भारत में एड्सः शतुरमुर्ग सा रवैया

एड्स से निबटने के लिये योजनाबद्ध तरीके से लोहा ले सकने वाले नेतृत्व की दरकार है

AIDS wall painting/Truckers are considered a vulnerable group.

ड्स से हमें क्या लेना देना। मुझे कभी एड्स नहीं हो सकता। यह तो पैसे बनाने की अंर्तराष्ट्रीय साजिश है, इस से ज़्यादा भयावह तो हेपिटाईटिस रोग है। हमसे ज़्यादा एड्स पीड़ित तो अफ्रीका में हैं। यही मानते हैं न आप? अब चौंकिए! यूएनएड्स की हालिया रपट के मुताबिक विश्व भर में 2005 के अंत तक 386 लाख एचआईवी संक्रमित लोग हैं, सिर्फ एशिया में ही 83 लाख ऐसे लोग हैं और इस की दो तिहाई संख्या भारत में बसती है। जी हाँ, हम दक्षिण अफ्रीका से आगे निकल चुके हैं। भारत अब विश्व की सर्वाधिक एचआईवी संक्रमित जनसंख्या वाला देश बन गया है।

हम चाहें तो भारतीय राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण (नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम) यानि भारानी और स्वास्थ्य मंत्रालय के हमेशा के तर्क – यानि कि ये आँकड़े गलत हैं, भारत के लिये संख्या 52.1 लाख है 57 लाख नहीं – से मतैक्य रखें या फिर समझदारी का परिचय देते हुए कम से कम यह स्वीकारें कि समस्या तो है और इस के प्रति शतुरमुर्गनुमा रवैया नहीं अपनाया जा सकता। भारानी ने माना है कि उसके आँकड़ों में 19 से 49 आयुवर्ग के ही लोग शुमार हैं, माता से बच्चों को या वृद्धों में हुए संक्रमण की जानकारी इसमें शामिल नहीं। जुलाई 2003 में भारानी की परियोजना निदेशक डा.मीनाक्षा दत्ता घोष ने कहा था एड्स भारत में केवल कुछ दलों या शहरों में रहने वालों तक सीमित नहीं है, यह अब आम जनता और गाँवों में भी फैल रही है। भारानी और यूएनएड्स दोनों ही यह मानते हैं कि भारत में 80 से 85 प्रतिशत संक्रमण असुरक्षित विषमलैंगिक (हेट्रोसेक्शुअल) यौन संबंधों से फैल रहा है। इसके बाद दूसरा बड़ा कारण है इंजेक्शन द्वारा नशा करने वालों में संक्रमित सुई का प्रयोग। रक्त बैंको पर चुंकि अब काफी नियंत्रण रखा जाता है इसलिए रक्तदान से संक्रमण का फैलाव बहुत कम हुआ है।

कौन हैं निशाने पर?

How AIDS spreads in Indiaसेक्स वर्कर्स (यौन कर्मियों) को एड्स का बहुत खतरा है। हालाँकि कुछ राज्यों में वेश्यावृति को कानूनी मान्यता मिली है पर उससे जुड़े बहुत से काम जैसे ग्राहक खोजना और वेश्याघर चलाना गैरकानूनी हैं। इस वर्ष मार्च में लेखक ने काठमाण्डू में यौनकर्मियों की एक सभा में भाग लिया। पता चला कि उनमें से बहुत सी स्त्रियाँ शादीशुदा हैं, पति और बच्चों के साथ रहती हैं पर गरीबी और कमाई का अन्य कोई ज़रिया न होना उन्हें इस कार्य की ओर लाता है। एड्स की बात हुई तो उनमें से एक छोटी उम्र की युवती बोली, “सब लोग हमें ही दोष देते हैं कि हम यह बीमारी फैला रहे हैं। हमें कहा जाता है कि हम बिना कॉन्डोम के ग्राहक को न स्वीकारें। पर ग्राहकों के सामने हमारी क्या चलती है? यह मालूम भी हो कि अगर बीमारी हो गयी तो मुझे कोई सहारा नहीं देगा, घर से बाहर निकाल फेकेंगे, पर क्या करुँ? बच्चे भूखे हों तो एक प्लेट खाने के लिए बिक जाती हूँ, मैं किसी को कैसे मजबूर करुँ कि कॉन्डोम पहनो!”

