पानी का असमान वितरण, बाँधों के लिये विस्थापितों को अपर्याप्त मुआवज़ा, आर्थिक रूप से संपन्न और विपन्न उपभोक्ताओं में भेदभाव। यह भारत में जल से जुड़ी आम बातें हैं। पत्रकार दिलीप डिसूजा इस पर गौर कर रहे हैं और सुझाव दे रहे हैं कि राजनीति के द्वारा ही स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है।

स लेख की शुरुआत होती है मुम्बई पूना राजमार्ग पर, कामशेत के निकट बने पावना बाँध के नेपथ्य में उभरी झील के किनारे बसे गाँव, ठाकुर शाही में। गाँव का एक युवक राजू बताता है की उसका परिवार बाँध कि वजह से विस्थापित हुआ। उनकी उपजाऊ कृषि भूमि इस झील ने लील ली।

भारत में ऐसे किस्से आम हैं। पर राजू ने एक और आम और दुःखद किस्सा भी बयान कियाः विस्थापितों को न तो पर्याप्त मुआवज़ा मिला और न ही उनका पुर्नवास हुआ। ऐसे किस्से मैं अब तक इतनी बार सुन चुका हूँ कि ये रोज़मर्रा की बात लगती है। इनका रोज़मर्रा कि बात लगना स्वयं ही उस तरीके पर सवालिया निशान लगाता है जिसे भारत ने बाँधों के निर्माण के मामले में अख्तियार किया। राजू ने फिर और भी कुछ कहा। स्पष्टतः सहारा समूह, जिसकी “एम्बी वैली” नामक ऐशो आराम से परिपूर्ण रिहायशी नगरी पावना झील की दूसरी ओर के पहाड़ी के बीच बन रही है, ने बाँध की ऊँचाई बढ़ाने की सिफारिश की है। जाहिर है, उनकी अपनी नगरी के लिये पानी की खासी जरूरत है। पर अगर बाँध की ऊँचाई बढ़ी तो राजू और उसके गाँव वालों को एक बार फिर विस्थापन की मार झेलनी पड़ेगी।

मैं सोचता रहा कि आखिर क्या वजह है कि ऐसी कहानियाँ आम बात हो गई हैं, कि हमें यह नागवार नही गुज़रता कि कुछ लोगों की ज़िंदगी में सिर्फ इसलिये उथल पुथल लाई जाये, वो भी एक बार नहीं कई दफा, ताकि कुछ और लोगों की ज़िंदगी खूबसूरत बन सके। पानी के बारे में ऐसा क्या विशेष है, जो ऐसी स्थितियाँ निर्मित करता है। आखिरकार बाँध मूलतः पानी का ही इस्तेमाल करने का तरीका तो हैं।

दरअसल, पानी के बारे में जब आप यूँ सोचते हैं, तो याद रखने वाली बात सिर्फ एक होती है, वो ये कि पानी एक राजनीतिक हथियार है बस, इससे ज़्यादा और कुछ भी नहीं।

पानी के मुद्दे और पानी की नीतियाँ हमेशा से राजनैतिक शीशे में उतारे जाते रहे हैं और उतारे जाते रहेंगे।

क्या मतलब है इसका? क्या यह कि लोगों की प्यास बुझाना, या विस्थापितों की ज़रूरतों का ध्यान रखना पानी का निबटान करने वालों के लिये एक गैर ज़रूरी विषय है। क्या मैं इल्ज़ाम लगा रहा हूँ कि यह लोग ह्रदय हीन, कठोर हैवान हैं। जी नही ! मेरा अभिप्राय यह है कि ये लोग आज कि दुनिया में पानी की राजनैतिक शक्ति को भली भाँति पहचानते हैं और इसको दोहने में हिचकिचाते नही। सच कहें तो इसमें गलत भी क्या है, आखिरकार राजनीति भी हमारे आपसी व्यवहार का आधार ही तो है। शायद यही कारण है कि नर्मदा बाँध जैसे मुद्दे गुजरात में आस्था का विषय बन गये हैं, एक ऐसा मुद्दा जिस पर सभी राजनीतिक दल एकमत हैं। गुजरात के बाँधों की निंदा करना कुछ वैसा ही है जैसे कश्मीर के भारत से अलगाव कि बात कहनाः बात जिसे हलके तौर पर नही लिया जा सकता, बात जिसे आसानी से माफ नही किया जायेगा। हर राजनीतिक नेता यह भली भांति जान चुका है कि गुजरात के स्वाभिमान को नर्मदा मुद्दे से जोड़ने के क्या लाभ हो सकते हैं। तिस पर, ऐसा जुड़ाव किसी तरह कि बहस को दरकिनार कर देता है। निःसंदेह यह इसका उद्देश्य भी होता है। पर क्या इसे दरकिनार करना सही है?

