भारत में स्किन केयर यानि त्वचा सुरक्षा के उत्पादों के बाज़ार का लगभग 60 फीसदी हिस्सा गोरेपन की क्रीम का ही है। महिला संगठनों और जागरूक नागरिकों को गोरेपन की क्रीम के विज्ञापनों में सांवले रंग पर होते कटाक्ष और गोरेपन को ही स्त्रियों की करियर में सफलता या सुंदर व उपयुक्त वर पाने के सहारे के रुप में चित्रित करने पर आपत्ति रही है। इन उत्पादों में प्रयुक्त हो रहे रसायनों के त्वचा और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभावों पर भी आपत्ति की जाती रही है। मुंबई स्थित प्रतिभाशाली चिट्ठाकार चारुकेसी गुणात्मक शोधकार्य में संलग्न हैं। सामाजिक और महिलाओं के अधिकारों से जुड़े विषयों पर वह लिखती रहती हैं। निरंतर के लिये लिखे प्रस्तुत लेख में चारू ने गोरेपन की क्रीम से जुड़े तथ्यों और परिदृश्य का सटीक चित्रांकन किया है।

ज की लड़कियाँ सफेद अश्व पर सवार एक सुंदर जीवन संगिनी की तलाश में फिरते सलोने राजकुमार के सपने नहीं देखतीं। उनके स्वप्न में दिखते हैं, सफेद कार से उतरते राकेश रोशन जो उन्हें अपनी अगली फिल्म में रोल का प्रस्ताव दे रहे हों। वाकया इन में से कोई भी हो, वे निहाल हो जाती हैं ऐसे प्रस्तावों से।

समय बदल रहा है। और गोरपेन की क्रीम का बाज़ार समाज में हो रहे हर एक बदलाव पर नज़र रक्खे है, अपने मुख्य लक्ष्य श्रोतावर्ग की हर ज़रूरत और हर सपने पर। सांवली कमसिन कन्याएँ, जो “बेहतर जीवन” के सपने देखती हैं, जिनके माता पिता असमय ही बूढ़े हो जाते हैं बेटी का रंग गेहुँआ बता कर उसके हाथ पीले करने की व्यवस्था करते, जिनका मार्ग केवल गोरे तन से ही प्रशस्त हो सकता है और जिसे पाने में गोरेपन की क्रीम उनकी मदद कर सकती हैं। हम ऐसे समाज में हैं जहाँ भले ही काजोल, बिपाशा बसू और रानी मुखर्जी जैसी सांवली अभिनेत्रियाँ हिट हैं, जीवन साथी के चेहरे पर मिलेनिन कम से कम होना चाहिये, यह रवैया आम है।

सफेदी का सच कितना सफेद?

क्या कोई क्रीम वाकई त्वचा का रंग बदल सकती है? इसका जवाब इमानदारी से मिले न मिले, गोरे रंग की चाहत के चलते निर्माता कंपनियों के वारे न्यारे हो रहे हैं। वैसे ज्यादातर क्रीम चमड़ी का रंग तय करने वाले तत्व मिलेनिन के फैलाव रोकने के सिद्धांत पर ही कार्य करते हैं। फिर आँखों पर परदा डालने के लिये इसमें शहद, नारियल जैसे तत्व मिला कर अलग अलग “वेरिएंट” और कुछ “अलग” उत्पादों की रचना होती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि लोगों को गोरेपन का एहसास दिलाने वाले असल तत्व हैं हाईड्रोक्यूनॉन और कोजिक एसिड। इनका अंश किसी भी उत्पाद में 2 फीसदी से ज्यादा होना खतरनाक है और एक्ज़ीमा, एलर्जी जैसे रोगों का कारक हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि हाईड्रोक्यूनॉन आधारित त्वचा उत्पाद कई देशों में प्रतिबंधित किये जा चुके हैं पर भारत में तो उत्पाद के पैक इनके प्रतिशत तक का ज़िक्र नही करते। हाईड्रोक्यूनॉन और कोजिक एसिड के अलावा जो हानिकारक तत्व इन उत्पादों में होता है वह है पारा, जो गुर्दे को हानि पहुँचा सकता है।

