आशीष श्रीवास्तव

दोस्तों के बीच झालिया नरेश या आमगाँव के ज़मींदार तथा चिट्ठाकारों के बीच चिरकुंवारे के रुप में जाने जाने वाले और लोकप्रिय चिट्ठे खाली-पीली के रचयिता आशीष श्रीवास्तव का जन्म 19 अक्टूबर, 1976 को छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में अपने ननिहाल में हुआ। बचपन विदर्भ के पिछड़े क्षेत्र गोंदिया जिले की सालेकसा तहसील के एक गाँव झालिया में ऊधम-मस्ती करते हुये बीता। प्राथमिक शिक्षा झालिया में और माध्यमिक शिक्षा दो किमी दूर कावराबांध गाँव में हुयी जहां पिताजी अध्यापक थे। उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पास के कस्बे आमगाँव में हुयी। गोंदिया से संगणक प्रौद्योगिकी में अभियांत्रिकी स्नातक आशीष ने कॉलेज के दिनों में एक संगणक प्रशिक्षण केंद्र में अध्यापन कार्य भी किया।

दस सवाल

ब्लॉग लिखना कैसे शुरू किया?
रविजी का लेख पढा था -अभिव्यक्ति पर। बस उसी के बाद चिठ्ठे पढना शुरू किया। कुछ दिनों बाद लगा कि चलो खुद भी लिखने की कोशिश करते है और शुरू हो गये। लिखने का कीड़ा पहले से था, अब डायरी से हटकर नेट पर आ गया।

पहला ब्लॉग कौन सा देखा?
पहला ब्लॉग ठीक तरह से तो याद नहीं लेकिन शायद चिठ्ठा विश्व से शुरूवात की थी। शुरूवाती ब्लॉग में फुरसतिया, रवि जी, रमण कौल और ठेलुहा नरेश तथा अतुल जी के चिठ्ठे ही थे। बाद में अक्षरग्राम और रमण जी की सूची से दायरा बढ़ता गया।

नियमित रूप से ब्लॉग कैसे देखते हैं?
नारद का फ़ीड फायरफ़ोक्स के RSS प्लग-ईन में जोड़ दिया है, जो पूरे दिन मुझे हर नयी प्रविष्टि के बारे में बताता रहता है।

लेखन प्रक्रिया क्या है? सीधे लिखते हैं कंप्यूटर पर या पहले कागज पर?
मैं सीधे कंप्यूटर पर ही लिखता हूं, पेन से लिखना छूट गया है। कागज पर मेरी लिखावट तो ‘आप लिखे खुदा बांचे’ की हालत में है।

सबसे पसंदीदा चिट्ठे कौन हैं?
लगभग सभी। लेकिन फुरसतिया , सुनील दीपक, जीतू, अतुल, रमणप्रमुख है, इस सूची में। अब निधि भी शामिल हैं। ठेलुहा का लिखना बंद करना अच्छा नही लगता है। कविताओं मे प्रत्यक्षा और अनूप भार्गव पसंद आते हैं।

कोई चिट्ठा खराब भी लगता है ?
नहीं, ऐसा कोई चिट्ठा तो नही है लेकिन कुछ प्रविष्टियां अच्छी नही लगती है। विशेषत: जिसमें बिना सोचे-समझे, बिना ठोस तथ्यों के भावनात्मक रूप से अनाप-शनाप लिख दिया गया हो। उदाहरण के लिये भारत को इजराईल के जैसे व्यवहार करने की सलाह देने वाला चिठ्ठा।

टिप्पणी न मिलने पर कैसा लगता है?
बुरा तो लगता है। लेकिन ये भी सच है कि जिस चिठ्ठे पर मैंने सबसे ज्यादा टिप्पणी की उम्मीद की उसी पर कम मिली और हल्के फुल्के ढंग से लिखे चिठ्ठों पर ढेर सारी।

