एक दहकते शहर की दास्तान
ऐसा शहर जहाँ भूमीगत खदानों की आग ने बाशिंदो से उनकी ही ज़मीन हड़प ली
लेखकः अतुल अरोरा | November 4th, 2006ह किसी भयानक दुःस्वप्न जैसा ही है। धरती के सीने पर उकेरी अनगिनत दरारों से उफनती गर्म ज़हरीली गैसें, ज़मीन इतनी गर्म कि आपके जूते के तले गल जायें, हवा साँस लेने के लिये नाकाफी। नज़ारा कुछ यों कि जैसे दोज़ख उतर आया हो धरा पर।
यह किसी फंतासी फिल्म की पटकथा नहीं, हक़ीकत है। यह है दुनिया भर में सेंकड़ों कोयला खदानों में लगी बेकाबू भूमीगत आग, जो बरसों पृथ्वी के गर्भ में सुलगती रहती है और इंसान और वनस्पति का पास फटकना नामुमकिन कर देती है। ऐसी ही एक जगह है अमरीका स्थित सेन्ट्रालिया।
सेन्ट्रालिया शहर 1941 में बसा था। कोयला खनन इसकी जीवन रेखा थी। लिथुआनिया, पोलैन्ड, इंग्लैड और जर्मनी से लोग यहाँ आकर बसे थे। करीब दो हजार बाशिंदो का यह शहर तब दरवाजे बिना ताले लगाये छोड़ने का आदी था। एक आम भारतीय कस्बे की तरह यहाँ भी लोगों को एक दूसरे के दुःख सुख में हाथ बँटाते देखा जा सकता था। हर सुबह खनिक खदान से बजने वाले हूटर की आवाज पर चल देते थे काम पर। खान में हर रोज़ वे, कार्बाइड लैंप वाले टोप पहने, ड्रिल से सूराख बनाते, उनमें डायनामाईट भरते और विस्फोट करके कोयला बाहर निकालते। यह कोयला फिर बाहर लैनकेस्टर, फिलाडेल्फिया और रेडिंग भेजा जाता ।
शहर की जिंदगी यूँ ही अलमस्त चल रही थी कि 1960 में आर्थिक मँदी का दौर आ गया। सारी कँपनियाँ एक एक कर बँद होती चली गईं। फिर, जैसी की कल्पना की जा सकती है, किसी मृतप्राय औद्योगिक शहर का जो हाल होता है, अशोचनीय घटनाक्रम होने लगे। अवैध कोयले के उत्खनन का काम शुरू हो गया। लोग अपने घर के आसपास या फिर किसी जगह जंगल में सुरंग बनाकर रस्सी के सहारे कोयला के भँडार तक पहुँच कर कोयला खोदते और कालाबाजार में बेच देते। यह न सिर्फ खतरनाक था बल्कि जिंदगी की गाड़ी चलाने के लिये नाकाफी भी था।
1962 में एक अनहोनी घटना घटी। किसी अवैध सुँरग में आग लग गयी। भूमिगत आग जलती रही, और फैलती रही। भूगर्भ विभाग ने कितने ही जगहों पर जमीन में सूराख किये, ताकि पता लगा सके कि आग कहाँ कहाँ फैली है और तापमान कितना है? लोगों द्वारा घर के तहखाने में असामान्य गर्मी की शिकायत पर कुछ लोगों को वहाँ से हटाया भी गया। अमूमन आग को बुझाने के सारे प्रयास व्यर्थ ही गये, चाहे वह सुँरग में पानी भरना हो या नाइट्रोजन का छिड़काव। 1000 डिग्री तक पहुँचा तापमान पानी को चुटकियों में भाप बनाकर उड़ा देता।
14 फरवरी 1981 को सरकार की नींद तब टूटी जब एक घर के पिछवाड़े मैदान में मिट्टी धँसने से एक चार फुट गहरा और 150 फुट गहरा गड्ढा बन गया, उसमें गिरकर एक बच्चे की जान जाते जाते बची। बच्चा एक पेड़ की जड़ पकड़ कर किसी तरह लटका रहा। उसके भाईयों ने उसे खींच कर बाहर निकाला। यह घटना तब घटी जब स्थानीय जनप्रतिनिधि आग के नुकसान का जायजा लेने आये थे। वे इस लोमहर्षक घटना के चश्मदीद गवाह बन गये। इस घटना ने मीडिया का ध्यान खींचा और अंततः सरकारी मशीनरी हरकत में आयी।
इसके बाद इस आग को रोकने के इरादे से सरकार ने एक महत्वाकाँक्षी योजना बनायी। इसके अंतर्गत सारे निवासियों के घर सरकार खरीद लेती और कस्बे के चारों ओर एक 500 फुट गहरी खाई खोद दी जाती। पर 660 मिलयन डालर का खर्च और आग रूकने की कोई गाँरटी न होने की बाबत सरकार ने अपने बढ़े कदम खींच लिये। अब सरकार सेंट्रालिया की स्थिति निरंतर खतरनाक होते जाने के कारण सिर्फ वहाँ के निवासियों को एक एक कर वहाँ से हटाने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर रही।
कैसे लग जाती है खदानों में आग?
