कविताएँ

तीन चाँद

अतुल के एक मित्र को अपने साले की शादी में शुभकामना गीत गाने की जबरन जिम्मेदारी दी गई। मित्रमंडली में एकमात्र उनका ही साहित्य से दूर का नाता ठहरा। अतुल कहते हैं, “कविता रचना कुछ मुश्किल सा काम है। बहरहाल, जो भी तुकबंदी लिखी उन्हें पसंद आ गयी और वह ले गये मेरी कविता।” अब उनके मित्र का साले की शादी में क्या हश्र हुआ वह तो अतुल से ही पूछियेगा उनकी कविता यहाँ प्रस्तुत है।

प्यारे साले साहब, आप बड़े खुश दिख रहे हैं!
आप ही नहीं, ससुर जी और बाराती भी हँस रहें हैं!
Vatayanपर जनाब! ये इसलिए खुश दिख रहें है क्योंकि आप फँस रहे हैं।
इनकी हँसी पर मत जाइये,
अभी भी वक्त है, सँभल जाईये।
तुर्शीदार मूँछो वाले यह सब क्या बबर शेर हैं?
जी नहीं! यह तो सर्कस वाले कागजी शेर हैं।
इनका उठना-बैठना, खाना-पीना, हँसना-बोलना, सब रिमोट से चलता है।
गर यह न सुने तो इनकी होममिनिस्टर का कोड़ा चलता है।
बाहर यह सब भले ही इतरा के चलते हैं,
पर क्या आपको पता है कि घर से घोड़े का चश्मा लगा के निकलते हैं?
आपके फँसने की खबर सुन हम भागे-भागे आये हैं।
आप किसी की कातिलाना मुस्कान के, झाँसे में न फँसे यह बताने आये हैं।
और हम खाली हाथ नहीं आये है।
बाहर हमारी मारूति वैन खड़ी है।
जिसमें आपके लिए होनोलूलू की टिकट पड़ी है।
अभी भी वक्त है संभल जाईये।
किसी की नाज़नीन मुस्कुराहट पर मत जाईये।
मौका मिलते ही पतली गली से निकल जाईये।
पर कहते हैं, पाँचो अंगुलियाँ एक सी नही होती,
हरेक की तकदीर आप सी बुलंद नही होती।
हो सकता है आप कुछ कर-गुजर जायें।
सर्कस के शेर बनते बनते बबर शेर ही बन जायें।
अगर आप ओखली में सर देने को तैयार हैं,
तो हम भी आपके साथ बिल्ली के गले में घंटी बाँधने को तैयार हैं।
आप संघर्ष करिए, हम आपके साथ हैं।
वैसे चिंता न करिए, समधी जी आपके सालों की फौज के साथ दरवाजे पर तैनात हैं।
हम दुआ करते हैं कि भले ही आपके सारे बाल गिर जायें।
पर आप अपनी शादी की पचासवीं सालगिरह अपनी छत पर चाँदनी रात में मनायें।
उस मुबारक रात के लिए हम अपना शुभकामना संदेश अभी से लिख अपने पास रखे हैं।
जिसके बोल यह कहते हैं,
आज रात तीन चाँद खिले हैं।
एक आसमां में, एक घूँघट में और एक…

[रचनाकारः अतुल अरोरा]


महानगर

महानगरयह है मेरा शहर, यह है एक महानगर।
धुल की गर्द के तले धुएँ से सराबोर,
विज्ञापन होर्डींग की होड़ में रचा,
कूड़े के ढेर में भविष्य तलाशते बच्चों से अटा,
गंध कीचड़ में बसी बस्तियों से कलंकित,
फ्लाईओवर की ओट में बसे याचकों से त्रस्त।
शहर जहाँ हर चीज बिकाउ है
रोटी, इत्र, हाड़ माँस का इंसान भी!
जहाँ चरमराते कंधों पर जीवन का बोझा ढोता
हर बाशिंदा एक अभिमन्यू है।
जीवन के कालापानी को भोगता
जो हर नयी सुबह पर अथाह विश्वास से,
उठता है, जूझता है, जीतता और हारता है।
शहर जिस तक आम जानकारी की परिधि है
टी.वी. पर चार महानगरों का तापमान।