Statewise figures of AIDSअनुमानतः मुम्बई में 15,000 यौनकर्मी हैं और 2003 में उनमें से 70 प्रतिशत के शरीर में एचआईवी वायरस था। सूरत में किये गये एक अन्य शोध ने दिखाया कि वहाँ की यौनकर्मियों में 1992 में 17 प्रतिशत के शरीर में एचआईवी वायरस था जिनकी मात्रा 2001 में बढ़ कर 43 प्रतिशत हो गयी थी।

ट्रक चालक भी एड्स की बीमारी के लिए अधिक खतरे वाला गुट माने जाते हैं। भारत की सड़कों का जाल विश्व में उच्च स्थान पर है और अनुमान लगाया गया कि भारत में 20 से 50 लाख तक लोग हैं जिनमें लम्बे रास्ते पर ट्रक चलाने वाले, उनकी सहायता करने वाले और क्लीनर शामिल हैं। 1999 में हुई एक शोध ने दिखाया था कि ट्रक चलाने वालों में 86 प्रतिशत हर यात्रा में सड़कों के जाल से जुड़े विभिन्न यौनकर्मियों से यौन संबंध बनाते हैं। उनमें एड्स के बारे में जानकारी तो अच्छी पायी गयी थी पर उनमें से केवल 11 प्रतिशत ही कॉन्डोम का प्रयोग करते थे।

चिंताजनक बात यह है कि संक्रमण का परिद्श्य अब बदल रहा है। एड्स का शिकंजा अधिक प्रचलित प्रदेशों (जैसे आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मणिपुर और नागालैंड) और कुछ तबकों (यौनकर्मी, ट्रकचालक और नशा करने वाले) की बजाय आम जनता में बढ़ता जा रहा है। लांसेट के शोध के अनुसार दक्षिण भारत के राज्यों में एचआईवी के मामलों में एक तिहाई कमी आई है जबकि उत्तर भारत में वृद्धि हुई है।

एड्स और मानवाधिकार

एड्स विधेयक के संसद के मानसून सत्र में पास होने की संभावना थी हमें यह जानकारी मिली है कि मौजूद सत्र में भी यह विधेयक नहीं लाया जा सकेगा। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने विधेयक संसद को अभी तक नहीं भेजा है।

भारत सरकार एड्स के विषय पर एक नया कानून बना रही है जो कि दुनिया का इस तरह का पहला कानून होगा। इस विधेयक के संसद के मानसून सत्र में पास होने की संभावना थी परंतु निरंतर मित्र के हवाले से हमें यह जानकारी मिली है कि संसद के मौजूदा मानसून सत्र में भी यह विधेयक नहीं लाया जा सकेगा। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने विधेयक संसद को अभी तक नहीं भेजा है। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) के संबंधित अधिकारियों ने इस संबंध बताया कि लॉयर्स कलेक्टिव ने इस विधेयक का जो प्रारूप नाको के पास भेजा था, उस पर मंत्रालय और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आई.सी.एम.आर) में विचार-विमर्श हुआ। इसके उपरांत उस ड्राफ्ट को संशोधन संबंधी सुझावों के साथ वापस लायर्स कलेक्टिव के पास वापस भेजा गया है। इसके उपरांत इसे विधायी विभाग के पास भेजा जाएगा।

मतलब यह कि संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में ही इस विधेयक को लाए जाने की आशा की जा सकती, हालाँकि यह भी आवश्यक नहीं कि उस सत्र में यह पारित हो ही जाएगा। संभव है कि विधेयक पर विचार के लिए इसे संसदीय स्थायी समिति के पास भेज दिया जाए, जहाँ इस पर कई महीने तक विचार-विमर्श होगा। संकेत तो यही हैं कि यह विधेयक अगले वर्ष के अंत से पहले पारित नहीं हो सकेगा।

विधेयक का मुख्य उद्देश्य है एचआईवी संक्रमित लोगों के साथ सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में हो रहे भेदभाव का विरोध, निजी क्षेत्र के संस्थान भी इसे के दायरे में शामिल होंगे। इस विधेयक को लाने की कार्यवाही शुरु हुये 4 साल हो चुके हैं, वकीलों के स्वयंसेवी संगठन लॉयर्स कलेक्टिव एचआईवी एड्स घटक (LCHAU) ने इसका प्रारुप तैयार किया, गनीमत है कि अंततः इसको संसद में पेश करने की नौबत आ सकी। इस प्रस्तावित बिल के अनुसार भारत सरकार एड्स पर काबू पाने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की तर्ज पर एक राष्ट्रीय अभियोग बनायेगी जो राष्ट्रीय एड्स नीति को लागू करेगी।