खदानों में आग लगने के कई कारण हो सकते हैं। कई बार 100 डिग्री तापमान के उपर जाने पर कोयला स्वयं ही प्रज्वलित हो उठता है, तो कई दफ़ा खदानों के प्रवेश के निकट बिजली गिरने से। आस्ट्रेलिया स्थित बर्निंग माउंटेन विश्व की सबसे पुरानी आग है जो 6000 सालों से लगातर जल रही थी। बूटलेग खनन को रोकने के लिये विस्फोट से खान उड़ाने के कारण भी कई बार आग लगी हैं। सेंट्रालिया जैसे क्षेत्रों में खदानों के पास कचरा जलाने से आग लगी।
ज़ाहिर है कि ऐसी आग के आसपास रहना खतरनाक होता है। तापमान अधिक रहता है और हवा में ज़हरीली गैस रहती है। इनसे उपजती ग्रीनहाउस गैसों के कारण पर्यावरण के लिये भी भारी खतरा होता है। अमरीका, चीन, इंडोनेशिया, रूस, भारत, यूरोप और अफ्रीका ऐसी आग से जूझते रहे हैं। वैज्ञानिक आजकल रीमोट सेंसिंग सेटेलाईट से ऐसी ज्वाला का पता लगाने की कोशिश करते हैं।
1991 तक महज़ चालीस पचास लोगों के अतिरिक्त सबके घर खरीद लिये गये और यहाँ का पोस्ट आफिस भी बँद कर दिया गया। पर हैरत की बात है कि इस भूमिगत आग के मुहाने पर बैठे मुठ्ठी भर लोग आज भी यह शहर छोड़ने को तैयार नहीं हैं। इनमें यहाँ का मेयर भी शामिल है। यह लोग कोई झक्की नहीं हैं। इन्होंने अपने पूरे समाज को तिल तिल खत्म होते देखा है। इन्होंने देखा है कि किस तरह हर घड़ी साथ रहने वाले यार दोस्त, सेन्ट्रालिया को बचाने के नाम पर बीसीयों कमेटी बनाते थे और फिर आपस में ही लड़ झगड़ सरकार के दबाव के आगे झुक जाते। इनका मानना है कि वर्तमान खान जो तकरीबन पचास साल से जल रही है, शायद सौ साल और जले। सरकार महज स्वास्थ्य विभाग के नोटिस दिखा दिखा कर निवासियों को वहाँ से हटाने करने में जुटी है। इन मु्ठ्ठीभर जुझारूओं को इस सरकारी अकर्मण्यता के नेपथ्य में करीब 420 लाख टन कोयला दिखता है जो वर्तमान खदानों से भी अधिक गहराई में दफ्न है। अगर सारे निवासी जगह छोड़ गये तो विस्थापन का पूरा पैसा बच जायेगा। लोगों का शक इस वजह से भी है कि अगर वाकई सरकार को इतना खतरा दिखता है इस शहर के नीचे, तो वह वहाँ से गुजरने वाली सड़क को क्यों नहीं बँद कर देती।
