर्ति के नियमों पर आधारित है, या फिर सारी मांग और बढ़ती कीमतें एक फूलते बुलबुले का हिस्सा है जो जब भी फटे तबाही ही बरपा करेगा। वित्त सलाहकार संदीप शानबाग कहते हैं, “यह विश्वास से कह सकना तो मुश्किल है कि यह रीयल एस्टेट बबल है या नहीं क्योंकि ज़मीन सीमित रूप से उपलब्ध है जबकि बढ़ती जनसंख्या के चलते उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ रही है, ऐसे में भूसंपत्ति निवेश में बढ़त तो जारी रहेगी।”

बुलबुला रे बुलबुला

Bubble

रीयल एस्टेट बबल या प्रॉपर्टी बबल या हाउसिंग बबल स्थानीय व वैश्विक भूसंपत्ति बाजार में समय समय पर बनता रहता है। साबुन के बुलबुले के समान ही ये बबल भी तेज़ी से बनते हैं, भूसंपत्ति और मकानों की कीमतों में तेज़ बढ़त होती है। जब इस वृद्धि को कुल आय और अन्य आर्थिक तत्वों के मुकाबले बनाये रखना असंभव हो जाता है तो फिर कीमतें धाराशायी होने लगती हैं, जिसे हाऊस प्राईस क्रैश या मार्केट करेक्शन कहा जाता है। किसी भी ऐसे बुलबुले का पता अक्सर इस ध्वंस के बाद ही पता चल पाता है। हालांकि ऐसे बुलबुले का धमाका स्टाक बाजार जैसा तेज़ नहीं होता, क्योंकि लोग भूसंपत्ति बेचना बंद कर देते हैं। अगर महंगाई दर कम रहे तो कीमतें एकदम से नीचे भी गिर सकती हैं अन्यथा ये 3 से 5 सालों तक जस की तस बनी रहती हैं।

इकॉनामिस्ट पत्रिका ने “मकानों की कीमतों में विश्वव्यापी बढ़त को इतिहास का सबसे बड़ा बुलबुला” करार दिया है । ऐसे बुलबुलों की उपस्थिति अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, चीन जैसे देशों के अलावा भारत में भी होना माना गया है। अमरीकी बाजार में सन 2001 से हाउसिंग बबल का होना माना गया है, खास तौर पर कैलिफॉर्निया, फ्लोरिडा और न्यूयॉर्क जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में। अमेरिकी बुलबुले के होने के नेपथ्य में जिन कारणों का होना माना जाता है उनमें प्रमुख है घर खरीदने का उन्माद, यह धारणा कि गृहसंपत्ति बिना जोखिम का लाभप्रद निवेश है, मीडिया में भूसंपत्ति की लोकप्रियता. कम ब्याज़ दर और 2000 में स्टॉक व डॉटकॉम बुलबुले के फूटने के बाद स्टॉक में निवेश से डर जैसे कारण। यदि आप तुलना करें तो काफी सारे कारण आपको भारतीय परिस्थितियों से मिलते जुलते लगेंगे। कोरिया में एशियाई वितंतिय संकट के तुरंत बाद मकानों की की मतों में 45 प्रतिशत तक गिरावट आ गई। हाँगकाँग में भी 1998 महंगे घरों की कीमतों में 58 प्रतिशत गिरावट आई थी।

बुलबुले केवल भूसंपत्ति बाजार में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी देखे गये हैं, जैसे कि डॉटकॉम बबल जिसमें 1995-2001 के दौरान इंटरनेट क्षेत्र की कंपनियों की स्टॉक कीमतों में अभूतपूर्व बढ़त देखी गई। इस दौरान वेन्चर कैपीटल की बदौलत डॉटकॉम कंपनियां कुकुमुत्तों के तरह उगीं। 2001 में अमेरिका आनलाउन द्वारा विश्व की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी टाईम्स वार्नर के अधिग्रहण के बाद जब ये बुलबुला फूटा तो जाने कितनी कंपनियां रातों रात दिवालियां हो गईं और न जाने कितने ही सूचना प्रोद्योगिकी कर्मचारियों, जिनमें एचवन वीसा पर गये अनेक भारतीय भी शुमार थे, को अगली सुबह पिंक स्लिप थमा दी गई।

