Month: April 2005
आ उठ, चल, बाहर जीवन है
वातायन है निरंतर का साहित्य प्रकोष्ठ यानि साहित्यिक प्रतिभा का झरोखा। इस अंक में प्रस्तुत है मानोशी चटर्जी की कविता "आ उठ, चल, बाहर जीवन है" और पूर्णिमा वर्मन की कविता "आवारा वसंत"।
पत्र : वहशीपन से देश महान नहीं बनता
गुजरात सरकार ने हिंदुओं को एकबार शर्मसार किया है और शरारती तत्वों को सजा न देकर अगर वह दुबारा ऐसा करेगी तो दुनियाभर में अपने समर्थक खो देगी। हमारे महान देश का नेतृत्व इतना रीढविहीन एवं अदूरदर्शी कैसे हो सकता है जो गुंडो को राजनैतिक परिदृश्य पर छाने की खुली छूट देता है। निरंतर संपादक मंडल को लिखे अपने खत में चिंता जता रहे है आर्केडिया विश्वविद्यालय, अमरिका में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक डॉ प्रद्युम्न सिंह चौहान।
गिरवी लोकतन्त्र
चिट्ठा चर्चा के अंतर्गत "उसने कहा" में पढ़ें विभिन्न चिट्ठों से चुने कुछ मनभावन कथ्य और उल्लेखनीय उक्तियाँ जो आप भी अपनी डायरी में सहेज कर रखना चाहेंगे।
मैंने कोलिन पॉवल के साथ कपड़े धोए!
"किसी को बाल भर की भी चिन्ता नहीं है कि आप के शहर में मौसम कैसा है। आप अपने कर्सर को तितली की शक्ल देते हैं तो किसी को फर्क नहीं पड़ता, न ही किसी से इस बात पर वोट डालने की उम्मीद कीजिए कि आप का ब्लॉग चकाचक है कि नहीं। बस कुछ असल का माल लिखते जाइए, अपने लिए, अपने बारे में, रोज़ाना।" आस्वादन कीजिये हुसैन द्वारा संकलित, रमण कौल द्वारा अनुवादित, अंर्तजाल के कोने कोने से चुनी बेहद रोचक कड़ियाँ, कुछ खट्टी कुछ मीठी।
मैंने भी बोये कुछ सपने
एक चित्र जिस पर आप अपनी कल्पनाशीलता परख सकते हैं और जीत सकते हैं रेबेका ब्लड की पुस्तक "द वेबलॉग हैन्डबुक" की एक प्रति। भाग लीजिये समस्या पूर्ति प्रतियोगिता में।