संबंधों के साझे सेतु

नज़रियाब्लॉग पार्टिसिपेटरी वेब (अंर्तजाल पर भागीदारी) का सटीक उदाहरण है। अंर्तजाल के हमारे रोज़मर्रा के जीवन में बढ़ते हस्तक्षेप के साथ ही सूचना के आदान प्रदान के तरीके साझे होते जा रहे हैं। जब सेंकड़ों हज़ारों मस्तिष्क एक साथ काम करें, जब नाना प्रकार के विचारों और योगदान का विलय हो जाये तो जेम्स सुरोविकी के शब्दों में, “भीड़ चतुर हो जाती है”। सोशियल बुकमार्किंग के इस नये दौर में यह बात चरितार्थ होने लगी है। विचारों की साझेदारी से अनायास ही संबंधों के सेतु बंधने लगे हैं। गोया, इंसान को इंसान से मिलाने का जो काम धर्म को करना था वो टैग कर रहे हैं।

जानकारी की जमावट और लोगों को जोड़ने का यह एक क्रांतिकारी माध्यम है और साथ ही मानवीय भावना का प्रतीक भी जो अराजकता से व्यवस्था की सृष्टि कर रहा है। निरंतर के मई 2005 अंक की आमुख कथा का विषय भला और क्या हो सकता था भला? “क्या आप टैगिंग करते हैं?” आपको कीवर्ड के साम्राज्य से न केवल परिचित कराने का प्रयास है वरन उसमें शामिल होने का खुला न्यौता भी।

टेकनोराती पर भारत की खोज

टैगिंग बेईंतहां सफल हो कर अंर्तजाल पर नया अध्याय रचेगी या फिर अनगिनत अन्य क्रांतिकारी विचारों की तरह विस्मृति की गर्त में समा जायेगी इस प्रश्न का जवाब तो भविष्य ही दे सकता है। हम तो वर्तमान में ही जीते हैं न!

आपका मित्र,

देबाशीष

 


आखिर ब्लॉग किस चिड़िया का नाम है?

कुछ माह पहले की बात है। आफिस में काम करते हुए यूनिकोड से संबद्ध एक प्रश्न पर अपने अमरीकी सहयोगी से विचार विमर्श कर रहा था। तभी मेरे सहकर्मी ने मुझे हिंदी का कोई अक्षर टाईप करके दिखाया जिससे मेरे ज्ञान चक्षु खुल गये। तकनीक तो गजब की थी। अगर आपने अपने कंप्यूटर में शंकर दयाल शर्मा के जमाने से कोई अपडेट नही किया हो तो बात अलग है अन्यथा आजकल बिना किसी फोन्ट डाउनलोड किये आपके कंप्यूटर पर हिंदी, गुजराती, मराठी ही क्या दुनिया की कोई भी भाषा दिख सकती है।

यह स्वीकारते हुए मुझे कोई संकोच नहीं होता कि पिछले कुछ समय से मसरूफियत ने मुझे रेत में सर गड़ाये शतुरमुर्ग बना छोड़ा था। यूनिकोड, क्षमल फीड, ब्लॉग,पर्मालिंक, न्यूज़रीडर, ट्रैकबैक जैसे शब्द कब तूफान की तरह आये और अंर्तजाल तकनीकी पर छा गये पता नही चला। पर कुछ ही महीनो में पकड़ फिर से मजबूत हो चली और परिचय हुआ ब्लॉग की विधा से। फिर मिला नौ दो ग्यारह और नुक्ता चीनी से और मैं भी कूद पड़ा लाईफ ईन ए एच ओ वी लेन को लेकर। कुल दस पंद्रह हिंदी ब्लॉग से शुरू हुई यात्रा आज पचास से अधिक ब्लॉग और इस ब्लॉगजीन तक आ पहुँची और सतत जारी भी है। पर अभी भी दूसरे शतुरमुर्गो को देखकर कोफ्त होती है जो पूछते हैं कि ब्लॉग किस चिड़िया का नाम है?

वैसे गलती उनकी भी नहीं है। अंग्रेजी अखबारों की कटिंग चाय पिलाने वाले या “मैने आज फलां किताब पढ़ी” सरीखी हेडलाईन वाले चिट्ठों की भीड़ से अच्छे मोती चुनने की ज़हमत सिर्फ पढ़ने के शौकीन उठाना चाहते हैं। जब भी कोई शतुरमुर्ग तकनीकी के क्षेत्र में हलचल को देखकर कुछेक ब्लॉग देखने की ज़हमत उठाता भी है तो सरसरी तौर पर उसे आये दिन बेहतरीन टेम्पलेट बदलने वाले, परन्तु सामग्री के नाम पर भूसा परोसने वाले चिठ्ठाकारो की भरमार दिखती है। कभी सुना था कि दुनिया अपने गम से इतनी दुःखी है कि वह आपका दुःख सुनकर और दुःखी नही होना चाहती। इसलिए किसी को यह नही जानना कि आज आप ट्रैफिक में क्यों फँसे या फिर आपकी माशूका को कौन सी चाकलेट पसंद है या फिर आप परदेश में कितने नोस्टालजिक हो रहे हैं। ठीक इसी प्रकार किसी अखबार से कोई खबर उठाकर उस पर अपनी टिप्पणी जोड़ देना भी अधिक पाठक आकर्षित नही कर सकता।

अधिकांश यह नही जानते कि ब्लॉग सिर्फ डायरी नही है। बेशुमार तकनीकि, राजनैतिक, आर्थिक लेख इस विधा की ओर मुड़ चुके हैं या मुड़ रहे हैं। ब्लॉग वही सफल है जिनकी सामग्री पठनीय है। आप खोजी निगाह रखते हो तो आपको दूर नही जाना पड़ेगा। कम से कम आधा दर्जन ऐसे ब्लॉग है जो किसी भी अखबार के संपादकीय से ज्यादा मारक क्षमता रखते हैं। तकनीकी के क्षेत्र में भी आपको हर विधा के ब्लॉगर मिल जायेगें जो आये दिन अपने क्षेत्र में होने वाले नये अनुभव आपसे बाँटते हैं। ज्यादा ज़हमत उठाने से बचना हो तो सीधे पिछले दो साल के इंडीब्लॉगीज़ पुरस्कार देख लीजिए। आपको हर क्षेत्र के कुछ चुने हुए ब्लॉग देखने को मिलेंगे। जैसा कहा जाता है कि संतजनों की संगति में भी संत ही होते है अतः इस अवार्ड को पाने वाले या इनके उपविजेताओं के ब्लॉग पर आपको भूसा परोसने वाली कड़ियाँ भी कम ही मिलेंगी। इस अंक में साहित्यिक पत्रिका “अभिव्यक्ति” की दास्तान पढ़िये और सोचिए कि क्या आज से आठ साल बाद ऐसा ही कुछ निरंतर के लिए भी लिखा जायेगा?

आपका मित्र,

अतुल अरोरा

 

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