[रचनाकारः देबाशीष चक्रवर्ती]


लघुकथा

प्रशिक्षु : दृश्य एक

उसने मरीज की नब्ज देखी जो महसूस नहीं हुई, दिल की धड़कनें सुनीं जो गायब थींडॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के उपरांत एक साल के प्रशिक्षु कार्य के लिए मन में उमंग लिए हुए उसने एक वृहदाकार, प्रसिद्ध, निजी अस्पताल में अपनी सेवा देना चाहा। पहले ही दिन उसकी रात्रिकालीन ड्यूटी के दौरान नगर के एक प्रतिष्ठित, सम्पन्न परिवार के मुखिया को आकस्मिकता में अस्पताल लाया गया। मरीज को दिल का भयंकर दौरा पड़ा था और मरीज के अस्पताल पहुँचने से पहले ही यमदूत अपना काम कर गए थे। उसने मरीज की नब्ज देखी जो महसूस नहीं हुई, दिल की धड़कनें सुनीं जो गायब थीं और घोषित कर दिया कि मरीज को अस्पताल में मृत अवस्था में लाया गया।

मरीज के सम्पन्न परिवार जनों को यह खासा नागवार ग़ुजरा और उन्होंने हल्ला मचाया कि मरीज का इलाज उचित प्रकार नहीं हुआ और एक प्रशिक्षु के हाथों ग़लत इलाज से मरीज को बचाया नहीं जा सका।

अगले दिन अस्पताल के मालिक-सह-प्रबंधक ने उस प्रशिक्षु को बाहर का रास्ता दिखा दिया।

प्रशिक्षु: दृश्य दो

डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के उपरांत एक साल के प्रशिक्षु कार्य के लिए मन में उमंग लिए हुए उसने एक वृहदाकार, प्रसिद्ध, निजी अस्पताल में अपनी सेवा देना चाहा। पहले ही दिन उसकी रात्रिकालीन ड्यूटी के दौरान नगर के एक प्रतिष्ठित, सम्पन्न परिवार के मुखिया को अस्पताल लाया गया। मरीज को दिल का भयंकर दौरा पड़ा था और मरीज के अस्पताल पहुँचने से पहले ही यमदूत अपना काम कर गए थे। उसने मरीज की नब्ज देखी जो महसूस नहीं हुई, दिल की धड़कनें सुनीं जो नहीं थी। उसका दिमाग तेज़ी से दौड़ा। मरीज का परिवार शहर का सम्पन्नतम परिवारों में से था। उसने तुरंत इमर्जेंसी घोषित की, मरीज के मुँह में ऑक्सीजन मॉस्क लगाया, दो-चार एक्सपर्ट्स को जगाकर बुलाया, महंगे से महंगे इंजेक्शन ठोंके, ईसीजी, ईईजी, स्कैन करवाया, इलेक्ट्रिक शॉक दिलवाया और अंतत: बारह घंटों के अथक परिश्रम के पश्चात् घोषित कर दिया कि भगवान की यही मर्जी थी।

मरीज के सम्पन्न परिवार जन सुकून में थे कि डाक्टर ने हर संभव बढ़िया इलाज किया, अमरीका से आयातित 75 हजार रुपए का जीवन-दायिनी इंजेक्शन भी लगाया, पर क्या करें भगवान की यही मर्जी थी।

अगले दिन अस्पताल के मालिक-सह-प्रबंधक ने मरीज के बिल की मोटी रकम पर प्रसन्नतापूर्वक निगाह डालते हुए उसे शाबासी दी- वेल डन माइ बॉय, यू विड डेफ़िनिटली गो प्लेसेस

[रचनाकारः रविशंकर श्रीवास्तव]