इस शहर की त्रासदी एक तकनीकी खामी के चलते आयी है, जैसा चेर्नोबिल या भोपाल में हुआ। पर सुनामी, चेर्नोबिल या भोपाल में आपदा सब पर एक साथ आयी, जिसने सारे निवासियो को एकजुट होने का मौका दिया उससे लड़ने का, पुनर्स्थापना का जज्बा दिखाने का। ऐसी आपादओं पर मीडिया की चौबीसो घँटे नज़र रहने की वजह से राहत और सहानुभूति की वर्षा भी होती है। पर सेंट्रालिया मे आपदा जमीन के नीचे है और धीरे धीरे फैल रही है।
कुछ ऐसा ही झरिया बिहार में हो रहा है। बस पैमाना अलग है। यहाँ सवाल अस्सी हजार परिवारों का है, 7500 करोड़ रूपये भी स्वीकृत हो गये हैं। पर मीडिया की निगाह से अछूते इस भारतीय सेंट्रालिया के निवासी भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार की रस्साकशी देखने को मजबूर हैं।
मामला चाहे भारत जैसे विकासशील देश का हो या अमरीका जैसे विकसित देश का, सरकार अगर अकर्मण्य हो तो योजनायें फाईलों में ही दफ्न रह जाती हैं। ऐसी आग को पूर्णतः बुझाना नामुमकिन है क्योंकि जैसे जैसे ज़मीन पर दरारें उभरती हैं आक्सीज़न ज़मीन तक पहुँचने में कामयाब होने लगती है। पानी जैसे माध्यम भी नाकाफी सिद्ध हुये हैं। ऐसे में इलाके में रह रहे परिवारों का न्यायपूर्ण पुर्नवास ही एकमात्र समझदारी का हल है, जो सेंट्रालिया में किया भी गया, पर झरिया जैसे क्षेत्रों में अपाहिज सरकार के होते यह कदम लागू करना भी भूमीगत आग को बुझाने जितना ही कठिन है।
मीडिया ने तोड़ी सरकारी निद्रा
आमतौर पर ऐसी त्रासदी विकासशील देशों में होती हैं, अमेरिका में ऐसी घटना के बारे में सुनना बड़ा अजीब लगता है। आपका क्या सोचते हैं?
आप यह अवश्य गौर करें कि यह त्रासदी किस साल शुरु हुईः 1962 में। उस वक्त अमेरिका को आभास भी न था कि कोयले की परित्यक्त खदानों से गंभीर पर्यावरणीय समस्या उपज सकती है। बात अगर बीस पच्चीस साल पहले की होती तो सेनट्रालिया के नज़दीकी कोई कोयला कँपनी खुद ही ऐसी आग पर नियंत्रण पा लेती और कोई समस्या पैदा न होती। पर 1962 में पेनसिलवेनिया का एंथ्रेसाईट कोयला उद्योग मृतप्राय था। अतः न तो राज्य और ना ही केंद्र सरकार ने आग से लोहा लेने या आपदा प्रबँधन के लिये खास पैसा दिया।
एक और तथ्य यह है कि काफी समय तक, भले ही विकासशील देशों जैसा हाल न रहा हो, पेनसिल्वेनिया के कोयला क्षेत्र भी गरीब और शोषित रहे। न्यूयार्क व अन्य जगहों से आयी कोयला कंपनियों के लिये पेनसिल्वेनिया हमेशा से साधनों का उपनिवेश रहा। वे पैसा बनाने यहाँ आईं और फिर चलती बनीं।
क्या सरकारी उदासीनता ऐसी घटनाओं का प्रमुख कारण है?