संक्रमित लोगों की परेशानियों का वाकई कोई अंत नहीं। संक्रमित बच्चों को शालाओं से निकाले जाने से लेकर, नौकरी से बरखास्तगी, इलाज करने से मना करना जैसे मसलों से हमारा समाज अपरिचित नहीं। कार्यक्षेत्र में संक्रमित लोगों के साथ भेदभाव कोई कोरी फिल्मी कल्पना नहीं है (इसी अंक में पढ़ें – एड्स और फिल्में: अच्छी शुरुवात) वकीलों के दल की कोओर्डिनेटर शोभना कुमार मानती हैं कि इस बीमारी को कलंक की तरह देखा जाता है इसलिए बीमारी से ग्रस्त व्यक्तियों के मानव अधिकारों की भी अवहेलना होती है। भारतीय जन स्वास्थ्य अभियान के डा.रवि नारायण कहते हैं, “एड्स के बारे में जनता को सही जानकारी न होने से और स्वास्थ्य कर्मचारियों को इस विषय पर ठीक से प्रशिक्षण न मिलने के कारण इस बीमारी के बारे में बहुत सी गलतफहमियाँ हैं जिनसे लोग एड्स रोगियों से गलत व्यवहार करते हैं। इसकी छवि लोगों में डर तथा घृणा बढ़ाती है जिसके डर से लोग जाँच और इलाज करवाने से डरते हैं।”

पुणे स्थित एडवोकेट असीम सरोदे ने निरंतर को बताया कि किसी कानून का अभाव भी भेदभाव का कारण है। वैसे उच्च तथा उच्चतम न्यायालयों के पुराने निर्णयों के आधार पर किसी भी एड्स संक्रमित व्यक्ति को कार्य से नहीं निकाला जा सकता यदि वह पूर्ण क्षमता से कार्य कर सकने में समर्थ हो। असीम कई पीड़ित लोगों को मुफ्त कानूनी मदद देते रहे हैं। उनका अनुभव यही रहा कि नियोक्ता कभी भी एड्स को वजह बताकर किसी को नौकरी से नहीं निकालते, वजहें कुछ और बताई जाती हैं जैसे कि अक्षमता या सहयोगियों से मनमुटाव। संप्रति बीमा कंपनियाँ भी इस रोग से संबंधित कोई पॉलिसी नहीं दे रहीं हैं पर यह बिल आने के बाद शायद स्थिति सुधरे। असीम का मानना है कि बिल के पास होने में कई बाधायें हैं क्योंकि पास होने के बाद इससे सरकारी कार्य और खजाने दोंनों पर बोझ काफी बढ़ने वाला है।

प्रस्तावित विधेयक संक्रमित लोगों को बराबरी, स्वायत्तता, स्वास्थ्य, जानकारी, प्रिवेसी और सुरक्षित कार्यस्थल के अधिकार दिलायेगा। किसी भी व्यक्ति के साथ नौकरी, स्वास्थ्य, यात्रा और बीमा के मुद्दे पर उसके एचआईवी संक्रमित होने की वजह से भेदभाव नहीं किया जा सकेगा। साथ ही संक्रमित व्यक्ति की जानकारी गोपनीय रखने की गारंटी भी मिलेगी। बिल में “अपने जीवनसाथी को सूचित रखने” और “संक्रमण न फैलाने” के दायित्व जैसे प्रावधान भी जोड़े गये हैं। हालांकि कई यह मानते हैं कि शिक्षा की बजाय कानून से ऐसे मुद्दे सुलझाना नामुमकिन है। उन्हें अंदेशा है कि जिन संस्थानों पर संक्रमित लोगों को निकाल बाहर न करने का कानूनी जोर डाला जायेगा वे उचित मानसिकता के अभाव में उनके प्रति बैर पाले बैठे रहेंगे।

यौन संबंध और भारतीय मानसिकता

दुनिया खजुराहो और वात्स्यायन के कामसूत्र के कारण हमें यौनशास्त्र का विशेषज्ञ मानती है। शायद वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि हमारे समाज में यौन विषय पर बात करना कितना कठिन है!