आइये एक नज़र डालें गोरपेन की क्रीम के बाज़ार में आते बदलाव परः

  • केवल गोरापन नहीं, त्वचा की देखरेख भीः विदेशी और जटिल ब्रांड के बारे में बढ़ती जानकारी, चाहे वह इस्तेमाल से उपजी हो या विज्ञापनों से, श्रोतावर्ग अब गोरेपन से भी कुछ ज़्यादा की चाह रख रहा है। तो लीजिये, गोरेपन की क्रीम भी अब अपने को सिर्फ गोरेपन की क्रीम कह कर नहीं पुकारतीं, वे अब बन गये हैं “त्वचा की देखरेख” के उत्पाद। अब सस्ते और हानिकारक ब्लीच में मिले अमोनिया से त्वचा की कितनी “देखरेख” होती है यह तो भगवान ही जाने। इन उत्पादों के नाम में “फेयर” शब्द के इस्तेमाल से किसी के भी ज़ेहन में संशय की कोई गुंजाईश नहीं रह जाती कि उत्पाद का मूल उद्देश्य क्या है।
  • प्रकृति की शरण में: रसायनों का ज़माना गया, प्राकृतिक का ज़माना आया। ज़रा दृष्टिपात करें अपने आसपास “प्राकृतिक तत्वों” से भरपूर होने का दावा करते ढेरों उत्पादों पर। कोई विटामिन एम से अटा पड़ा है तो कोई केसर से, या फिर दूध या शहद या फिर टमाटर या पपीता, यानि कोई भी तत्व जिससे 6 सप्ताह में त्वचा को चटपट ब्लीच कर बनाया जा सके गोरा, ताकि सांवली कन्या को भी मिल सके अपने सपनों का राजकुमार।
  • खास उत्पादः और अब विकल्प के रूप में मौजूद हैं, हर ज़रूरत, हर स्किन टाईप यानि त्वचा की किस्म के लिये अलहदा उत्पाद। अब गोरेपन की क्रीम उपलब्ध हैं तैलीय त्वचा, शीतकालीन प्रयोग के लिये भी, अनचाहे निशान मिटाने वाले एंटी मार्क्स क्रीम, और न जाने क्या क्या। बस आप नाम लें और उत्पाद हाज़िर! और तो और, कोहनियों के लिये भी मिलती है गोरेपन की क्रीम। जी हाँ, आपने सही पढ़ा, कोहनियों के लिये।
  • सपनों का मर्द और सपनों का पेशाः खास बात यह कि नये विज्ञापन, जिनकी गोरी मॉडलें अपने चेहरे पर ग्रीस लगाकर दया बटोरती हैं, “अपने सपनों का पति पाने” के विषय तक ही सीमित नहीं हैं, हालांकि मुख्य मुद्दा अब भी वही है। अब नौकरी करने की चाह और अपना करियर महत्वपूर्ण मानने वाली महिलाओं की भी चाहत को पंख लगाने के उत्पाद उपलब्ध हैं। आप विमान परिचारिका बन सकती हैं या फिर लोकप्रिय क्रिकेट कॉमेन्टेटर या फिर फिल्म स्टार भी।

चलिये माना कि समय बदल रहा है। फिर भी कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं, जैसे कि किसी भी दंपत्ति की पुत्र की चाह। यहाँ भी विज्ञापनों नें उपभोक्ताओं की इस कमज़ोरी को ताड़ कर चतुराई से अपना उल्लू सीधा किया है। बड़ा आसान है ऐसे पिता के मस्तिष्क को पढ़ना जिसे न केवल “पुत्री” होने वरन् सांवली पुत्री होने का “शाप” मिला हो, जिसे न तो अच्छी नौकरी नसीब होगी और न ही ब्याह करना आसान होगा।

जब तक गोरी बहुओं की तलाश जारी रहेगी, गोरेपन की क्रीम की तूती बोलती रहेगी। वे जारी रखेंगे अपने उपभोक्ताओं की हर एक कमज़ोरी को भुनाने का रवैया, उपभोक्ताओं को खबर भी न होगी कि कैसे उनका फायदा उठाया जा रहा है। अगर समाज में ऐसी भावना के अंश भी पनपते होंगे तो संदेह नहीं कि ये विज्ञापन इन्हें हवा दे कर दावानल बना देंगे, “भूलों नहीं कि सांवला रंग बदसूरती का सबब है और सांवलापन तुम्हारे सपनों की हर राह में रोड़े बन कर सामने आयेगा”। कुछ लोगों का मानना है कि भारतीयों की गोरे रंग की चाहत में कुछ भी गलत नहीं, यह वैसा ही है जैसा कि युरोपिय लोग “टैन” त्वचा की चाहत रखते हैं। यह भी कहा जाता है की समाज में बढ़ते खुलेपन से लोग अब शर्मोहया छोड़ कर गोरा रंग पाने की चाह का खुला इज़हार कर रहे हैं तो बुरा क्या है।