यह कोई गुजरात के खिलाफ गुस्सैल बयानी नही है। सचाई तो यह है कि पानी को राजनैतिक फुटबॉल बनाने का रवैया व्यापक है और अन्य देशों में भी देखा जा सकता है (मार्क रीसनर का बेहतरीन “कैडिलैक डेसर्ट” पढ़ें तो आप अमरीकी जल नीति और राजनीति का जायज़ा ले पायेंगे।) बहरहाल, ये हमें एक खालिस सच का सामना करने पर मजबूर करता है, वो यह कि पानी के मुद्दे और पानी की नीतियाँ हमेशा से राजनैतिक शीशे में उतारे जाते रहे हैं और उतारे जाते रहेंगे। चुनौती यही है कि राजनीति को सभी के भले के लिये प्रयोग में लाया जाय, सहारा के ग्राहकों का भला तो हो, पर राजू का भी भला हो।

और ये कोई मुंगेरीलाल का ख्वाब भी नहीं, अगर आप ध्यान से सोचें तो! तो प्रस्तुत है तीन निर्देश जिस के आधार पर पानी का प्रयोग तय किया जा सकता है।

पहला, इस भ्रम का खात्मा करें कि कुछ लोगों का भला करने के लिये कुछ लोगों का नुकसान उठाना ज़रूरी है। ये सद्वचन काफी समय से बाँधों से विस्थापित लोगों के साथ हो रहे अन्याय की तर्कसंगति में कहे जाते रहे हैं। इस बात में विरोधियों का मुँह बन्द करने की काबिलियत है, शायद इसलिये कि यह इतना विवेकपूर्ण, इतना तार्किक प्रतीत होता है। कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है, हर चीज़ की कीमत होती है, नुकसान से नफा बड़ा जैसे जुमलों से इस बात को बल मिलता है कि “कुछ लोगों” को बलिदान देना ही है।

जल की राजनीति का केद्रबिंदु होना चाहियेः जो प्रयोग करेंगे, कीमत अदा करें और जो कीमत अदा करते हैं, प्रयोग करें।

इतने सालों बाद मैं सोचता हूँ ये “कुछ लोग” कौन है? ये हमेशा राजनैतिक रूप से कमज़ोर क्यों होते हैं? क्यों राजू जैसे लोगों से एक बार नहीं, कई कई बार बलिदान होने की उम्मीद रखी जाती है? ऐसा क्यों नही होता कि जल परियोजनाओं से सर्वाधिक लाभ उठाते शहरों के रहवासियों से यह बलिदान करने को कहा जाता हो? क्या हो अगर ये सद्वचन बदल कर हम कहें…अगर तुम्हें फायदे लेने हैं तो बलिदान भी करना पड़ेगा या अगर तुम बलिदान कर रहे हो तो तुम्हारा फायदों पर पहला हक होगा।

कल्पना करें कि सहारा के ग्राहकों को कहा जाये…आपको पानी ज़रूर मिलेगा पर आपको अपना पुराना घर राजू जैसे किसी ऐसे व्यक्ति को देना होगा जो बेघर हो रहा हो। या फिर जो इन बनने वाले बाँधों के डूब क्षेत्र मे आ रहे हों उनसे यह कहा जाये कि अपना घर इस बाँध के लिये बलिदान करो तो हम तुम्हें कमांड क्षेत्र में ही पुर्नवासित करेंगे। तुम्हें बाँध का फायदा किसी भी और से पहले मिलेगा। पानी का वितरण कभी भी इस लिहाज़ से क्यों नही तय किया गया?

