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मीडिया ही घोंट रहा है ब्लॉग का गला बड़े अखबार समूह टाइम्स आफ इंडिया की कानूनी धमकियों के कारण पत्रकार प्रद्युम्न माहेश्वरी को अपना लोकप्रिय ब्लॉग मीडियाह बंद करना पड़ा। इससे भारतीय ब्लॉग जगत में विक्षोभ की लहर दौड़ी और एक इंटरनेट याचिका भी दायर हो गई। क्या भारत में मीडिया और ब्लॉग का सहअस्तित्व संभव हो पायेगा? विवेचना कर रहे हैं मार्क ग्लेसर। |
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धौंस नहीं सहेंगे चिट्ठों के सिपाही आंदोलन का प्रतीक माने जाने वाले अखबार कार्पोरेट्स के हाथों अपना ज़मीर बेच चुके हैं। ऐसे में ब्लॉग्स का ईमानदार स्वर आशाएं जगाता है। पढ़िये ब्लॉग्स पर मीडिया मुगलों की दादागिरी पर निरंतर का दो टूक संपादकीय।
साथ ही पढ़ें याहू द्वारा फ्लिकर के अधिग्रहण और याहू 360° के पर्दापण पर निरंतर द्वारा बदलते परिदृश्य का आंकलन, “बड़े खिलाड़ी के आने से बड़ा हुआ खेल“।
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बोलबाला मीडिया रिच चिट्ठों का याहू 360° का आगमन, याहू द्वारा फ्लिकर के अधिग्रहण की अफ़वाहें, पत्रकार प्रद्युम्न माहेश्वरी के प्रसिद्ध ब्लॉग मीडियाह पर टाईम्स आफ इंडिया ने लगवाया ताला और आस्कर अवार्ड्स ने भी बनाया अपना ब्लॉग। ये, और ढेर सारी और खबरें। हमारे स्तंभ हलचल में पढ़िए माह के दौरान घटित ब्लॉगजगत से संबंधित खबरें तड़के के साथ। |
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ग़ज़लें रंगारंग शेरजंग गर्ग द्वारा संकलित व संपादित गज़लें रंगारंग ग़ज़लों के इंद्रधनुषी रंगों में पाठक को सराबोर करने का एक सार्थक प्रयास है, कहना है पुस्तक की समीक्षा कर रहे रवि रतलामी का। |
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अंगने की होली “न जाने कितने त्यौहार चुपचाप खिसक जाते हैं कालनिर्णय रसोईघर की भीत पर टंगा-टंगा। सब त्योहारों के नाम कान में बुदबुदाता रहता है…मन मामा के आँगन में उस त्यौहार को मना आता है।” वातायन में पढ़िये डॉ रति सक्सेना रचित मार्मिक संस्मरण “अंगने की होली”। |
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सुपरमैन और अंडरवियर अगर आपकी पूर्व प्रेमिका अपने बच्चों को आपसे उनके मामा तौर पर मिलवाये तो आप क्या करेंगे? अगर सुपरमैन इतना बुद्धिमान है तो फिर अंडरवियर अपनी पैंट के ऊपर क्यों पहनता है? कहते हैं कि पैदल चलने और जॉगिंग करने से वजन कम होता है। तो क्या उल्टे पैर चलने से वजन बढ़ सकता है? ऐसे ही टेड़े सवालों के मेड़े जवाब दे रहे हैं हाजिर जवाब फुरसतिया! |
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विशेषज्ञ बिन सब सून जीवन के हर क्षेत्र में विशेषज्ञों की घुसपैठ जारी है। व्यक्ति के जन्म लेने से पहले ही विशेषज्ञों का रोल चालू हो जाता है। कटाक्ष कर रहे हैं रविशंकर श्रीवास्तव। |
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आ उठ, चल, बाहर जीवन है वातायन है निरंतर का साहित्य प्रकोष्ठ यानि साहित्यिक प्रतिभा का झरोखा। इस अंक में प्रस्तुत है मानोशी चटर्जी की कविता “आ उठ, चल, बाहर जीवन है” और पूर्णिमा वर्मन की कविता “आवारा वसंत”। |
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पत्र : वहशीपन से देश महान नहीं बनता गुजरात सरकार ने हिंदुओं को एकबार शर्मसार किया है और शरारती तत्वों को सजा न देकर अगर वह दुबारा ऐसा करेगी तो दुनियाभर में अपने समर्थक खो देगी। हमारे महान देश का नेतृत्व इतना रीढविहीन एवं अदूरदर्शी कैसे हो सकता है जो गुंडो को राजनैतिक परिदृश्य पर छाने की खुली छूट देता है। निरंतर संपादक मंडल को लिखे अपने खत में चिंता जता रहे है आर्केडिया विश्वविद्यालय, अमरिका में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक डॉ प्रद्युम्न सिंह चौहान। |
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गिरवी लोकतन्त्र चिट्ठा चर्चा के अंतर्गत “उसने कहा” में पढ़ें विभिन्न चिट्ठों से चुने कुछ मनभावन कथ्य और उल्लेखनीय उक्तियाँ जो आप भी अपनी डायरी में सहेज कर रखना चाहेंगे। |
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मैंने कोलिन पॉवल के साथ कपड़े धोए! “किसी को बाल भर की भी चिन्ता नहीं है कि आप के शहर में मौसम कैसा है। आप अपने कर्सर को तितली की शक्ल देते हैं तो किसी को फर्क नहीं पड़ता, न ही किसी से इस बात पर वोट डालने की उम्मीद कीजिए कि आप का ब्लॉग चकाचक है कि नहीं। बस कुछ असल का माल लिखते जाइए, अपने लिए, अपने बारे में, रोज़ाना।” आस्वादन कीजिये हुसैन द्वारा संकलित अंर्तजाल के कोने कोने से चुनी बेहद रोचक कड़ियाँ, कुछ खट्टी कुछ मीठी। |
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मैंने भी बोये कुछ सपने एक चित्र जिस पर आप अपनी कल्पनाशीलता परख सकते हैं और जीत सकते हैं रेबेका ब्लड की पुस्तक “द वेबलॉग हैन्डबुक” की एक प्रति। भाग लीजिये समस्या पूर्ति प्रतियोगिता में। |
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अप्रैल 2005 का कच्चा चिट्ठा कच्चा चिट्ठा स्तंभ में हर माह परिचय कीजिये नये चिट्ठाकारों से। इस अंक में आपकी भेंट करवा रहे हैं “मेरा चिट्ठा” के लेखक चिट्ठाकार आशीष गर्ग और “नुक्ताचीनी” चिट्ठे के लेखक और निरंतर के प्रकाशक देबाशीष चक्रवर्ती से। |
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सुक्खी जैसा कोई नही जितेन्द्र के बचपन के दोस्त सुक्खी बहुत ही सही आइटम हैं। उनकी जिन्दगी में लगातार ऐसी घटनायें होती रहती हैं जो दूसरों के लिये हास-परिहास का विषय बन जाती है। हास परिहास में पढ़िए सुने अनसुने लतीफ़े और रजनीश कपूर की नई कार्टून श्रृंखला “ये जो हैं जिंदगी“। |
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[…] the first and only Hindi blogzine on the web has just released its July issue. The issue, just like its previous issues, was religiously launched in the wee hours (IST) of the first day of the month. As […]