अपनी सबसे अच्छी पोस्ट कौन सी लगती है?
सभी लेकिन ये दो चिठ्ठे अच्छे लगते है एक हल्के फुल्के मूड का और दूसरा गंभीर मूड का एक क्वांरे की व्यथा और क्या इन्सान जानवरों से भी गया गुजरा हो गया है?। ये मेरे दिल की एक ऐसी भड़ास है जिससे मैं बचना चाहता हूं लेकिन नहीं बच पाता हूं।

और सबसे खराब?
आदर्श प्रेमिका के गुण। इस पर मुझे अच्छी खासी टिप्पणियां भी मिली लेकिन पहली बार मैंने इस प्रेम को माना। ये मेरे जीवन का एक ऐसा हिस्सा है जिससे मैं हमेशा कतराता रहा। इसका दूसरा भाग लिखने के बाद भी मैंने प्रकाशित नही लिया है।

चिट्ठा लेखन के अलावा और नेट का किस तरह उपयोग करते हैं?
नेट तो मेरी रोजी रोटी का सवाल है। मैं एक वेबानुप्रयोग विशेषज्ञ हूं, गूगल देव का भक्त, जावा का मास्टर। जावा ऐसे भी मुक्त श्रोत के लिये जानी जाती है, जिसमें मेरी हर परेशानी का हल नेट पर ही होता है। चिट्ठों के अलावा मैं जावा फोरम में भी सक्रिय सदस्य हूं।

स्नातक होने के बाद शुरू हुयी यायावरी। पहली नौकरी मुंबई में, दूसरी दिल्ली, तीसरी गुडगाँव और चौथी चेन्नई में। इन सभी जगहों पर काम करते हुये दुनिया की भी सैर जारी रही। अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान और मॉरीशस घूम (काम कर) आये

अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।

स्वप्नदर्शी आशीष ने बचपन से ही ऊंचे सपने देखने शुरू कर दिये थे:

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ में इम्तिहाँ और भी हैं
तू शहीन है परवाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आसमाँ और भी हैं।

विवेकानंद को अपना आदर्श मानने वाले तथा बचपन में आर्य समाज, आर.एस.एस. (आमगाँव संघ का गढ़ है) से जुड़े रहे आशीष अब नास्तिक होते जा रहे हैं। राहुल सांकृत्यायन के जीवन से ‘काफी प्रभावित’ आशीष का प्रिय ‘नारा’ है:

सैर कर दुनिया की गाफिल, ज़िंदगानी फिर कहां,
ज़िंदगानी गर कुछ रही, तो नौजवानी फिर कहां।

आशीष के शौक गिने चुने ही है- पढना, संगीत सुनना और अपनी फटफटिया पर आवारागर्दी करना। कल्लो बेगम (उनका कम्प्यूटर) से प्यार अब ढलान पर है।

आशीष खुद के बारे में बताते हुये कहते हैं:

दोस्तों में अच्छा खासा लोकप्रिय हूँ, या यूं कह लीजिये महफिलों की जान हूँ। जहां जाता हूँ वहाँ हंसी के फव्वारे छूटते रहते हैं। बदकिस्मती से लडकियां कुछ ज्यादा ही पसंद करती हैं। मेरे अच्छे दोस्तों में लडकियाँ ही ज्यादा है, फिर भी अब तक कंवारा हूँ।

मैं डार्विन के सिद्धांत “सर्ववाईवल आफ द फिटेस्ट” पर विश्वास करता हूँ। हर एक को जीवन के लिये संघर्ष करना पड़ता है, जो अपने आपको वातावरण के अनुकूल कर लेता है वही इस संघर्ष में विजयी होता है। मैं ज़माने के अनुसार ढलने की बजाये ज़माने को ढालने में विश्वास रखता हूँ।

