मीडिया ही घोंट रहा है ब्लॉग का गलाभारत के एक बड़े समाचार-पत्र समूह टाइम्स ऑफ इंडिया की कानूनी धमकियों से मीडियाह ब्लॉग बंद हुआ। इससे भारतीय ब्लॉग जगत में विक्षोभ की लहर दौड़ी और एक इंटरनेट याचिका भी दायर हो गई। माहेश्वरी ने जुलाई 2003 में अपना ब्लॉग शुरू किया था। यह भारतीय मीडिया उद्योग पर पूर्वाग्रहरहित नज़र डालता जिनमें चुटीले भाष्य, गॉसिप और अफवाहें भी होतीं।

क्या मीडिया की आलोचना इस उपमहाद्वीप पर साकार रूप ले पायेगी? प्रश्न कर रहे हैं मार्क ग्लेसर

Times of India vs Mediah भारत में प्रकाशन उद्योग की समृद्धि मीडिया में आलोचना की प्रखरता का परिचायक नहीं है। भारतीय समाचार पत्रों के रजिस्ट्रार के मुताबिक मार्च 2003 तक उपमहाद्वीप पर 55,780 अखबार थे जिनमें पिछले साल 3820 नये प्रकाशन पंजीकृत हुए और प्रसार संख्या में 23 प्रतिशत वृद्धि हुई। और विकीपीडिया के अनुसार, बेनेट कोलमेन के स्वामित्व वाला टाइम्स ऑफ इंडिया 20 लाख की प्रसार संख्या एवं 74 लाख पाठक वर्ग के साथ अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्रों में अग्रणी है।

लेकिन इस सफलता के साथ ही खबरों का गला घोंटा जा रहा है क्योंकि बड़े मेगा-मीडिया कर्पोरेशनों ने न केवल समाचार पत्रों पर नियंत्रण पा लिया है बल्कि वे एक दूसरे के समूहों के अंशधारक भी हैं। इसलिए जब जाने माने मीडिया आलोचकों में से एक, प्रद्युम्न माहेश्वरी, ने अपने ब्लॉग मीडियाह पर टाइम्स ऑफ इंडिया की आलोचना की तो टाइम्स ने इसे मानहानी लेख करार दे कर पर सात पृष्ठ की कानूनी चेतावनी के जरिए उन्हें कुचल देना चाहा। धमकी ने असर दिखाया और माहेश्वरी ने अपना जालस्थल बंद कर दिया, क्योकि वे पुणे के महाराष्ट्र हेराल्ड दैनिक को चलाते हैं और उनके पास कानूनी लड़ाई लड़ने लायक संसाधन नहीं हैं।

Pradyumn Maheshwariउनतालीस वर्षीय माहेश्वरी ने जुलाई 2003 में अपना ब्लॉग शुरू किया था। यह भारतीय मीडिया उद्योग पर पूर्वाग्रहरहित नज़र डालता जिनमें चुटीले भाष्य, गॉसिप और अफवाहें भी होतीं। उनका इरादा पुणे में मध्यम वर्गीय पत्रकारों के लिए पायन्टर सरीखी संस्था बनाना था। 8000 की संख्या के पाठक वर्ग के साथ, ब्लॉग के मीडिया जगत में प्रसिद्ध हो जाने से उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ जागृत हो गईं। उन्होंने हेराल्ड में 2003 में काम शुरू किया और उस पर संपूर्ण ऊर्जा लगाने हेतु अपना ब्लॉग बंद कर दिया। माहेश्वरी कहते हैं "जालस्थल मेरे लिए आर्थिक रूप से लाभदेय नहीं था, उसे व्यवसायिक बनाने के विचार आने के बाद भी ऐसा कर नहीं पाया, शायद यह समय से आगे का कदम होता या शायद मैं अति आदर्शवादी था। मुझे लगा कि मीडिया उद्योगों से पैसा और विज्ञापन मुझे प्रभावित करेंगे।"

