Amrita Imroz

ब-जब भी दो विलक्षण प्रेमियों की बातें लिखी जाती हैं, तो आख्यान में एक अलग तरह का आवेग पाठक के मन में आ ही जाता है। उमा त्रिलोक की संस्मरणात्मक किताब अमृता इमरोज़ भी कुछ ऐसी ही है। इस किताब को पढ़ते हुए पाठक प्रेम और प्यार के दिव्य प्रकाश को अनुभव सा करने लगता है।

Book Reviewउमा ने अमृता से अपने सान्निध्य के बारे में इस पुस्तक में अति विस्तार से लिखा है – कैसे उनके मन में अमृता से मिलने की इच्छा हुई, कैसे वे उनसे पहली दफ़ा मिलीं, और फिर कैसे उनसे नियमित, निरंतर मिलते रहने का सिलसिला शुरू हुआ। पुस्तक में उन्होंने अमृता – इमरोज़ के प्यार, उनके सरल, सुलझे व्यक्तित्व का तरतीबवार वर्णन किया है। एक अंश –

एक बार मैंने इमरोज़ जी से पूछा, “आप जानते थे कि अमृता जी साहिर को प्यार करती थीं और फिर साजिद पर भी स्नेह रखती थीं। आपको कैसा लगता था?”

मेरे इस सवाल पर इमरोज़ जोर से हँसे और बोले, “मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ। एक बार अमृता ने मुझसे कहा कि अगर वह साहिर को पा लेतीं तो मैं उसे नहीं मिलता। तुम्हें मालूम है, मैंने क्या कहा? मैंने कहा, ‘तुम मुझे तो जरूर ही मिलतीं, चाहे मुझे तुम्हें साहिर के घर से निकालकर ही क्यों न लाना पड़ता।’ जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते की मुश्किलों को नहीं गिनते।” थोड़ी देर बाद कुछ सोचते हुए उन्होंने अपने अनोखे अंदाज में हौले से कहा, “तुम्हें पता है, जब मैं मुम्बई जा रहा था तब मुझे ही अमृता ने अपनी किताब साहिर को देने के लिए दी थी और मैं खुशी खुशी ले गया था”

फिर कुछ ठहरकर, कुछ सोचते हुए इमरोज़ ने कहा, “मुझे मालूम था अमृता साहिर को कितना चाहती थी, लेकिन मुझे यह भी बख़ूबी मालूम था कि मैं अमृता को कितना चाहता था।” (पृष्ठ – 43)

अमृता-इमरोज के बीच उनके डिवाइन लव यानी ईश्वरीय प्रेम के वर्णन को बहुत ही सहज ढंग से बयान करने में उमा सफल रही हैं। उन्होंने काफी सारा वक्त अमृता इमरोज़ के साथ बिताया है और उन पलों को बड़ी खूबसूरती से, बड़ी बारीकी से वर्णन किया है।

Amrita Imrozकहीं कहीं उमा एकल-बयानी करती भी दिखाई देती हैं। मैं अमृता जी से ऐसे मिली, मैं अमृता जी को इस तरह ले कर गई, एक दिन जब मैं अमृता के यहाँ थी…इत्यादि। अमृता इमरोज के बारे में इतना ज्यादा लिखा और छापा जा चुका है कि उनके जीवन का कोई पहलू पाठकों से अनछुआ सा नहीं रह गया है। वैसे भी अमृता-इमरोज ने बिंदास, पारदर्शी जीवन जिया है। लेखिका यहाँ पर सिर्फ अपने एकपक्षीय अनुभवों को बयान करती दीखती हैं। हाँ, उन्होंने अमृता-इमरोज के साथ अपने संस्मरण, उनसे बातचीत, उनके विचारों को भी पर्याप्त स्थान दिया है।

