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ये कश्मीर मुझे दे दे ठाकुर

पाकिस्तान के राष्ट्रपति की हाल की भारत यात्रा पर वर्नम की टिप्पणी

चिट्ठा जोरदारMusharrafमुशर्रफ साहब कहना यूँ चाहते हैं, “हम ने 1948 में कश्मीर को हथियाना चाहा, पर वह बेवकूफी भरा कदम निकला। 1965 और 1999 में फिर कोशिश की। फिर “नैतिक और राजनैतिक मदद” कह कर आतंकियों को चोरी छुपे घुसाने की कोशिश की। हमारे बनाए आतंकियों ने ढेर सारे कश्मीरियों को कत्ल किया और हिन्दुओं को घाटी से निकाल बाहर किया। यह तरकीब भी नाकाम रही। तो अब यह रहा मेरा सन्त रुपी अगला अवतार। अब हाथ जोड़ता हूँ, कुछ तो दरियादिली दिखाओ और कश्मीर हमें दे दो।”

“पर हमें बदले में कुछ करने को न कहो। हम पहले कह चुके हैं कि हम ढीठ हैं। मैं ने अभी अपने जालस्थल पर बता दिया कि तुम लोग हमारे कट्टर दुश्मन हो। हम ने कुछ भारतीय संगीतज्ञों के वीज़ा भी ठुकरा दिए और भारत को MFN status देने से भी मना कर दिया। पर फिर भी हमें कश्मीर दे दो।”

“मेरा देश बदहाली में है। किसी अनजाने खतरे के चलते, कराची में अमरीकी दूतावास बन्द पड़ा है लाहौर और कराची हवाई अड्डे भी हाई अलर्ट पर चल रहे हैं। बलूचिस्तान हम से लोग बग़ावत पर आमादा है। लगभग 50,000 PPP कार्यकर्त्ता जेलों में हैं। पर उस सब को छोड़ो, अब मैं यहाँ भारत में हूँ क्योंकि मुझे मेरा शान्ति कपोत चाहिए, इसलिए कृपया हमें कश्मीर दे दो।”

कम्बख्त पाइपलाइन

पाकिस्तान से गुज़रने वाली भारत-ईरान गैस पाइपलाइन परियोजना पर अतानु डे की टिप्पणी

कहानी कुछ यूँ है। पाकिस्तान को अपने देश से गुज़रती गैस पाइपलाइन की इजाज़त देने से ट्रांज़िट फीस के ज़रिए अच्छी खासी दौलत मिलती है, माना जाये कि दसियों करोड़ डॉलर की। तो तर्क यह दिया जाता है कि पाकिस्तान झगड़े की सूरत में भी पाइपलाइन को हानि नहीं पहुँचाएगा, क्यों कि उसकी आमदनी बन्द हो जाएगी। पर इस दलील में दम नहीं है, क्योंकि इस बात का हिसाब तो लगाया ही नहीं जा रहा कि पाकिस्तान को दूसरी ओर से भी लाभ हो सकता है — भारत का भारी नुकसान कर के।

मान लीजिए भारत और पाकिस्तान में झगड़ा होता है — कश्मीर समस्या को ले कर, या किसी नदी के पानी के विवाद को ले कर। अब बातचीत की मेज़ पर पाकिस्तानी भारतीयों से बड़े आराम से कहते हैं, बिना लिखा-पढ़ी के, “बन्दो, संभल जाओ, वरना हम नामुराद पाइपलाइन को सवेरे पाँच बजे उड़ा देंगे।” बेवकूफ हिन्दुस्तानी कहेंगे, “ना ना, तुम ऐसा कैसे करोगे? ऐसा करोगे तो तुम्हारे दस करोड़ डॉलर गए पानी में।”

“अच्छा जी?” पाकिस्तानी ताना मारेंगे। “और तुम्हारा कितना नुकसान होगा, उल्लू के पट्ठों? चार सौ करोड़ की तो गई पाइपलाइन, हज़ार करोड़ का गया औद्योगिक उत्पाद जो आयातित ऍलऍनजी के बूते पर खड़ा किया है तुम लोगों ने। नाकारों, इसे अपनी काफिर पाईपों में ड़ालो और बैठ कर बीड़ी पियो।”

भविष्यद्ष्टा

स्वव्यवसायियों के लिए नए अवसरों पर अजीत बालकृष्णन् का पूर्वाभास

आने वाले सुअवसरों का निर्माण करने वाली शक्तियां कौन सी हैं? कुछ नाम लिए जाएँ तो — सस्ती, लगभग मुफ्त बैंडविड्थ का युग, इंटरनेट का पुनरागमन, जैवतकनीक और सूचना तकनीक के मुख्य उत्पादकता चालक होने के युग का अन्त।