कोणार्क, खजुराहो और वात्स्यायन के कामसूत्र की प्रसिद्धि के कारण दुनिया हमें यौनशास्त्र का विशेषज्ञ मानती है। शायद वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि हमारे समाज में यौन विषय पर बात करना कितना कठिन है! ज़ाहिर हैं कि यौन विषयों पर बेरोकटोक बातचीत के अभाव में लोगों तक एड्स की सही जानकारी पहुँचाना दुष्कर कार्य है। लेखक ने एक दफा अपने चिकित्सक सहयोगी से एक चुटकुला सुना था, “एक आदमी क्लिनिक में आया, बोला कि डॉक्टर साहब मेरी पत्नी फ़िर से गर्भवती हो गयी है। आप ने तो कहा था कि अगर कॉन्डोम का उपयोग करुँगा तो और बच्चे नहीं होंगे, फ़िर यह कैसे हो गया? डॉक्टर ने पूछा कि क्या उसने कॉन्डोम का ठीक से प्रयोग किया था। “हाँ डॉक्टर साहब”, व्यक्ति बोला, “जैसा आप ने दिखाया था मैंने ठीक वैसा ही किया। मैं अपनी पत्नी के साथ सोने से पहले एक केला ले कर उस पर कॉन्डोम चढ़ा देता था।” यह चुटकला हमारे मुल्क की उस मानसिकता को दर्शाता है जहाँ किसी बात को सीधे नहीं, घुमा फिरा कर ही कहने को ही सभ्यता समझा जाता है।

मानव शरीर के बारे में लज्जा और यौन विषयों को अश्लील समझना केवल अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोगों की बात हो, यह नहीं है। शालाओं व कॉलेजों में जब बात पुरुष और नारी के जननाँगों पर पहुँची तो शिक्षक खिसिया कर यही कहते हैं कि इसकी पढ़ाई छात्र स्वयं ही कर लें। शालाओं में यौन शिक्षा प्रारंभ हुई है, पर समाज का रवैया ज्यों का त्यों है। कुछ समय पहले ही अभिनेत्री खुशबू के विवाह पूर्व यौन संबंधों के बयान पर कितना फसाद हुआ था! लगता है कि यौन संबंधों की बात करते ही हमारी संस्कृति के लिये खतरा पैदा हो जाता है। भारतीय जीवन में यौन विषयों का महत्व समझने के लिए रेलगाड़ी से यात्रा करना ही काम आता है। रास्ते भर दीवारों पर रंगे विज्ञापन महज़ दो ही विषयों पर होते हैं, “खोयी मर्दानगी प्राप्त करें” और “शादी के रिश्ते”। गाड़ी के भीतर शौचालयों की दीवारों पर उकरी ग्राफीटी समाज में व्याप्त अधकचरे यौनज्ञान का ही तो प्रतिबिम्ब हैं।

Age-wise AIDS data for India 2005भारत में यौन आचरणः सन 2001 में भारत में पहला राष्ट्रीय आचरण सर्वेक्षण (नेशनल बिहेवियर सर्वे) हुआ जिसमें विभिन्न प्रदेशों में करीब 85,000 लोगों से उनके यौन आचरण संबंधी प्रश्न पूछे गये। भाग लेने वाले 50 प्रतिशत से अधिक लोग 25 से 39 वर्ष आयु वर्ग के थे, महिलाओं और पुरुषों की सँख्या भी लगभग बराबर थी। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि

  • पाँच राज्यों, बिहार, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल, में करीब 60 प्रतिशत लोगों ने एड्स का नाम सुना था। देश के बाकी हिस्सों में यह जानकारी 70 से 80 प्रतिशत लोगों को थी। आम तौर पर स्त्रियों और ग्रामीण लोगों में जानकारी कम थी।
  • उपरोक्त पाँच राज्यों में एड्स यौन सम्पर्क से हो सकती है यह जानकारी केवल 55 प्रतिशत को थी, ग्रामीण इलाकों में जानकारी और भी कम थी जबकि केरल में यह जानकारी करीब 98 प्रतिशत लोगों को थी।
  • कॉन्डोम से एड्स से बचा जा सकता है यह जानकारी बिहार और पश्चिम बँगाल में करीब 30 प्रतिशत लोगों को थी। बिहार और उड़ीसा में 30 प्रतिशत लोगों को कॉन्डोम क्या होता है यह मालूम ही नहीं था।
  • उत्तरप्रदेश, असम, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और कर्नाटक में 90 प्रतिशत लोग मानते थे कि एड्स मच्छर के काटने से फैल सकती है।
  • पहले यौन संबंध के समय पर औसत उम्र मध्यप्रदेश में सबसे कम थी, यानि 17 वर्ष और गोवा में सबसे अधिक थी, यानि 22 वर्ष।
  • आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में 10 प्रतिशत से अधिक लोगों ने माना कि उनका पिछले महीनों में अपने पति या पत्नी से अलग, कम से कम एक अन्य व्यक्ति से यौन सम्पर्क हुआ था। अन्य राज्यों में उनकी सँख्या कम थी। ऐसे यौन संबंधों में कॉन्डोम का इस्तेमाल करने वाले उड़ीसा में सबसे कम थे, यानि केवल 16 प्रतिशत, जबकि गोआ में सबसे अधिक थे, 81 प्रतिशत।