मेरे ख्याल से सरकारी उदासीनता से अधिक सुस्त नौकरशाही जिम्मेवार है, “हमें चिंता तो है, पर हम भला क्या कर सकते हैं” वाला रवैया। अगर सेन्ट्रालिया के निर्वाचित सदस्य कार्यकुशल होते तो बात और होती, वे अफसरशाहों से काम करवा पाते। पर दिक्कत यही थी कि सेंट्रालिया के निर्वाचित प्रतिनिधि कोयला खनन और परित्यक्त खानों से होने वाली दिक्कतों और खतरों की समझ ही नहीं रखते थे। 1962 में सेन्ट्रालिया कृषि प्रधान इलाके का अकेला कोयला क्षेत्र था।
आग दुश्मन, सरकार भी
जनता के हित के निर्णयों में राजनैतिक अनिच्छा का क्या दुष्प्रभाव हो सकता है यह झरिया के कोयला खनिकों के 80 हज़ार परिवारों से पूछिये जिनके पुर्नवास की योजना को 7500 करोड़ रुपये के बजट आवंटन के बावजूद कैबिनेट की हामी की बाट जोहनी पड़ रही है। पूर्वी भारत में झरिया स्थित कोयला खदानों में धरती के गर्भ में सुलगती आग बरसों पुरानी समस्या है और यह शायद विश्व का सबसे बुरी तरह प्रभावित इलाका है। पर मीडिया कि अरुचि से मामला कभी प्रकाश में नही आता।
दो साल पहले सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीसीसीएल द्वारा शुरु झरिया एक्शन प्लान के 61 करोड़ के पायलट प्रोजेक्ट के तहत 900 सबसे ज़्यादा प्रभावित परिवारों का विस्थापन होना था। पर यह हो न सका। वजहात कुछ कुछ सेंट्रालिया जैसे ही थे, भारी खतरों के बावजूद लोग अपना आशियाना छोड़ने को तैयार नहीं थे। हैरत की बात यह कि विस्थापन के मामले में पैसा कोई मसला नहीं है, क्योंकि सभी कोला कंपनियाँ फंड में योगदान देने को राज़ी हैं, पर सारे कार्य में सरकारी भागीदारी है ही नहीं और यही फसाद की जड़ है। सन् 2012 तक 1850 हेक्टेयर ज़मीन पर विस्थापितों को बसाना है पर योजना में सरकारी अरुचि के होते कोई नहीं जानता यह कार्य कब तक होगा। इस बीच यह भूमीगत दावानल 370 लाख टन कोयला निगल चुका है और हर साल 20 लाख टन कोयला भस्म करता जा रहा है।
आज सेन्ट्रालिया में कितने लोग बचे हैं? क्या विस्थापितों को कोई मुआवजा मिला?
1979 के उत्तरार्ध में, जब आग अपने निर्णायक और सबसे भयानक रूप में थी, करीब हजार निवासी थे, अब इस शहर में अब दस पँद्रह लोग ही रह गये हैं। यह लोग शहर की उस जगह रहते हैं जहाँ आग को अभी कई दशक लगेंगे पहुँचने में। जो आग से समीप हैं उनके घरों में तलघर नहीं है, जिससे वे जानलेवा गैसों से बचे रहते हैं। ज्यादातर बचे लोग ऐसे वृद्ध हैं जो इस उम्र में या तो विस्थापन का झँझट नहीं उठाना चाहते या फिर जिन्होंने विस्थापन का पुरजोर विरोध किया था।
1983 के बाद जो लोग विस्थापित हुये उन्हें सरकार से अच्छा मुआवजा मिला, शायद ये आपदा विस्थापन के इतिहास के सबसे अच्छे सौदे हैं। अपने सेन्ट्रालिया के घर के समान कोई घर या नया घर बनाने के लिये पर्याप्त पैसे मिले। हलाँकि 1983 के पहले जिनको मुआवजा मिला उन्हें वर्तमान घर की कीमत में खतरनाक जगह पर होने के कारण कमी कर दी गई। यह असंतोष का कारण भी रहा।
भूमिगत आग एक आम समस्या है। क्या आप बता सकते हैं कि इसे बुझाने के क्या उपाय किये गये? उनमें से किसे सफलता मिली?