गत वर्ष 2006 में अंतर्जाल की दुनिया में कई बदलाव आये। वेब २ के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। पर यूट्यूब के गूगल और स्काईप के ईबे जैसे अनेकों अधिग्रहण के पश्चात दबे शब्दों में कहा जाता है कि कहीं कथित वेब 2.0 एक नये बुलबुले के बनने का संकेत न हो।

यह सच है कि पारंपरिक रूप से भारतीय भौतिक संपत्ति जैसे जमीन और सोने में निवेश करना पसंद करते रहे हैं पर क्या किसी प्रगतिशील अर्थव्वस्था के लिये आसमान छूती भूसंपत्ति दर अच्छी बात है? कई यह मानते हैं कि भूसंपत्ति और भूनिर्माण मे तेज़ी का मुख्य कारण है अप्रवासी भारतीयों के निवेश का अंतर्वाह और काले धन का प्रादुर्भाव। 2005 में अप्रवासी भारतीयों का कुल निवेश 90,000 करोड़ रुपये था। संदीप सहमती जताते हैं, “भारतीय बाजार में प्रवासी व अप्रवासी भारतीय दोनों ही अपने प्रयोग के लिये नहीं बल्कि निवेश के रूप में भूसंपत्ति खरीद रहे हैं। इस नकली माँग की वजह से असल उपभोक्ता को निचुड़ना पड़ रहा है।” कई भवन निर्माता तथा इस व्यावसाय में लगी कंपनियों के अधिकारी स्वीकार करते हैं कि जमीन की कीमतें वास्तविक नहीं हैं।

ट्रैमल क्रो मेघराज प्रॉपर्टी कंसलटेंट्स के प्रबंध निदेशक अनुज पुरी मानते हैं कि दक्षिणी मुंबई के नरिमन पाईंट व वर्ली, तथा नवी मुंबई में अधिमुल्यन के संकेत हैं पर यह स्वीकारने को तैयार नहीं कि यह बुलबुले के चिन्ह हैं। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि माँग के अनुपात में ही कीमतें बढ़ रही हैं न कि निवेशकों या स्पेक्यूलेशन की वजह से। पर इंडीयन एक्सप्रेस की सुचेता दलाल ने अपने हालिया लेख में ऐसे सभी विशेषज्ञों की राय को खारिज करते हुये स्पष्ट लिखा कि भारतीय रियेलटी बाज़ार में खतरनाक बुलबुले के सारे संकेत हैं। उन्होंने आशंका जताई है कि भूसंपत्ति तथा शेयर बाजार की कीमतों में बेतुके उफान के नेपथ्य में लोगों की मिलीभगत और निहित स्वार्थ है।

इंडीयन एक्सप्रेस की सुचेता दलाल ने आशंका जताई है कि भूसंपत्ति तथा शेयर बाजार की कीमतों में बेतुके उफान के नेपथ्य में मिलीभगत और निहित स्वार्थ है।

रीयल एस्टेट का बाजार का स्पेक्यूलेटिव यानी अटकलबाजी पर आधारित हो जाना निश्चित ही खतरनाक है। जो लोग केवल निवेश करने के लिये तथा बाद में ऊंची कीमतें हासिल करने के लिये प्रापर्टी खरीद रहे हैं वे लोग कीमतें बढ़ने पर इनको बेचेंगे ही। उस हालत में यह बुलबुला अवश्य फूटेगा। ऐसे कई और कारण दृष्टव्य होते हैं जिससे ये कीमतें दीर्घकालिक योजना में व्यवाहरिक नहीं लगती। सामान्य खरीददार के मामले में यदि किराये के लिहाज़ से देखें तो मकान की कीमतों के मुकाबले भाड़ा काफी कम है। तिस पर जोखिम काफी है, लोग मकान की कुल कीमत का 80 फीसदी तक हिस्सा गृह रृण से अदा करते हैं। फर्ज़ करें कि बैंक की ब्याज दर में सहसा भारी बढ़त हो जाये या भूसंपत्ति की कीमतें में भारी गिरावट आ जाये या फिर खरीददार की तनख्वाह ही कम हो जाय तो कई घरों के बजट औंधे मुंह जा गिरेंगे।