साल भर बाद माहेश्वरी ने जनवरी 2004 में ब्लॉग पुनः शुरू किया। टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा रायटर से टीवी से संबद्ध सौदे के बारे में एक आलेख लिखने पर उन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया से पहली कानूनी धमकी मिली। हालाँकि एक दूसरे समाचार पत्र ने भी इस मुद्दे को उछाला पर माहेश्वरी लड़ने को तैयार नहीं थे। उन्होंने चिट्ठा वापस ले कर माफी माँग ली। पर उस माफ़ीनामे से भी टाइम्स उखड़ गया और उन्होंने माहेश्वरी को ब्लॉग बंद करने को कहा ताकि कोई पत्र के विरुद्ध कोई ज़हर न फैला सके।

फिर मार्च 7 को उन्हें एक पहले से भी लम्बा कानूनी नोटिस मिला जिसमें उन्हें टाइम्स से संबद्ध 19 आलेख हटाने या फिर कानूनी परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा गया था। माहेश्वरी के अनुसार टाइम्स को मीडियानेट आलोचना बुरी लगी थी। संपादकीय पृष्ठों के व्यापारीकरण के तहत मीडियानेट में व्यवसाय टाइम्स के संपादकीय भाग में चित्र व खबरें खरीद सकते हैं।

"टाइम्स ऑफ इंडिया से संपर्क के मेरे सारे प्रयासों की अवज्ञा की गई। कार्यकारी निदेशक श्री रवि धारीवाल से बात करने पर उन्होनें इस मसले पर अनभिज्ञता जाहिर की। हालांकि उन्होंने मीडियाह ब्लॉग पढ़ा था। "

कानूनी नोटिस दिल्ली के अधिवक्ता के.के.मदान की तरफ से आया था जिन्होनें सिर्फ कानूनी कार्यवाही की पुष्टि की और हमारी अँतराष्ट्रीय फोनकाल को काट दिया। कानूनी नोटिस माहेश्वरी को स्पष्ट धमकी देता है, "आप हमारे मुव्वक्किल, उनके कर्मचारियों और उनके ग्राहको के विरुद्ध आपराधिक षड़यंत्र में निरंतर संलग्न हैं जिससे हमारे मुव्वक्किल और उनके कर्मचारियों को गंभीर हानि एवं प्रतिष्ठा हनन हुआ है। स्पष्ट है कि आपके आलेख मेरे मुव्वक्किल की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल हैं और यह किसी के द्वारा छद्म षड़यंत्र के तहत जानबूझकर किया गया है। मेरे मुव्वक्किल को कोई भी आपराधिक या दीवानी रूप से कानूनी कार्यवाही का अधिकार है।"

बहुतों का सोचना है कि ब्लॉगजगत ने ए.जे.लिबलिंग की कहावत झूठ साबित की है कि "प्रेस की स्वतंत्रता उसके मालिक के पास गिरवी होती है।"

भारतीय ब्लॉगजगत ने कमर कसी

जहाँ माहेश्वरी टाइम्स से अदालत में दोचार होने से कतरा रहे थे वहीं भारतीय ब्लॉगजगत ने ऐसा कोई संकोच नहीं किया। एक गुमनाम ब्लॉगर ने झटपट मीडिआहा ब्लॉग की स्थापना की जिसमें टाइम्स ऑफ इंडिया से संबद्ध प्रद्युम्न के 19 आलेख व टाइम्स का कानूनी नोटिस उपलब्ध है। के.के.सुरजीत नामक ब्लॉगर, जो कि एक छात्र हैं, ने एक ब्लॉग शुरु किया तथा एक इंटरनेट याचिका मीडियाह के पक्ष में दायर कर दी जिस पर दो सौ से ज्यादा हस्ताक्षर हो गये हैं। एक अन्य चिट्ठाकार ने अपने ब्लॉग पर एक विरोध जताता चिट्ठा भी लिखा। मज़े की बात है कि यह ब्लॉग टाइम्स की ही ब्लॉग होस्टिंग सेवा ओथ्री पर चलता है।

मुम्बई के रोहित गुप्ता, जो एक स्वतंत्र लेखक व ईंजीनियर हैं, कहते हैं "टाइम्स ऑफ इंडिया की इस मामले में सफलता इस उम्मीद पर कायम थी कि माहेश्वरी मीडिया मुगलों पर पलटवार न कर पायेंगे। यहीं उनकी बदलते समय व ब्लॉगजगत के प्रति उदासीनता उजागर होती है। माहेश्वरी को खुद के लिए लड़ने की ज़रूरत नहीं — यह भारतीय मूल के ब्लॉगरों की स्वातंत्र्य की बात है, सो उनकी लड़ाई हम लड़ेंगे।" गुप्ता को त्सुनामी से जूझने के लिए त्सुनामी ब्लॉग बनाने का अनुभव है। उन्हें उम्मीद है भारतीय ब्लॉगजगत मीडिया वर्ग को झिंझोड़ कर रख देगा।