एड्स और सामाजिक जागरूकता

समाज में एड्स से बचने के लिए यौन संबंधों की बात करना आवश्यक है। 2001 में भारत में हुये राष्ट्रीय आचरण सर्वेक्षण (नेशनल बिहेवियर सर्वे) के परिणामों से स्पष्ट समझ आता है कि देश में बहुत से भागों में आम जनता को एड्स संबंधी ठीक जानकारी नहीं है। उपरोक्त सर्वेक्षण में यह भी मालूम हुआ था कि अगर टेलीविज़न, रेडियो और समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं से जानकारी दी जाए तो करीब 92 प्रतिशत जनता तक यह जानकारी पहुँच सकती है। पर यह जानकारी देने के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं?

भारत में कॉन्डोम को हमेशा से परिवार नियोजन के साधन के रूप में प्रचलित किया गया है ना कि सुरक्षित यौन संबंधों के लिए।

अगर भारानी के जालस्थल पर देखें तो वहाँ पर विगत वर्षों में एड्स पर बने बहुत से टेलीविज़न विज्ञापन देख सकते हैं। इनमें अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और तबु जैसे जाने माने फिल्मी कलाकारों के भी विज्ञापन हैं। अधिकतर एड्स से ग्रस्त लोगों के मानव अधिकारों की रक्षा और उनसे भेद भाव न करने के बारे में हैं पर “असुरक्षित यौन संबंध” कह कर उससे आगे की कोई बात इन विज्ञापनों में नहीं दिखती। जालस्थल पर डॉक्टर और एड्स ग्रसित लोगों से सवाल पूछने की सुविधा है। निरंतर ने जालस्थल पर दिये फॉर्म से जानकारी माँगी कि क्या किसी एड्स ग्रसित व्यक्ति से विवाह किया जा सकता है। एक हफ्ते के बाद किसी असंबद्ध ईमेल पते से इसी जालस्थल के ही अनेक पृष्ठ अटैचमेंट के रूप में भेज दिये गये, ईमेल कई लोगों को सामूहिक रूप से भेजा गया था पर पत्र में कुछ भी नहीं लिखा था। निरंतर ने इसी पते पर पुनः दरियाफ्त की पर कोई जवाब न आया। ऐसा रवैया मीडिया पर हावी है, स्पष्ट कहने का साहस किसी में नहीं (इसी अंक में पढ़ें: सीधी बात कहने का क्या किसी में दम नहीं?)

एड्स नियंत्रण कार्यक्रम तथा राष्ट्रीय शिक्षा परिषद ने “विद्यालय में एड्स शिक्षा” के नाम से शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए एक लघु पुस्तिका तैयार की थी। इसमें यौन विषयों पर बात करने की कठिनाई को स्वीकारा गया है। “जिम्मेदार यौन आचरण एड्स शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है जिसमें शिक्षकों को वह स्रोत बनना चाहिए जो छात्रों को यौन और यौनता (sexuality) जैसे नाजुक विषयों के बारे में जानकारी देनी चाहिये। अधिकतर शिक्षक अपनी घबराहट और लज्जा की वजह से इन विषयों पर बात करने के लिए बात नहीं कर पाते। प्रशिक्षण से घबराहट और लज्जा को जीता जा सकता है…”। पर यह पुस्तिका यह नहीं बताती कि इन विषयों पर बात करने की हिम्मत रखने वाले शिक्षकों को जब जनता “अश्लील और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध” कह कर मारने दौड़े और “मसाले” की तलाश में घूमने वाले पत्रकार उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में चटखारे ले कर खबरें भेजें तो वे क्या करें!