प्रासंगिक विज्ञापन

रश्मि बंसल के चिट्ठे ‘यूथ करी’ पर हिन्दुस्तान लीवर की विज्ञापन श्रृंखला पर टिप्पणी

सर्फ की ‘दो बकेट पानी रोज़ाना है बचाना’ विज्ञापन और लाइफबॉय का विज्ञापन जिस में बच्चे आस-पड़ोस की सफाई करते हैं, साबुन और डिर्टजेंट के परम्परागत विज्ञापनों से हट कर है। एक तरह से कहा जा सकता है कि ये सामाजिक रूप से “प्रासंगिक” है। यह विज्ञापन लोगों का ध्यान भी आकर्षित कर रहे हैं, और एक सकारात्मक प्रभाव भी छोड़ रहे हैं। ऐसा प्रभाव, जिससे आखिरकार बिक्री भी बढ़ाना चाहिये। पर शायद असर जल्द न हो। जिसका अर्थ ये कि स्थिति जल्द ही फिर से ‘सफेदी की झनकार’ जैसे विज्ञापनों की बन जायेगी।

यादें याद आती हैं

अनुमिता के चिट्ठे “ऍ फ्यू सीज़न्स वर्थ” पर उन के बचपन के संस्मरण

ज़्यादातर यादें गर्मियों के मौसम की हैं, जब बस गर्मी होती थी। कभी भी असहनीय गर्मी नहीं। गर्मियों से याद आती है पेडों की छाँव की, दोपहर की नींदों की, कुल्फियों की, लम्बी सैरों की, लम्बे उजले दिनों की और लाखों जुगनुओं से भरी उन रातों की जब मैं माँ की गोद में सिर रख कर तारे गिना करती थी। जब उन की कहानियाँ सुना करती थी, मोहित सी हो कर।

जाड़ों की तो बात ही और थी… धुन्ध भरे, छोटे छोटे ऊनी दस्ताने, गर्म अलाव और बहुत सारी कोल्ड क्रीम।

पर जाड़ों की तो बात ही और थी… धुन्ध भरे, छोटे छोटे ऊनी दस्ताने, गर्म अलाव और बहुत सारी कोल्ड क्रीम। और फिर नानी के घर का वह बहुत बड़ा जैतून का पेड़। जाड़े के मौसम में फल खाने की मनाही होती थी, पर मेरी सब से पुरानी यादें उस पेड़ की ओर दौड़ लगाने की ही हैं, चेहरे पर बर्फीली हवा के थपेड़े खाते हुए। वे खट्टे फल खा कर अपना गला खराब कर लेने की। मैं पेड़ के नीचे हाँफती थी, दौड़ लगाने से चेहरा लाल होता था, और मेरा फुफेरा भाई एक छोटी, भूरी डंडी निकाल कर उसे जलाता था। ‘फॉरेन’ से आए रिश्तेदारों का तोहफा। और मेरा प्यारा भैया वह आधी सिगार सी चीज़ पी कर मुझे गुर सिखाता था कि धुएँ की बू छुपाने के लिए क्या खाना चाहिए।



ज़रा सा कठिन है, नया लिखना

इस अंक से अनूप शुक्ला द्वारा प्रारंभ चिट्ठा चर्चा समायोजित हो रहा है निरंतर पर। चिट्ठा चर्चा में पढ़िये भारतीय ब्लॉगमंडल के खास चिट्ठों बीते माह के दौरान की चहल पहल का जायजा, अनूप की अपनी खास शैली में। इस नये स्तंभ पर अपनी प्रतिक्रिया हमें अवश्य भेजें, पता आप जानते ही हैं patrikaa at gmail dot com।
  • Chittha Charchaरमन बी ने शोभा डे की किताब का रोचक समीक्षानुमा विवरण दिया। जैसे किताब का सार ही निचोड़ दिया।
  • लाइलाज आशावादी रमन कौल का संदेश है:

    “भविष्य की योजना ऐसी बनाओ जैसे सौ साल जीना हो, काम ऐसे करो जैसे कल मरना हो।” चलते चलते यह बता दूँ कि मेरे लिए आशा के बिना बिल्कुल जीवन नहीं है, चाहे लड़े, चाहे मरें, आशा के साथ अग्नि के सात फेरे जो लिए हैं।