पुस्तक की भाषा सरल, पठनीय है। परंतु भाषा प्रवाह व कथ्य पाठकों को बाँध रखने में सक्षम प्रतीत नहीं होता। छोटे छोटे ढेरों अध्याय से पठन में निरंतरता नहीं बन पाती। संस्मरण लिखते समय अमृता का विशाल व्यक्तित्व लेखिका पर हावी रहा है और वे अपनी भाषा में से अमृता के प्रति आदरसूचक प्रतीकों को जरा ज्यादा ही प्रयोग करती दिखाई देती हैं जो त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती है। अमृता के प्रति आदरभाव को नकारा नहीं जा सकता, मगर जब बात संस्मरण लिखने की आती हो तो ‘थर्ड पर्सन’ रूप में लिखा गया पाठ निःसंदेह ज्यादा सहज रहता है।

कुल मिलाकर किताब अमृता के प्रशंसकों के लिए संग्रहणीय है। 120 रुपए मूल्य की 130 पृष्ठों की किताब की साज सज्जा, प्रस्तुतिकरण आकर्षक है।

एक आज़ाद रुह जिस्मानी पिंजरे से निकल, फ़िर आज़ाद हो गई

मा त्रिलोक की किताब को पढ़ना मुझे सिर्फ़ इसलिए अच्छा नही लगा की यह मेरी सबसे मनपसंद और रुह में बसने वाली कवियित्री अमृता के बारे में लिखी हुई है, यह पुस्तक मेरे लिये इसलिए भी ख़ास है क्योंकि इसको इमरोज़ ने ख़ुद अपने हाथों से हस्ताक्षर करके मुझे दी। उमा त्रिलोक ने इस किताब में उन पलों को तो जीवंत किया ही है जो इमरोज़ और अमृता की जिंदगी से जुड़े हुए बहुत ख़ास लम्हें हैं, साथ ही उन्होने इस में उन पलों को भी समेट लिया है जो अमृता जी की जीवन के आखिरी लम्हे थे। उन्होंने उस रूहानी मोहब्बत के जज़्बे को अपनी कलम से बख़ूबी बटोर लिया है।

उमा त्रिलोक के लेखन में इमरोज़ की पेंटिंग और अमृता की कविताओं व नॉवल के किरदारों में एक ख़ास रिश्ता जुडा हुआ सा दिखायी देता है…एक ऐसा प्यार का रिश्ता जिसे समाज की मंजूरी की ज़रुरत नही पड़ती।

मैंने इस किताब को पढ़ते हुए इसके हर लफ्ज़ को रुह से महसूस किया। उनके लिखे लफ्ज़ अमृता और इमरोज़ की जिंदगी के उस रूहानी प्यार को दिल के करीब ला देते हैं। उनके लेखन में इमरोज़ की पेंटिंग और अमृता की कविताओं और नॉवल के किरदारों में एक ख़ास रिश्ता जुडा हुआ सा दिखायी देता है…एक ऐसा प्यार का रिश्ता जिसे समाज की मंजूरी की ज़रुरत नही पड़ती है।

उमा की अमृता से हर भेंट रिश्तों की दुनिया का एक नया सफर होता। इस किताब में अमृता का अपने बच्चों के साथ व इमरोज़ का उनके बच्चों से रिश्ता भी बखूबी बयां किया गया है। उमा उनसे आखरी दिनों में तब मिलीं जब वह अपनी सेहत की वजह से परेशान थीं। ऐसे में उमा, जो एक रेकी हीलर भी हैं, को अमृता के साथ रहने का मौका मिला। उन्होंने अपने अंतिम दिनों की इमरोज़ के लिए लिखी कविता “मैं तेनु फेर मिलांगी” का अंग्रेज़ी अनुवाद करने की बात कही। उन आखिरी लम्हों में इमरोज़ के भावों को उन्होंने बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है। उमा ने सही लिखा है कि प्यार में मन कवि हो जाता है। वह कविता को लिखता ही नहीं, कविता को जीता है। शायद तभी उमा के संवेदना जताने पर इमरोज़ कहते हैं कि एक आज़ाद रुह जिस्म के पिंजरे से निकल कर फ़िर से आज़ाद हो गई।

अमृता इमरोज़ के प्यार को रुह से महसूस करने वालों को यह किताब शुरू से अंत तक अपने लफ्जों से बांधे रखती है। और जैसे जैसे हम इस के वर्क पलटते जाते हैं उतने ही उनके लिखे और साथ व्यतीत किए लम्हों को ख़ुद के साथ चलता पाते हैं।

समीक्षक – रंजना भाटिया