विदेशों में बसे भारतीय समुदायों में इस बारे में कोई दुविधा नहीं कि यौन संबंधों के बिना एड्स से बचने की बात नहीं की जा सकती। ऐसे कुछ जानकारी देने वाले पोस्टरों के उदाहरण देखना चाहें तो केनेडा के दक्षिण एशियन एलाअंस के जालपृष्ठ पर देख सकते हैं। कुछ समय पहले लेखक ने एक अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण कोर्स का संचालन किया जिसका विषय था समुदाय में यौन संबंधों जैसे नाजुक विषयों पर कैसे बात की जाये। इस पाठ्यक्रम में दुनिया के विभिन्न देशों के लोग आये थे जिसके दौरान ब्राजील से आये डॉ मनज़ानो ने अपने क्लिनिक में प्रयोग करने वाले एड्स पर कुछ पोस्टर दिखाये। एक पोस्टर में कॉन्डोम कैसे इस्तमाल करें, कैसे चढ़ायें, कैसे और कब उतारें, सब कुछ स्पष्ट दिखाया और समझाया गया था। एक अन्य पोस्टर में यौन संबंधों के दौरान एड्स के खतरे की बात थी और उसमें विषमलैंगिक और समलैंगिक यौन संबंधों की बात को स्पष्टता से दिखलाया और समझाया गया था। इंडोनेशिया, मिस्र, पाकिस्तान और भारत जैसे देशों के प्रतिनिधियों ने कहा कि इस तरह के पोस्टर उनके देशों मे लगायें से तो पुलिस पकड़ कर ले जायेगी।

भारत सरकार की एड्स नीति की आलोचना की गयी है कि यह केवल “अधिक खतरे वाले गुटों” जैसे यौनकर्मी और ट्रक चलाने वाले, की ओर जानकारी को प्रोत्साहन दे रही है, जबकि अब यह बीमारी शहरों से बाहर, आम जनता में फैल रही है। आम जनता से एड्स की बात करने के लिए यौन विषयों से जुड़ी हमारी सामाजिक वर्जनाओं से टकराने की हिम्मत किसमें होगी ?

भारत में कॉन्डोम को हमेशा से परिवार नियोजन के साधन के रूप में प्रचलित किया गया है ना कि सुरक्षित यौन संबंधों के लिए। यहाँ कन्डोम के प्रचार के विरुद्ध एक कड़ी राजनीतिक और धार्मिक लॉबी है क्योंकि यह धारणा है कि यह स्वच्छन्द सम्भोग को बढ़ावा देता है। पर जहाँ भी सही पहल की गयी नतीजे सही आये हैं। कलकत्ता के सोनागाची क्षेत्र में बीमारी के बारे में जानकारी देना और कॉन्डोम इस्तमाल करने के बारे में बताने का अच्छा असर हुआ है। 1992 में केवल 27 प्रतिशत यौनकर्मी कॉन्डोम का इस्तमाल करती थीं, जबकि 2001 में कॉन्डोम का इस्तमाल बढ़ कर 81 प्रतिशत हो गया।

भारतीय संस्कृति और समलैंगिक यौन संबंध

जब कनाडा में रहने वाली भारतीय मूल की फिल्म निर्माता दीपा महता ने अपनी फिल्म “फायर” में समलैंगिक स्त्रियों की बात उठाई थी तो इस फिल्म के विरुद्ध कुछ प्रदर्शन हुए थे और कुछ लोगों ने कहा था कि समलैंगिक संबंध भारतीय संस्कृति का हिस्सा ही नहीं हैं। पर यह बात केवल फिल्मों तक ही सीमित हो, दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है। यह सच है कि समलैंगिक यौन संबंधों का एड्स के भारत में फैलने में महत्वपूर्ण योग नहीं है फिर भी उनको नकारना मूखर्ता होगी। सन 2001 से लखनऊ की नाज़ फाउँडेशन ऐसे ही कुछ लोगों के अज्ञानात्मक रवैये से वहाँ की पुलिस से जूझ रही है। समलैंगिक यौनकर्मियों के बीच एड्स के विषय में जानकारी देने और सुरक्षित यौन संबंध की बात करने वाली नाज़ फाउँडेशन के कई काम करने वाले जेल जा चुके हैं।