पुणे जैसे शहरों में शहर के केंद्र से काफी दूर बसे इलाकों में भूसंपत्ति अमरीका के सबअर्बन स्प्रॉल या एक्ज़र्ब की तर्ज पर एनेक्स जैसे जुमले जोड़ कर काफी कम दामों में बेचे गये, और बेचे जा रहे हैं, कारक है इंफ्रास्ट्रक्चर और आवागमन के साधनों का अभाव। अनुमान लगायें कि अगले पाँच सालों में यह अभाव दूर हो जाये तो शहर के केंद्र में रहने वाले असंख्य लोग जो कई गुना अधिक भाड़ा देकर रहते आये हैं शर्तिया इन बाहरी इलाकों में स्थानांतरित होना पसंद करेंगे और प्रॉपर्टी की कीमतें पाताल का रूख करेंगी।

ये सारे अनुमान किताबी भले लगें पर ये एक अनियंत्रित बाजार की ओर संकेत करते हैं जिसका उंट करवट बदले तो कई परिवारों के जीवन में तूफान और अशांति ला सकता है।

रेगुलेटर की कमी

जिस प्रकार शेयर बाजार पर सेबी नज़र रखती है, हाऊसिंग उद्योग में भवन निर्माताओं, कंपनियों और दलालों को नियंत्रित करने के लिये कोई सरकारी प्राधीकरण नहीं है।

हाऊसिंग उद्योग में सबसे बड़ी कमी किसी भी प्रकार के रेगुलेटर या नियामक का न होना है। जिस प्रकार शेयर बाजार पर सेबी नज़र रखती है उसी प्रकार हाऊसिंग उद्योग में कार्यरत भवन निर्माताओं, कंपनियों और दलालों को नियंत्रित करने के लिये अलग से कोई सरकारी अथॉरिटी (प्राधीकरण) नहीं है। कोई भी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना कर जमीन अथवा मकान बेचने के लिये ग्राहकों से पैसे वसूलना शुरू कर सकता है। ग्राहक के पास यह जानने का कोई साधन नहीं होता है कि जो कंपनी प्रापर्टी के लिये पैसे वसूल रही है वह जाली तो नहीं है। कंपनी क्या वास्तव में उस प्रापर्टी को बेचने कि अधिकारी है? कंपनी जितनी प्रापर्टी बेच सकती है कहीं उससे अधिक बुकिंग तो नहीं कर रही? जो कीमतें वो वसूल कर रही है वह उचित हैं या नहीं?

इसी प्रकार दलालों पर भी नियंत्रण बहुत आवश्यक है। दलालों की कीमतें तथा सेवा शुल्क निर्धारित करने चाहियें। दलाल अमूमन 2% से लेकर 4% तक शुल्क लेते हैं जो कि बहुत अधिक है। तिस पर ज्यादातर दलाल न तो पेशेवर होते हैं और न ही कानूनों के जानकार। एक बार सौदा पट जाने के बाद ये लोग अपनी जिम्मेदारी से भी हाथ खींच लेते हैं। दलालों का न तो कोई पंजीकरण होता है और न ही कोई प्रशिक्षण। कई बार कई स्थानों पर भवन निर्माता माफिया काम करता है और इनको राजनैतिक संरक्षण भी प्राप्त होता है।