  • स्वामीजी ने बताया दिशा वो जिधर चल पड़ो। हेगेल के डायलेक्ट के अलावा एक खासियत इस पोस्ट की थी कि इसमें कमेंट सीधे हिंदी में किये गये। लगता है सजाने संवारने के लिये स्वामीजी ने इसे हटा लिया बाद में। हिंदी में लिखने के बारे में आलोक के लेख पर चौपाल में सिर्फ आलोक-स्वामी संवाद देखकर थोड़ा अचरज हुआ। आशा ही जीवन के बजाय स्वामीजी मानते हैं –प्रपंच ही जीवन है। हिंदी ब्लागर से सूचना अपेक्षाओं के बारे में कह रहे हैं स्वामी।
  • मुनीश के कविता सागर में कुछ और नायाब मोती निकले।
  • हिंदी के दिन कब बहुरेंगे पूछते हुये रवि रतलामी आशा ही जीवन है लिखते हुये बताते हैं अपना किस्सा जिसे सुनकर आशावाद बढ़ जाता है। इंटरनेटजालसाजी के बारे में बताया विस्तार से। हिंदी फान्ट दुनिया की सैर, जानकारी से भरी है।
  • ज्ञानविज्ञान में लेखों की विविधता बढ़ती जा रही है। खड़कपुर आई.आई.टी के लोगों ने जूट की सड़कें विकसित की हैं जो भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हैं तथा सस्ती हैं। इसके पहले शून्य की महत्ता तथा पुरुषों के लिये परिवार नियोजन पर आये।
  • सूचना क्रान्ति के दौर में पत्र नदारद होते जा रहे हैं । विजय ठाकुर इसके बारे में पड़ताल करते हैं। यह भी कि सूचना क्रांति के क्या नकारात्मक पक्ष हैं।
  • हाइकू की बहती गंगा में देवाशीष भी डुबकी लगाने से नहीं चूके।
  • भारतीय लिपियों को देवानागरी में कैसे बदल बदल सकते हैं यह आलोक बताते हैं गिरगिट की बात करते हुये।
  • अमेरिका की खुशी में भारत की खुशी खोजने वाले अनुनाद को आशा है कि भारतीय भाषाओं का सर्च इंजन जल्द ही आयेगा।
    अमेरिका की खुशी में भारत की खुशी खोजने वाले अनुनाद को आशा है कि भारतीय भाषाओं का सर्च इंजन जल्द ही आयेगा।
  • अतुल अरोरा ने बकरमंडी से नई कहानी को टेम्पो पर बिठा दिया है। टेम्पोवाला कुछ नखरे कर रहा है। देखो कौन इसको आगे ले जाता है?
  • विजय ठाकुर के स्कूल के बच्चे दिन पर दिन समझदार होते जा रहे हैं। असल में ब्लाग शायद यही लिख रहे हैं।
  • तीन पीढ़ियों के सहित 100वां जन्म-दिवस मना रही महिला से मिलवाते हैं महावीर शर्मा। इसके पहले वे लंदन में वैसाखी उत्सव के बारे में बताते हैं।

    दुआ मे तेरी असर हो कैसे

    सिर्फ़ फूलों का शहर हो कैसे

    यह बात पूछते-पूछते मानोशी फुटपाथ पर पहुंच जाती हैं तथा उनके आराम से सो जाने के बारे में लिखती हैं।

  • सरदार, जो दारु के पैसे बेहिचक मांगता है, की साफगोई से प्रभावित हो गये जीतेन्द्र। अपने पुराने लेख भी सहेज के रखे।
  • रिश्तों की बारे में रति जी बताती हैं:-

    रिश्ते

    ऐसे भी होते हैं

    चिनगारी बन

    सुलगते रहतें हैं जो

    जिंदगी भर

  • आउटसोर्सिंग की संभावनाओ का विस्तार तांत्रिकों -ओझाओं तक हो चुका है बताते हैं अतुल। अमेरिकी जीवन के अनुभव से रूबरू कराते हुये बता रहे हैं कि कैसे वहां गाड़ी ‘टोटल’ होती है।
  • शंख सीपी रेत पानी में कमलेश भट्ट फिर-फिर अपनी जमी-जमी जमायी कवितायें पढ़ा रहे हैं:-

    कौन मानेगा

    सबसे कठिन है

    सरल होना.

    फूल सी पली

    ससुराल में बहू

    फूस सी जली

    लिखने का मन होता है:-

    कौन मानेगा

    ज़रा सा कठिन है

    नया लिखना।

  • पंकज मिले गुरुद्वारे में फिर कहते हैं – पूछो न कैसे रैन बिताई?
  • हरीराम बता रहे हैं हिंदी में बोलकर लिखाने की तकनीक के बारे में।
  • डा.जगदीश व्योम आवाहन करते हैं:-

    बहते जल के साथ न बह

    कोशिश करके मन की कह

    कुछ तो खतरे होंगे ही

    चाहे जहाँ कहीं भी रह।

  • मुंगेरीलाल के हसीन सपनों से आप परिचित होंगे। मुंगेरीलाल की कहानी सुना रहे हैं तरुण। जीवन-आशा पर भी हाथ साफ किया गया।
  • फुरसतिया ने कानपुर में हुये कवि सम्मेलन के माध्यम से बताया कि कविता के पारखी अभी भी मौजूद हैं। जीवन में आशा ही सब कुछ नहीं नहीं है यह बताते हैं। इसके पहले कविताओं तथा हायकू पर भी हाथ आजमाये।