मैंने भी बोये कुछ सपने
लिखो कविता, जीतो ईनाम!
लेखकः निरंतर पत्रिका दल | April 8th, 2005नी
चे दिए चित्र और दिए गए शीर्षक को ध्यान से देखिए और रच डालिए एक छोटी सी कविता। ज्यादा बड़ी न हो तो अच्छा, चार लाईना हो तो उत्तम, हाइकू हो तो क्या कहनें! शीर्षक मुख्यतः भाव के लिए है, पर आप इसे कविता में प्रयोग कर सकते हैं। यदि आपकी रचना निरंतर संपादक मंडल को पसंद आ गई तो आप जीत सकेंगे रेबेका बल्ड की पुस्तक “द वेबलॉग हैंडबुक” की एक प्रति। कविता इस पोस्ट पर अपने टिप्पणी (कमेंट) के रूप में ही प्रेषित करें।

Picture by Debashish Chakrabarty
चित्र शीर्षकः मैंने भी बोये कुछ सपने
प्रतियोगिता के नियमः
- रचना मौलिक, अप्रकाशित होनी चाहिए।
- एक प्रेषक से एक ही प्रविष्टि स्वीकार्य होगी।
- संपादक मंडल का निर्णय साधारण अथवा विवाद की स्थिति में अंतिम व सर्वमान्य होगा।
- किसी भी प्रविष्टि की प्राप्ति न होने या न जीतने पर पुस्तक आगामी अंकों में वितरित होगी।
- संपादक मंडल के सदस्य प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकते।
- प्रतियोगिता में केवल पुस्तक प्रदान की जा रही है, वितरण की जिम्मेवारी निरंतर फिलहाल लेने में असमर्थ है। अतः विजेता को जीती पुस्तक प्राप्त करने के लिए अपना पता लिखा एवं पर्याप्त डाक टिकट लगा लिफाफा संपादक को भेजना होगा। विजेता को उसके निवास स्थान के आधार पर डाक टिकट का मूल्य तथा पुस्तक मंगाने का पता निरंतर यथासमय सूचित करेगा।
- क्षमा करें, डाक में पुस्तक खो जाने या पुस्तक अप्राप्ति कि जिम्मेवारी निरंतर नहीं ले सकता।
- रचना भेजने की अंतिम तिथि हैः 20 अप्रेल, 2005
पिछली प्रतियोगिता के परिणाम
निरंतर के मार्च अंक की समस्या पूर्ति के विजेता सर्वसम्मति से राजेश कुमार सिंह घोषित किए गए हैं। बधाई राजेश! पुरस्कार के लिए हम जल्द ही आपसे संपर्क करेंगे।
सुन्दर हाइकू
बहुत सुन्दर .. हाइकू…
प्रत्यक्षा
Submitted by प्रत्यक्षा on Fri, 2005-05-06 07:33.
भागीदारी सही
तारीख तो निकल चुकी लेकिन जब ये लिख ही डाला तो भेज ही दूँ……..भागीदारी सही
एक बिरवा बोया था
सपनों का…
शायद मेरे स्वप्न अब
रात की मायवी दुनिया से
निकलकर
ठोस धरातल पर जड ले लें
शायद उनमें भी फूल उग जायें
Submitted by प्रत्यक्षा on Fri, 2005-05-06 07:26.
सपनों का प्रतिफ़ल
नन्हे बच्चे,
सागर किनारे गीली रेत पर
सपने जो तुमने बोये हैं
उन सपनों की तारीकी ही
तुम्हारा आने वाला कल होगा
इन्द्र्धनुश के रंगो सा
जीवन का हर पल होगा
आज के बोये सपनों से ही
बनता आने वाला कल है
है जीवन का बहता दरिया
जो सपनों का ही तो प्रतिफ़ल है
तो नन्हे बच्चे
सागर किनारे गीली रेत पर
सपने जो तुमने बोये हैं
उन सपने से पौधे को तुम
अपनी उमंगो से सींचा करना
सपनों के उस कोमल पौधे को
तुम हकीकत का दरख्त बना देना
Submitted by Sarika Saxena on Mon, 2005-05-02 21:28
Gharonda banega
Maine bhi boye kuchh sapne,
Sabse chhupkar, nitaant apne,
Jab In sapnon ka vriksha ugega
Us par koi gharonda banega.
Nanhe parinde choon-choon kar
Denge Mujhe khushiyan hazaar.
Submitted by Anurag Sharma on Fri, 2005-04-22 02:59.
भावों की खेती
भावों की,खेती की,हमने,
फसल उगायी,कर्मों के,
दाम लगाये,संकल्पों के,
हाट ,सजे आदर्शों के,
आँखों में,अम्बर झुक आया,
मैंने,बीज,जो बोये सपनों के।
Submitted by राजेश कुमार सिंह on Tue, 2005-04-19 10:19.
बिखरी रेत
बिखरी रेत को मुठ्ठी मे बन्द करना चाहता हूँ,
छोटा सा हूँ मगर काम बड़ा करना चाहता हूँ।
किनारे पे खड़े यूँ रह के कुछ होता नही,
पूरे नही होते सपने जब तक उन्हें कोई बोता नहीं॥
Submitted by तरूण on Sun, 2005-04-17 23:54.
टीप डाला कविता
हम भी लिख डाला हूँ, माफ कीजियेगा, टीप डाला हूँ एक छोटी सी कविता| ईनाम के लिये नही, यूँ ही याद आ गयी, ये कविता|
सोचा था खामोश समा लाएगा दिल को चैन मगर
सन्नाटे का शोर ही चारों ओर सुनाई पडता है।
चाहे जितनी रेत जमा लूँ, इन बालू के महलों में
सहर की आंधी में सब कमज़ोर दिखाई पडता है।
Submitted by जीतू on Tue, 2005-04-12 12:09.
हाईकू से दो-दो हाथ
हालांकि संपादकों का भाग लेना वर्जित है, मैं लोभ संवरण नहीं कर पाया। यह सिर्फ भागीदारी के लिए, अच्छा हुआ हाईकू से भी दो दो हाथ हो गए…
ढलता सूर्य
शिशु क्रीड़ा को देख
ठिठक गया।
ज़रा सींच दूँ
सपने जो बोये हैं
अम्मा बाबा ने।
Submitted by debashish on Mon, 2005-04-11 08:26.
मन धरा श्रम
मन धरा श्रमस्वेद सींचें खरा
स्वप्न बीज टूटे भी फ़लित होता हरा
बचाऊं, छुपाऊं जग से ज़रा
Submitted by eSwami on Thu, 2005-04-07 15:05.
क्षितिजगामी सपने
रेत के घरौंदों जैसे ही सही,
मन की उन लहरों के किनारे,
क्षितिजगामी पदचिन्हों पर ही,
हाँ, मैंने भी बोये कुछ सपने ।
Submitted by Prem Piyush on Thu, 2005-04-07 12:42.
बह न जायें सपने
मैंने भी बोये हैं कुछ सपने,
सपने सीप और नोतियों जैसे|
पर साथ ही है ये भी डर ,
कहीं बहा न ले जाये समय का झोंका उनको,
लहरों की तरह|
Submitted by Ashish Garg on Wed, 2005-04-06 08:57.