यह समलैंगिक संबंधों के बारे में समाज के एक वर्ग के विचारों की बात उठाती है जिस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिये। इसके लिए पुलिसवालों की अज्ञानता के साथ भारत के विक्टोरियन समय के कानूनों की भी गलती है जो कि समलैंगिक संबंधों को “अप्राकृतिक” और दंडनीय मानते है। नाज फाऊँडेशन के जालस्थल पर एड्स संबंधी बहुत सी प्रशिक्षण सामग्री हिंदी में भी उपलब्ध है।

एड्स जैसे अफ्रीका में फैला है वैसे ही अनेक देशों में शिक्षित वयस्क लोगों की पूरी पीढ़ी ही खत्म हो गयी है, खेतों में काम करने वाले किसान खत्म हो गये हैं, बस बच्चे और बूढ़े रह गये। ईश्वर न करे यदि अगर वैसा हाल भारत में होने लगे तो शायद हमारे समाज में भी यौन विषयों की चर्चा के इर्दगिर्द खड़ी की संकोच की दीवारें तोड़नी पड़ेंगी। पर जब तक भारतीय समाज में इस खतरे की वास्तविक पहचान नहीं जागेगी, शायद इस विषय पर खुल कर बात करना केवल दिवास्वप्न ही रहेगा? डा. नारायण कहते हैं, “एड्स से लड़ने के लिए महिलाओं और नौजवानों को सबसे आगे बढ़ना चाहिए। स्वास्थ्य कर्मियों, रोगग्रस्त लोगों के संगठन, स्वास्थ्य और सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रयत्नशील लोग, आदि सब को मिल कर काम करना पड़ेगा ताकि सभी जरुरतमंद लोगों को बीमारी के इलाज के लिए एआरवी दवाएँ मिल सकें।”

शतुरमुर्ग बने रह कर क्या होगा?

संसार के अलग अलग देशों ने अपने अपने अंदाज़ में इस समस्या से निबटने के तरीके बनाये पर हर किसी के अनुभव से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। संसार भर में  युवाओं के यौन व्यवहार में परिवर्तन लाने से लाभ हुये हैं, जैसे कंबोडिया व थाईलैंड ने देह व्यापार में कमी लाकर, जिंबाब्वे ने पहले सेक्स संबंध बनाने की उम्र में देरी लाकर और युगांडा ने बहुविवाह के खिलाफ रूख बनाकर सफलता अर्जित की है। काँडोम के प्रयोग को बल देने का कदम तो हर मुल्क में लाभ दे चुका है। अनुभवों से सीख लेना अत्यावश्यक है, जैसे युगांडा में यह जाना गया कि जो बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूर्ण नहीं करते उनके बड़े होकर संक्रमित होने की आशंका तिगुनी हो जाती है, कितना ज़रूरी हो जाता है किसी भी सरकार के लिये अपना शिक्षा बजट बढ़ाना क्योंकि ये एड्स की खिलाफत करने में एक परोक्ष अस्त्र साबित होगा।

एड्स एक असाधारण घटना है, तो ज़ाहिर है कि हमारा इसके प्रति रवैया भी असाधारण होना चाहिये। इस से निबटने के लिये मजबूत रीढ़ वाले नेतृत्व की दरकार है जो इससे आपदा नियंत्रण की तौर पर नहीं वरन योजनाबद्ध तरीके से लोहा ले।

एड्स एक असाधारण घटना है, तो ज़ाहिर है कि हमारा इसके प्रति रवैया भी असाधारण होना चाहिये। एड्स को हमारे जीवन में आये पच्चीस साल हो गये। इस से निबटने के लिये मजबूत रीढ़ वाले नेतृत्व की दरकार है जो इससे आपदा नियंत्रण की तौर पर नहीं वरन योजनाबद्ध तरीके से लोहा ले। प्रगति हो रही है, पर बहुत कुछ करना शेष है। यूएनएड्स के आंकड़ों के अनुसार युवा वर्ग को एचआईवी से बचे रहने के लिये अपनी जीवनशैली में बदलाव और ज़रूरी जानकारी होने के लिये लिये किये जा रहे प्रयास अभी भी नाकाफी हैं। गुप्त रोगों को छुपाये रखना और उनका इलाज न कराने से एड्स का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। एआरवी दवाएँ भी महज़ 20 फीसदी लोगों तक ही पहुँच पा रही हैं। इन दवाओं की कीमत कम करने के लिये सरकारी कोशिशों की नितांत आवश्यकता है।