भारतीय मीडियाजगत को यह अहसास देर से हुआ है कि ब्लॉगजगत में उनके कामकाज को प्रभावित करने का माद्दा है।

गुप्ता ने ईमेल में लिखा "चाहे यह दूर की कौड़ी हो, पर अगर मेरी दूरदृष्टि सही है तो यह इतिहास में "भारतीय ब्लॉगजगत के विद्रोह" के रूप में दर्ज होगा। टाइम्स ऑफ इंडिया ने सिर्फ यह दिखाया है कि एक सम्मानीय अखबार के स्तर से लड़कपन की धौंसबाजी तक का सफर उन्होंने कैसे किया है। अगर ब्लॉगर इकट्ठे होकर त्सुनामी जैसी अब तक की सबसे भीषण प्राकृतिक आपदा के प्रभावितों के लिए मानवीय मदद प्रदान कर सकते हैं तो वे टाइम्स ऑफ इंडिया जैसी इन्सानी नैतिक इंडियातों से आसानी से निपट सकते हैं।" पीटर ग्रिफिन, जो मुंबई में स्वतंत्र लेखक है, एक प्रभावशाली समूह ब्लॉग सीएसएफ के अंशदाता हैं। इस ब्लॉग ने मीडियाह के बंद होने के मुद्दे पर टाइम्स की नाक में दम कर रखा है। ग्रिफिन कहते हैं भारतीय मीडियाजगत को यह अहसास देर से हुआ है कि ब्लॉगजगत में उनके कामकाज को प्रभावित करने का माद्दा है।

ब्लॉग को बंद करना प्रद्युम्न का अपना निर्णय

पुनश्चः इस लेख के प्रकाशन के बाद हमें एक अनाम पाठक से यह पत्र मिला जो हम जस का तस छाप रहे हैं। निम्नलिखित मूल अंग्रेज़ी पत्र से अनुदित है।

 

संपादक जी,

निरंतर के अप्रेल अंक की आमुख कथा पढ़ी। टाइम्स आफ इंडिया के एक मुलाज़िम और प्रद्युम्न के परिचित के तौर पर मैं इस विवाद का साक्षी रहा हूँ और यह कह सकता हूँ कि मामला दूध का दूध और पानी का पानी नहीं है जैसा कि प्रतीत होता है। डेविड और गोलियाथ का संघर्ष बड़ा रूमानी है, पर सचाई यह है कि मीडियाह ब्लॉग इसके पहले के दौर में साल भर टिका और किसी की भी निंदा करने से पीछे न रहा। पर अपने नये अवतार में इसने टाइम्स की बुराई किसी और की तुलना में ज्यादा की, दरअसल ज्यादातर दिनों टाइम्स की ही की।

उनका (प्रद्युम्न का) यह सब करने का सबब मीडियानेट होना भी दुनिया को मतलबी नज़रों से देखने जैसा है। प्रकाशन जगत के हमारे प्रतियोगियों ने मीडियानेट को पहले ही ख़त्म कर दिया है। इस पर हमारे समूह में भी चर्चा हुई। पर टाइम्स ने कभी ध्यान नहीं दिया। पहाड़ तब टूटा जब उन्होंने (प्रद्युम्न ने) टाइम्स आफ इंडिया के कतिपय वरिष्ठ लोगों पर व्यक्तिगत टिप्पणी शुरु कीं जिन्हें हटाने का कानूनी नोटिस जारी हुआ। मैं सोचता हूँ (मैं अंदाज़ लगा कर कह रहा हूँ) कि हमारा विधि विभाग इन प्रविष्टियों को हटाने मात्र से ही संतुष्ट हो जाता और जिंदगी पहले सी चलती रहती। मेरे ख्याल से प्रद्युम्न को टाइम्स पर निशाना साधने में मज़ा आ रहा था क्योंकि हमने दूसरे किसी मीडिया समूह के लोगों के जीनव से जुड़ी उनकी कोई टीप नहीं पढ़ी।