संदीप शानबाग मानते हैं कि रीयल एस्टेट का क्षेत्र लगभग अनियंत्रित है। उनका कहना है, “बेईमान तत्वों को इस समीकरण से दरकिनार करने का एकमात्र तरीका है कि खरीददार निर्माण की गुणवत्ता और निर्माता के रसूख़ और पिछले कार्य का ध्यान रखें। एचडीएफसी जैसी हाउसिंग फाईनैंस कंपनियाँ अच्छे बिल्डरों की परियोजनाओं को ही समर्थन देती हैं। फिर भी कोई परेशानी में फंस जायें तो न्यायालय की शरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता। और हमारी कानून व्यवस्था की रफ़्तार को देखते हुये इलाज से बेहतर उपाय है, बचाव।”

केवल बड़ी ईकाईयों का निर्माण

निजी भवन निर्माता अधिक लागत वाले लग्जरी आपार्टमेंट बनाने में ज्यादा रुची दिखा रहे हैं तथा मध्यमवर्ग की जरूरतों को अनदेखा कर रहे है।

मकानों अथवा रिहाइशी इकाइयों का निर्माण स्थानीय सामाजिक अथवा आर्थिक आवश्यकताओं का ध्यान न रख कर केवल निजी फायदों तथा वित्तीय लाभ को देख कर बनाये जाते हैं। यहां तक कि विभिन्न शहरी विकास प्राधिकरण भी अपनी इन जिम्मेदारियों को नहीं समझते। शहरों में जहां स्लम तथा झुग्गी झोपड़ियों की समस्या है वहां भी ये प्राधिकरण छोटी इकाइयों का निर्माण कर सस्ते घर उपल्ब्ध करवाने में नाकाम रही हैं। सरकारी मास्टर प्लानों में भी यह दूरदर्शिता देखने को नहीं मिलती है। जहां कुछ एक छोटी इकाइयां बनायी जाती हैं उन्हे बिचौलिये हथिया लेते हैं और वास्तविक जरूरतमंद तक यह नहीं पहुंच पातीं।

निजी भवन निर्माता भी अधिक लागत वाले लग्जरी आपार्टमेंट बनाने में ज्यादा रुची दिखा रहे हैं तथा मध्यमवर्ग की जरूरतों को अनदेखा कर रहे है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि लग्जरी इकाइयां तो कम बिक रही हैं पर अधिक बन रही हैं तथा मध्यम श्रेणी की इकाइयां कम बन रही हैं और उनकी मांग अधिक है, नतीजा कीमतों में अनाप शनाप बड़ोत्तरी। निम्न वर्ग के लिये निजी भवन निर्माता कुछ बनायेंगे इसकी तो हम उम्मीद भी नहीं कर सकते। इंडियन इकॉनॉमी ब्लॉग में सहलेखक अर्जुन स्वरूप बताते हैं कि आवासी और व्यवसायिक प्रॉपर्टी में ज़ोनिंग (यानि किस स्थान पर किस किस्म की इमारत बने इस का बंटवारा) भी एक बड़ी समस्या है, ज़्यादातर जगहों पर आवासी ज़मीन पर व्यावसायिक इमारत सब नियमों को ताक पर रख खड़ी कर दी जाती है और इससे कीमतें और बढ़ती हैं।

कागजी कार्यवाही में सुधारों की जरूरत

यदि आपने फिल्म ‘खोसला का घोसला’ देखी हो तो जाना होगा कि किस प्रकार भ्रष्टाचार और मिलीभगत के चलते प्रापर्टी के कागजों में फर्जीवाड़ा करके दूसरों की प्रापर्टी हथिया ली जाती है। इस क्षेत्र में जल्द से जल्द सुधार लाने की आवश्यकता है। कभी काले पैसे के लेनेदेन को छिपाने के लिये तो कभी रजिस्ट्रेशन फीस को बचाने के लिये वास्तविक कीमत से कहीं कम की सेल डीड बनाई जाती है। हैरानी तो इस बात की है कि लोन देने वाले बैंक भी जानते हैं कि प्रापर्टी की खरीददारी में भुगतान काले तथा सफेद धन दोनों में अलग अलग किया जाता है। प्रापर्टी की वास्तविक कीमत कुछ और होती है तो कागजों पर कुछ और। जिन क्षेत्रों में पॉवर ऑफ अटार्नी पर प्रापर्टी के सौदे होते हैं वहां का तो भगवान ही मालिक है।