गोरे होने की मर्दाना चाह

यदि आप सोचते रहे कि गोरेपन की क्रीम के प्रयोक्ता सिर्फ औरतें हैं तो जागिये जनाब। कलकत्ता स्थित सौन्दर्य उत्पाद निर्माता कंपनी इमामी की खोज है कि आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में लड़कियों के लिये बनी गोरेपन की क्रीम के 26 फीसदी उपभोक्ता पुरूष हैं। तमिलनाडू में यह प्रतिशत 30 है। कंपनी ने इसलिये पुरुषों के लिये खास गोरेपन की क्रीम ही बना डाली है। बताया जाता है कि इस में स्त्रियों की क्रीम से हटकर “पेप्टाईड कॉम्पलेक्स” नाम एक पेंटेंटेड सफेदीकारक तत्व प्रयोग में लाया गया है जो मर्दों के लिये कथित रूप से उपयुक्त है। इस कथा के आपके ब्राउज़र तक पहुँचने तक इस उत्पाद, जिसका नाम “फेयर एंड हैंडसम” रखा जाने की संभावना है, के विज्ञापन भी शुरु हो जायेंगे। इमामी, जो गोरेपन की क्रीम के 20 फीसदी बाजार पर कब्जा जमाना चाहता है, का कहना है कि पुरुषों में सुंदर दिखने की बढ़ती चाह से पुरुष सौन्दर्य उत्पादों का बाज़ार अभी और रफ्तार पकड़ेगा।

भारत में त्वचा सुरक्षा के उत्पादों के बाज़ार का लगभग 60 फीसदी हिस्सा गोरेपन के उत्पादों का ही है। तकरीबन 820 करोड़ रुपये का बाज़ार, जिनमें हिंदुस्तान लीवर के 1975 से चला आ रहा “फेयर एंड लवली” और केविन केयर की “फेयर एवर” जैसे देशी उत्पादों के अलावा लॉरियाल व रेव्लॉन जैसे विदेशी उत्पाद, शहनाज़ हुसैन और “क्योर एंड लवली” जैसे मिलते जुलते नाम वाले नकली उत्पाद शामिल हैं। ऐसे में उत्पादों के विज्ञापन आक्रामक होते जा रहे हैं। विगत वर्षों में महिला संगठनों के विरोधी स्वरों के कारण हिंदुस्तान लीवर जैसी कंपनियों को “फेयर एंड लवली” जैसे अपने लोकप्रिय उत्पादों के कुछ विवादास्पद इश्तेहार वापस लेने पड़े हैं। लोगों को ऐतराज़ रहा है कि सामाजिक कलंक माने जाने वाले मुद्दे को मुनाफा कमाने का ज़रिया बनाया जा रहा है। बढ़ते विरोध से शायद यह बात भी लगे है कि समाज में भी रंग के प्रति चला आ रहा दकियानूसी रवैया आहिस्ता आहिस्ता बदल रहा है। पर गोरेपन के उत्पादों के लगातार उफनते बाजार से यह बात सच नहीं लगती और न ही अखबारों मे छपते शादी के वर्गीकृत विज्ञापनों से जिनमें, कभी साफ तो कभी छुपे तौर पर, “रंग” वांछित योग्यताओं में शुमार होता है। हाल यह है कि अब कुछ निर्माता सांवले युवकों के लिये खास गोरेपन के उत्पाद बाजार में ला रहे हैं (बाक्स आलेख देखें)।

जब हर कोने से लोग विरोध दर्ज करने लगे हैं तो अब विपणनकर्ताओं ने अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिये प्रयास करने शुरु कर दिये हैं, कुछ विज्ञापनों ने बात नर्मी से कहनी शुरु की है। “बिल्कुल, वह लड़का खुशनसीब है”, एक विज्ञापन का संदेश है, पर जो संदेश निहित है वह यह है कि यह “खुशनसीबी” तभी मिलती है जब लड़की गोरी बन गयी हो, नवीनतम गोरेपन की क्रीम से। पहले से ही दुर्बल स्त्री के लिये ऐसे प्रबल संदेशों का अर्थ होता है, आत्मस्वाभिमान का छिन्न भिन्न होना। विरोधी स्वरों को रोकने का एक और हास्यास्पद कदम है, 2003 में शुरु किया गया “ फेयर एंड लवली फाउंडेशन“, जिसका उद्देश्य है “स्त्रियों की आर्थिक रूप से समर्थता” को प्रोत्साहन देना। ध्यान देने की बात है, बाकी सब समान रहे तो “गोरे तन” से “आर्थिक सामर्थ्य” मिलता है। भई वाह!

“कुछ भी ऐसा नहीं जो बदला ना जा सकता हो”, एक लोकप्रिय गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन की पंक्ति कहती है। वाकई! लगता है सब कुछ बदल सकता है, सिवाय गोरी चमड़ी के प्रति हमारी उपनिवेशी चाहत को छोड़ कर।

मूल अंग्रेज़ी लेख से हिन्दी रूपांतरण, ग्राफिक्स व अतिरिक्त सामग्रीः देबाशीष चक्रवर्ती