वैसे उनका दोष भी नहीं है। मुझे बताया गया है कि मुम्बई में लोग टाइम्स आफ इंडिया को बुराई का साम्राज्य मानते हैं। आपके पाठकों के लिये ऐसी ही परिचित कंपनी शायद माईक्रोसॉफ्ट हो। जब रवैया ऐसा हो तो लगता है मैं कुछ भी क्यों न करूं, जब तक दूसरों की बखिया उधेड़ रहा हूँ दुनिया मेरा साथ देगी। (मीडियाह ब्लॉग से) मिड डे अखबार के चेयरमैन कि गुज़ारिश पर एक प्रविष्टि पहले भी हटायी जा चुकी है। क्या कारण है कि मिड डे की प्रार्थना काम कर जाती है और वही काम करवाने के लिये टाइम्स को कानूनी रास्ता अख़्तियार करना पड़ता है? मिड डे के खिलाफ ब्लॉगजगत लामबंद क्यों नहीं है? प्रद्युम्न को मिड डे की प्रविष्टि हटाने की "गुज़ारिश" नागवार क्यों नहीं गुज़री?

चलो जो भी हुआ, अपने ब्लॉग को बंद करना प्रद्युम्न का निर्णय था। दूसरे चिट्ठों पर चस्पा कानूनी नोटिस में, जहाँ तक मैंने पढ़ा है, साईट को बंद करने की बात का कहीं भी ज़िक्र नहीं है।

भवदीय,

एक पाठक जो अपना नाम ज़ाहिर नहीं करना चाहते।

ग्रिफिन मेल में लिखते हैं कि "टाइम्स आफ इंडिया जैसी संस्था, जिसका उद्देश्य सूचना एवं विचारों का प्रसार है, का इस तरह से विचारों के दमन करना दुखःदायी है। अगर वे सोचते हैं कि ब्लॉगजगत ऐसी हरकत नज़रअन्दाज़ कर देगा तो वे सामूहिक ताकत को बेहद कम कर के आंक रहे हैं। दूसरी ओर अगर वे सोचते है कि कम प्रसार संख्या वाले एक ब्लॉग से टाइम्स समूह जैसे आकार वाली संस्था को खतरा है तो यह हास्यास्पद होगा, यह वैसा ही है कि कोई हाथी एक चूहे से डर कर भागे।"

खेल खत्म या फिर एक नई शुरुआत?

यदि महेश्वरी की कोई गलती थी तो वह यह कि वे रोचक लेखन द्वारा अपने पाठकों को और अपनी माफियों और कहा वापस लेकर खफा मीडिया संस्थाओं दोनों को खुश करने का प्रयास कर रहे थे। एक समय पर तो अपनी लिखी बातों को कानूनी कार्यवाही से बचाने के लिए उन्होंने अपने लेखन में सितारों (**) का प्रयोग भी आरम्भ किया था। टाइम्स के कानूनी कागज एक जगह इसी लेखन शैली की बात कुछ ऐसे करते हैं "आप को विभिन्न बड़े मीडिया संस्थाओं के खिलाव बदनामी का मुहिम चलाने की आदत है और जब कोई इस बात का विरोध करता है तो आप झट से उनका गुस्सा शांत करने के लिए माफी माँग लेते हैं।"

वाकई महेश्वरी अपने सजाल को बंद करने के विषय पर अनिश्चित थे, उन्होंने अपने चिट्ठों पर लिखी हर राय का सूक्ष्मता से अध्ययन किया। साथ ही इस लेख के लेखक को यह भी कहा कि वह अपनी नौकरी जाने के भय से सजाल बंद नही कर रहे, परंतु फिर उन्होंने कहा कि मैं उनके संस्थान के नाम का अपने लेख में ज़िक्र न करूं।