आर्थिक सामर्थ्य के बदलते समीकरण

नया उपभोक्ता वर्ग भूसंपत्ति की कीमतों को पूँजीनिवेश न मानकार केवल ईएमआई और कर्ज़ के पैमाने पर ही तौलता है।

निरंतर ने भूसंपत्ति से संबंधित सवाल ग्लोबल इकॉनामी मैटर्स के दल के सामने भी रखा। स्पेन के एडवर्ड ह्यू भी बुलबुले की बात से सहमत नहीं। पर उनके दल के वेंकट ने बड़ी रोचक बात सामने रखी वह थी एक नये उपभोक्ता वर्ग के उदय की। हम हमेशा परंपरागत उपभोक्ताओं की बात सोचते हैं पर यह नया वर्ग भूसंपत्ति की कीमतों को पूँजीनिवेश न मानकार केवल ईएमआई और कर्ज़ के पैमाने पर ही तौलता है। कुछ यही कारण आटोमोबील क्षेत्र में देखा गया जहाँ महँगी गाड़ियाँ, भले कर्ज़ के भरोसे हो, ज़्यादा बिक रही हैं। कुछ ऐसा ही हाल भारतीय रीयल एस्टेट का भी हो चला है, आम पहुँच के मकानों की बनिस्बत डीलक्ससुपर डीलक्स निर्माण हो रहे हैं। एहडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख ने भी कहा , “रीयल एस्टेट का वास्ता वाजिब कीमतों से होना ही चाहिये, एक या दो करोड़ के घर बनाने का क्या लाभ जब लोगों के पास कीमतें अदा करने लायक संपदा ही न हो”।

क्या सुधार होगा?

यह सवाल तो सभी की ज़बां पर है। क्या कीमतों में यह आतिशी बढ़त कम होगी? क्या कीमतें भी कम होंगी? अनुज पुरी का जवाब काफी प्रत्याशित है कहते हैं कि कीमतों की वृद्धि में कमी तभी आ सकेगी जब निर्माण माँग से टक्कर ले सकें। वेंकट कहते हैं, “हमें इसकी परवाह नहीं होनी चाहिये क्योंकि भारत की जीडीपी बढ़त बढ़िया है और लोगों की आय में कमी के कोई संकेत नहीं दिखते। ऐसे में वाजिब कीमत का सवाल कोई पूछ नहीं रहा, जब तक पार्टी चल रही है मौज करो।”

दीपक पारेख के हालिया बयान से यह बात सामने आई थी कि बाजार में कुछ सुधार होगा। बैंक परेशान हैं क्योंकि जमा के मुकाबले कर्ज़ की बढ़त तेज़ है और यह कारण बन रहा है ब्याज़ दरों मे बढ़त का जिससे भारत की अरथव्यवस्था की रफ़्तार भी धीमी होगी। तो विशेषज्ञों की राय मानी जाय तो भूसंपत्ति बाजार में गिरावट तो नहीं पर जल्द ही स्थिरता जरूर आयेगी। पर ऐसे लोग भी हैं जो यह मानते हैं कि लंबी रेस में भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसी स्थिति से कोई खतरा नहीं।

प्रापर्टी के बजार में आम उपभोक्ता शहरी विकास प्राधिकरणॊं मे व्याप्त भ्रष्टाचार तथा भवन निर्माताओं, भूमाफिया तथा उनके राजनैतिक आकाओं की मिलीभगत से त्रस्त है। तिस पर बाजार में तांडव करती कीमतें आग में घी का काम कर रही हैं। मकान की खरीद में सारी उम्र की कमाई और जिंदगी भर के सपने लगते हैं। ध्यान रहे कहीं आपके सपने बाजार की टेढ़ी और निर्दयी चाल के नीचे कुचले न जायें।