सेन्ट्रालिया अब भी जल रहा है। 1962 की गर्मियों में राज्य सरकार ने आग बँद करने के लिये शहर में खुदाई शुरू की पर काम पुरा होने से पहले बजट खत्म हो गया। उसके बाद से खान के बीच के हिस्सो में पत्थरों का चूरा व पानी डालकर या फिर फ्लाई एश, जो कि विद्युत उत्पादन संयंत्रों में जले कोयले से बनी महीन राख होती है, भरकर इसे रोकने के कई प्रयास हये। इस तरह से खड़ी रूकावटें कुछ समय तक आग को आगे बढ़ने से रोकती तो थीं पर रूकावटों के स्थिर होने पर आग नये हिस्सों मे पहुँच जाती है। 1983 में अमेरिकी खदान सर्वेक्षण विभाग ने एक अध्ययन से यह अनुमान लगाया कि ज़मीन से आग को पूर्णतः खोद निकालने के लिये तकरीबन 650 मिलियन डालर का खर्च होगा। पर इससे पूरा शहर तबाह करना पड़ता। अतः डालर देकर निवासियों को विस्थापित करना बेहतर समझा गया।
सेन्ट्रालिया में प्रयुक्त तरीकों को पेनसिल्वेनिया के अन्य खान आग में भी इस्तेमाल किया गया है। आश्रचर्यजनक बात यह है कि आग बुझाने के लिये पानी डालना एक व्यर्थ प्रयास है क्योंकि पानी को बरसों भरा जाना होता है, अन्यथा पत्थरों में मौजूद अवशिष्ट उष्मा आसानी से आग को फिर भड़का सकती है।
क्या स्थानीय सरकार और निवासियों को आग के उत्सर्जन से निकलने वाली ग्रीनहाऊस गैसों, जहरीले धुयें और पर्यावरण को नुकसान की फिक्र है?
ऐसा कोई मुद्दा सेन्ट्रालिया में नहीं है क्योंकि आग बहुत कम समय के लिये जमीन के ऊपर रही है। मेरे ख्याल से भारत की स्थिति से यह काफी भिन्न है।
ऐसा माना जाता है कि कैटरीना या त्सुनामी जैसी आपदाओं के राहत कार्य ज्यादा व्यवस्थित होते हैं और सेन्ट्रालिया जैसी अदृश्य आपदाऐं उपेक्षित रहती हैं। आपका क्या विचार है?
त्सुनामी, कैटरीना जैसी आपदाओं में सरकार व व्यक्तियों पर तत्परता से कार्य करने का दबाव होता है। इन आपदाओं के हृदय विदारक दृश्य जो लगातार टीवी पर दिखाये जाते हैं उन्हें भला कोई कैसे नकार सकता है? मज़े की बात है कि सेन्ट्रालिया को 1981 से वाकई सहायता मिलनी शुरु हुई जब टीवी पर खान की आग के दृश्य और वहाँ के रहवासियों के इसके खतरे की जानकारी की बात ज्यादा होने लगी। इसी साल बारह साल के लड़के के इस आग से बने गढ्ढे में गिरने से यह चर्चा शुरु हुई। पहले अकेला मैं ही इसे अखबारों के लिये कवर करता रहा। जब न्यूज चैनलों के हेलीकाप्टरों आने लगे तो सरकार ने ज़्यादा ध्यान देना शुरु किया।
चित्रः अतुल अरोरा व डेविड डेकॉक, अतिरिक्त सामग्रीः देबाशीष चक्रवर्ती
आभारः शशि सिंह – झरिया के विचार के लिये, विकिपिडिया, साईमन हैडलिंगटन
अतुल भाई
बड़ी रोमांचकारी प्रस्तुति है.एक ही बार में पूरा पढ़ गये. बहुत मेहनत की है आप लोगों ने. इसी तरह की और प्रस्तुतियों का भविष्य में इंतजार रहेगा.
अत्यंत बेहतरीन प्रस्तुति है यह। अतुल जी को बधाई।
अच्छी जानकारी उपलब्ध कराई है आपने अतुल जी. साधुवाद आपको और आपके सहयोगियों को.
ऐसी जान्कारीया, हमारे लीये सोच वीचार के नये आयाम खोल्ती है,उम्मीद है नीरन्तर पर हमे अप्नी धरा के सम्बन्ध मे और भी ऐसे लेख प्र्ने को मीलेन्गे.
अतुल जी,
आपने बहुत ही उम्दा जानकारी एकत्र की है.
प्रस्तुतिकरण लाजवाब है, बधाई स्वीकारें।