इस ग़ज़ल संग्रह के संपादक-संकलनकर्ता शेरजंग गर्ग जब अपने आमुख कथन में दवे प्रताप नागर का यह शेर उद्भृत करते हैं-

हर ग़ज़ल घायल पड़ी है साज पर आवाज़ पर भी
क्या यही कम है कि हम कुछ लोग खुलकर गा रहे हैं?

वातायनः पुस्तक समीक्षातब इस पुस्तक में शामिल ग़ज़लों बारे में आंशिक रूप से अंदाजा हो जाता है कि संकलन की अधिकांश ग़ज़लें विद्रोही स्वरों की होंगी। संकलन की ग़ज़लें न सिर्फ विद्रोही स्वरों की हैं, इनकी शैली, बुनावट, भाषा इत्यादि सभी में एक विद्रोह-पन सा झलकता है तथा यदा-कदा ग़ज़लें छंद-बहर के नियमों-बंधनों से मुक्त भी दिखाई पड़ती हैं।

संकलन में पचास से अधिक हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी ग़ज़लकारों की 240 ग़ज़लों को शामिल किया गया है, जिनमें अधिकांश नए जमाने के ग़ज़लकार हैं। ग़ज़लों के बुद्धिमत्ता पूर्ण चयन में शेरजंग गर्ग, जो स्वयं एक नामी ग़ज़लकार हैं, सफल हुए से लगते हैं। वे कहते भी हैं – एक अच्छी ग़ज़ल पढ़ने-सुनने का आनन्द कुछ वैसा ही है जैसा कि वर्षा की शीतल फुहार में भीगने का, चाँदनी रात में बागीचे में टहलने का, बिछुड़कर फिर से मिलने का, सन्तों और विचारकों के सान्निध्य का, प्रिय के साथ छोटी सी, मगर आत्मीय भेंट का। संकलन की अधिकांश ग़ज़लें उनके इन विचारों की पुष्टि करती हैं।

ग़ज़लें रंगारंगमगर, जब एक संकलन में पचास से ज्यादा लेखक हों और हर एक की ग़ज़ल कहने की अपनी शख़्सियत हो, तो जाहिर है पठनीयता में भटकन सा अहसास आता ही है। आप किसी ग़ज़लकार की कोई ग़ज़ल किसी मूड की, किसी बहर की पढ़ रहे हों और अगली ग़ज़ल किसी अन्य ग़ज़लकार की अन्य शैली में हो तो पठनीयता उचटती सी प्रतीत होती है। इस मसले पर यह कहा जा सकता है कि यह बात तो एक ग़ज़ल के हर दूसरे शेर में भी आ सकती है। मगर एक ग़ज़लकार अपने लहज़े से एकदम बाहर, आमतौर पर, कोशिशें करके भी नहीं जा पाता। जरा बानगी देखिए-

जिनको पकड़ा हाथ समझकर
वो केवल दस्ताने निकले
— विज्ञान व्रत

मैं तो अपनी सोच के शब में भटकता रह गया
लफ़्ज के जुगनू दरे-किर्तास पर जलते रहे

— शुएब जाज़िब

(दरे-किर्तास = कागज़-पत्र)

संग्रह में जहाँ नए तरह की, नए जमाने की ग़ज़लें भी हैं वहीं पारंपरिक तौर तरीक़े की भी। हर स्वाद की ग़ज़ल इस संकलन में समोने की कोशिश की गई है। एक और बानगी देखें-

कीलों सी जड़ी हँसी
फ्रेमों में जड़ी हँसी


चमन हुए गुलदस्ते
मुरझाई पड़ी हँसी

या जाने पहचाने ईब्ने ईंशा का कथनः

कल चौधवीं की रात थी, शब-भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तिरा

या फिर बालस्वरूप राही की स्वीकारोक्ति

खेतों का हरापन मैं कहाँ देख रहा हूँ
मैं रेल के इंजन का धुआँ देख रहा हूँ

वैसे, कुल मिलाकर, कई रंगों में लिपटे होने के बावजूद या शायद इसी कारण, यह पुस्तक पठनीय-संग्रहणीय तो है ही, खासकर तब जब इसकी कीमत अविश्वसनीय रूप से कम, मात्र 25/- रुपयों की हो। इस हेतु संपादक-प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।