जैसे जैसे जल संकट बढ़ता जा रहा है और पानी का प्रयोग लड़ झगड़कर करना पड़ता है, मुझे लगता है कि जल वितरण इस तरह ही तय किया जाना चाहिये। जल की राजनीति इसी बिंदु से शुरु हो…जो प्रयोग करेंगे, कीमत अदा करें और जो कीमत अदा करते हैं, प्रयोग करें। यहाँ “कीमत” से मेरा अभिप्राय विस्थापितों द्वारा दिये जा रहे बलिदान और किसानों से मांगी जा रही उचित दर, दोनों से है।

दूसरा, पानी एक ऐसा संसाधन है जो सबका है। हमेशा से पानी दो समूह में मुफ्त दिया जाता रहा है, शहरी उच्च और मध्यम वर्ग, जो इसकी कीमत अदा करने का सामर्थ्य रखते हैं और किसान जिन्हें कृषि के लिये जल कि दरकार तो है पर हमें बताया जाता है कि वे इतने ग़रीब हैं कि पैसे नहीं दे सकते। इससे सारे देश में उलटफेर का तांता लग गया है। झोपड़ियों में रहनेवाले पानी के लिये लाईन लगायें, अक्सर इलाके के एकलौते नल पर। गावों में परिवार एकमात्र हैंड पंप पर भीड़ लगाकर पानी का इंतज़ार करें। यह दृश्य भारत का ऐसा अभिन्न हिस्सा बन चुका है कि अगर आप को यह भ्रांति हो जाये कि हैंड पंप तो वैदिक काल से चले आ रहें हैं, तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं। इसके सापेक्ष गगनचुंबी शहरी ईमारतों में पानी हमेशा उपलब्ध रहता है। यह हर फ्लैट में, कई नलों से, अविरल प्रवाहित होता रहता है। कोई दो राय नहीं कि एम्बी वैली के घरों में भी ऐसा ही आलम होगा।

तो मेरा सुझाव यह होगा…पानी को हवा की तरह मानें। सब के लिये समान। जाहिर है, क्योंकि पानी हवा जितनी तादाद में मयस्सर नहीं तो इसका प्रयोग, पाबंदी और नियमों के अधीन ही होना चाहिये। किंतु इस के अलावा और कोई नियम ना हो, ग्रह के हर मानव का पानी पर बराबर हक हो। यह धारणा इतनी आसान नहीं कि हर कोई मान ले, पर मंझे हुये राजनेता फिर कब काम आऐंगे भला? पानी पर भेदभावपूर्ण हक से विवाद और युद्ध की स्थिति बन सकती है और ऐसी भयावह स्थिति से बचाने का काम भी राजनेताओं के हवाले किया जा सकता है।

और इससे मैं पहुँचता हूँ तीसरे बिंदु पर, यानी राजनीति और राजनीतिज्ञ। हमें वक्त ने सिखाया तो यही है कि राजनेता विश्वास के काबिल नहीं। पर सच तो यह है कि राजनीति से नज़रें चुराने कि कोई ज़रूरत है नहीं। हमारे मुल्क में सधे हुए और कर्त्तव्य निष्ठ राजनेता भी हैं, और वे अपनी बात मनवाने का माद्दा भी रखते हैं। दरअसल मुझे यह साफ साफ लगता है कि राजू जैसे लोगों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार सुनिश्चित करने का बस एक ही तरीका हैः उनके अधिकारों के लिये ईमानदार राजनैतिक वार्ता होनी चाहिये। और इसलिये यह ज़रूरी है कि जो लोग पानी का निष्पक्ष उपयोग चाहते हैं, वे उत्साह के साथ राजनीति में शामिल हों। इससे पल्ला झाड़ने की भला क्या ज़रूरत?

मूल अंग्रेज़ी लेख से हिंदी रूपांतरः देबाशीष चक्रवर्ती