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती।

डर लगता है असफलता से। निजी जीवन में जरूर कुछ असफलतायें झेली है लेकिन व्यवसायिक जीवन में अब तक असफलता नही देखी है। थोडा सा जिद्दी हूँ, थोडा गुस्सैल भी। अभिमान की हद तक स्वाभिमानी हूँ। देश और मातृभाषा के विरोध में कुछ भी सुनना पसंद नही। इस पर हमेशा लड़ते रहता हूँ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।।

आध्यात्म से लेकर क्वाँटम भौतिकी तक, गल्प विज्ञान से लेकर प्रेम कहानी तक सब कुछ पढ़ने के शौकीन आशीष को लिखने से ज्यादा पढ़ने का शौक है। कभी कभार तुकबन्दी भी कर लेते हैं। अपने लिखने के अंदाज के बारे में बताते हुये आशीष कहते हैं:

लिखने का तो ऐसा है कि बस बिना सोचे जो मन में आया लिख लिया। जब भी कुछ सोच कर, योजना बनाकर किसी विषय पर लिखने की सोची, आज तक उसे लिख नही पाया। लोगों को अपनी बातों में बांधे रखने में मेरा जवाब नहीं है,
बिना किसी विषय के घंटों बोल सकता हूँ।

जो मन में आया सो लिख दिया के साथ यह भी सच है कि आशीष अपनी अभिव्यक्ति की सड़क पर विचारों की फटफटिया दौड़ाते समय वर्तनी के स्पीड ब्रेकर की चिंता छोड़ “लीखते रहाते हैं। जिवन में चुंकि बहुत कूछ करना है।”

आमतौर पर नायिकायें नायकों के प्रेम निवेदन ना-नुकुर के बाद स्वीकार करती रहीं हैं लेकिन इनके मामले में कुछ उल्टी हवायें बहीं।

ब्लॉगिंग की शुरुआत में अमरिकी प्रपंच के बारे में बताना शुरू करके आशीष प्रेम-प्रपंच के बारे में प्रवचन करते हुये कन्या-पुराण बाँचते रहे। सब लोगों को बताते रहे कि कितने अवसरों पर वो अपना कुंवारेपन का विकेट बचाये रहे। किसी भी कन्या द्वारा इनको अपने दिल का राजा बनाने की साजिश सूंघते ही आशीष ने झट से उसका गाडफादर, बोले तो फ्रेंड फिलासफर एंड गाइड, बनकर साजिश विफल कर दी। आमतौर पर नायिकायें नायकों के प्रेम निवेदन ना-नुकुर के बाद स्वीकार करती रहीं हैं लेकिन इनके मामले में कुछ उल्टी हवायें बहीं सो इन्होंने भी सरफिरेपन का बखूबी परिचय देते हुये लैला के गाल लाल कर दिये। इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा जब ये एक बार खुद लटपटाये तो समय और इसके संस्कारों ने इनको सफल नहीं होने दिया। तब से ये कुंवारेपन का झण्डा लहराते हुये घूम रहे हैं- नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे। हास्यव्यंग्य के किस्से सुनाते हुये आशीष अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते रहते हैं।

बताने वाले बताते हैं कि ‘कल्लो बेगम’ के पुराने आशिक आशीष का हाथ कम्प्यूटर पर काफी साफ है लेकिन अभी तक इस दिशा में हिंदी ब्लॉगिंग से संबंधित किसी भी उल्लेखनीय तकनीकी योगदान की जिम्मेदारी से आशीष हाथ झाड़ रखे हैं। शायद आगे कुछ जौहर दिखायें।

स्वप्नदर्शी, आत्मविश्वासी, बहुमुखी प्रतिभा वाले, उदारमना आशीष की कितनी ही ख़्वाहिशे हैं, कितने ही सपने पूरे करने है:

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसीं, के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

निरंतर परिवार की तरफ से आशीष की हर ख्वाहिश, हर तमन्ना, हर सपना पूरा होने की हार्दिक मंगलकामनायें। कामना यह भी कि इनका लेखन निरंतर प्रवाहमान रहे तथा वे अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में सक्रिय योगदान कर सकें।