एड्स का एक बड़ा दुष्प्रभाव है कि समाज को भी संदेह और भय का रोग लग जाता है। यौन विषयों पर बात करना हमारे समाज में वर्जना का विषय रहा है, जासूस विजय जैसे प्रयासों से स्थिति की शक्ल बदल रही है। निःसंदेह शतुरमुर्ग की नाई इस संवेदनशील मसले पर रेत में सर गाड़े रख अनजान बने रहना कोई हल नहीं है। इस भयावह रोग से निबटने का एक महत्वपूर्ण पक्ष सामाजिक बदलाव लाना भी है, एड्स पर प्रस्तावित विधेयक को अगर भारतीय संसद कानून की शक्ल दे सके तो यह भारत ही नहीं विश्व के लिये भी एड्स के खिलाफ छिड़ी जंग में महती सामरिक कदम सिद्ध होगा।

अतिरिक्त सामग्री व सहयोग– देबाशीष चक्रवर्ती
हार्दिक आभारः मनीषा मिश्र, UNAIDS, सृजन शिल्पी तथा उषा राय, पत्रकार।
तथ्य भारतीय एचआईवी व एड्स स्टैटिस्टिक्स तथा UNAIDS के 2006 के आँकड़ों पर आधारित।

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6 प्रतिक्रियाएं

  1. …एक पोस्टर में कॉन्डोम कैसे इस्तमाल करें, कैसे चढ़ायें, कैसे और कब उतारें, सब कुछ स्पष्ट दिखाया और समझाया गया था। एक अन्य पोस्टर में यौन संबंधों के दौरान एड्स के खतरे की बात थी और उसमें विषमलैंगिक और समलैंगिक यौन संबंधों की बात को स्पष्टता से दिखलाया और समझाया गया था। इंडोनेशिया, मिस्र, पाकिस्तान और भारत जैसे देशों के प्रतिनिधियों ने कहा कि इस तरह के पोस्टर उनके देशों मे लगायें से तो पुलिस पकड़ कर ले जायेगी।…

    और शायद यही वजह है कि भारत आज विश्व का सबसे बड़ा एड्स ग्रसित देश बन गया है.

    ईश्वर मेरे देश की पुलिस को सोचने समझने की शक्ति शीघ्र प्रदान करें…

  2. लेख का मुद्दा अच्छा है। अगर हो सके तो इसे जारी रहने दे। एड्स के विरुद्ध काफी लोगो ने मोर्चा खोल रखा है। भारत मे कौन से प्रमुख संस्थान और संगठन है? उनसे कैसे संपर्क किया जा सकता है? उनकी मदद के लिए क्या कर सकते है?

  3. This is a very good article with requisite details and information. It also raises the right questions. As commented by Raju, do continue this article in later issues and add something about sex education in teenagers, as that has a lot to do with AIDS as well. The sex education issue can be covered under following topics.

    1. The right age for sex education

    2. The right amount of sex education

    3. The aspects of sex education, physical, emotional and disease aspect.

    4. Who should give this education (I believe parents, but they should get educated before they attempt for it)?

    5. How should this education be imparted (books, videos, graphics)?

    I think all these aspect are equally important.
    Its good that you are breaking the “Shuturmurgi” attitude. Please elaborate on the points I mentioned in later issues.

    I liked Nirantar as it has not been trying to run behind the headlines and rather emphasizing on the basic issues.

    Anurag
    PS: My speed in hindi typing is hindering me to comment in hindi.

  4. बधाई हो निरंतर.मुख्यधारा की पत्रकारिता में जो खालीपन आया है उसे ऐसे लेख भरते हैं.आभास हुआ कि पत्रकारिता के विकल्प कि संभावना कहां है.एक विदेशी ,अंग्रेज़ी जाल -स्थल एक लेख का ३,५०० रुपये बतौर मेहनताना दे रहा था.डॉ. सुनील दीपक जैसे लेखक और निरंतर जैसी पत्रिका के साथ ऐसा मुम्क़िन हो ,कामना है.

  5. ये लेख यहां डाला गया है। आशा है कि आपको कोई आपत्ती नहीं होगी। धन्यवाद

  6. ‘एड्स मुझे नहीं हो सकता’ और इस बारे में बात करने से मेरे चरित्र पर शक किया जा सकता है जैसी भावना सिर्फ उस तबके में ही नहीं है जिसे पिछड़ा या ग्रामीण माना जाता है. IIT जैसे संस्थानों से पढ़लिखकर भी यही भावना दिमाग में बनी रहती है. इससे कैसे निजात मिले…?