एक बात तो पक्की है। माहेश्वरी चिट्ठों से ज्यादा देर दूर नहीं रहेंगे। वह वापिसी के बारे में सोच रहे हैं इस आशा के साथ कि इस बार उसके सिर पर किसी संगठन का हाथ होगा। इस कानूनी पचड़े से पहले ही माहेश्वरी ने मीडिया ब्लॉगर्स एसोसिएशन (एम.बी.ए.) में अर्जी भी दी थी व अब वह उसके सदस्य हैं। राबर्ट कॉक्स, जो कि इस एसोसिएशन के सह-संस्थापक हैं, ने मुझे बताया है कि वे भारतीय कानून से परिचित नहीं पर फिर भी मीडियाह की जितनी हो सके, मदद करेंगे।

कॉक्स ने ईमेल द्वारा कहा, "एम.बी.ए. मीडियाह की उतनी मदद के लिए राजी है जितनी की न्यूयार्क में बैठे बम्बई के लिए हो सकती है। द टाइम्स ऑफ इंडिया और मीडिआह मामले की बानगी हमने अमरीका में भी देखी है कि मीडिया कम्पनियाँ चिट्ठाकारों को डराने धमकाने के लिए गुंडागर्दी को कानूनी चाशनी में ढालने के तरीके अपनाती हैं। मेरे अपने अनुभव में पिछले साल एक व्यंग्य के कारण न्यूयार्क टाइम्स, नेशनल डीबेट ब्लॉग बंद करवाना चाहती थी और हाल में ही एक और मामले में एम.बी.ए के सदस्य माइकल बेटस को द टल्सा वर्लड द्वारा उनके जनसुलभ सजाल की कड़ियाँ व उनके लेखों से संक्षिप्तियाँ अपने चिट्ठे पर डालने के ‘जुर्म’ में धमाकाया गया था।"

द टाइम्स ऑफ इंडिया और मीडिआह मामले की बानगी हमने अमरीका में भी देखी है कि मीडिया कम्पनियाँ चिट्ठाकारों को डराने धमकाने के लिए गुंडागर्दी को कानूनी चाशनी में ढालने के तरीके अपनाती हैं।

कानूनी सलाह के बाद महेश्वरी मानते हैं कि उनकी स्थिति किसी संगठन या समूह का हिस्सा बनकर ज्यादा अच्छी है बजाए इसके कि वे सीधे अकेले ही टाइम्स ऑफ इंडिया का सामना करें।

महेश्वरी कहते हैं कि अब वे अपने नाम की बजाय, संगठन के नाम से सजाल बनाएंगे। "(कानूनी) सुरक्षा अकेले की जगह संगठन की ज्यादा अच्छी है। पर मैं एक बात बिल्कुल नहीं चाहता था कि मुझे अपनी 19 प्रविष्टियाँ मिटानी पड़ें या फिर उनके लिए माफी मांगनी पड़े। मुझे काफी लोगों ने कहा है कि मुझे माफी नहीं माँगनी चाहिए थी, और मैं भी सोचता हूँ कि मैं किसी ऐसी बात के लिए माफी क्यों माँगू जिसे कि मैं एक निष्पक्ष व रचनात्मक आलोचना समझता हूँ।"

मीडियाह दुबारा शुरु करने के बारे में उन्होंने कहा कि वह तो अब तभी आरम्भ होगी जब टाइम्स अपना मुकदमा वापिस ले लेगा।

महेश्वरी कहते हैं, "जो भी हुआ मैं इससे काफी दुःखी व पीड़ित रहा। चुंकि इसमें मेरी मेहनत लगी है इसलिए यह ज्यादा पीड़ादायी है। इतने सारे लोगों को एक ही ध्येय के लिए एकजुट देख कर अच्छा लगता है, पर साथ ही मैं इस से ज्यादा संबध नहीं रखना चाहता क्यूँकि मैं यह नही चाहता कि मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया को बदनाम करता देखा जाए। अपनी सारी जिंदगी इसी धंधे मे बिताने के बाद मैं सिर्फ मीडिया के निष्पक्ष आलोचक के रूप में देखा जाना चाहता हूँ। अभी तो फिर से सामान्य जिंदगी शुरु करना चाहता हूँ"

मूल अंग्रेज़ी आलेख से अनुवादित, हिंदी रूपांतरणः अतुल अरोरा और पंकज नरूला । इसी विषय पर निरंतर का संपादकीय: धौंस नहीं सहेंगे चिट्ठों के सिपाही भी पढ़ें।