कितना बोलती हो सुनन्दा!
फुदक रही हो सुबह से,
चाची के घर तक जाती हो तो
लड़ने लगती हैं सीटियाँ,
सब गुत्थमगुत्था,
तुम अनजान,
मुस्कुराकर माँगती हो उड़द की दाल।
कितना बोलती हो सुनन्दा
जैसे नया नया पढ़ना सीखने के दिनों में
बोल बोलकर अख़बार पढ़ती हो,
दिन में तीन वक़्त आता हो अख़बार।
गली में से गुजरते हुए
सब पूछते हैं तुमसे ही पता
शिक्को हलवाई का,
तुम बताती रहती हो
बिजलीघर से बाएँ,
फिर हनुमान मन्दिर,
फिर नाई की दुकान,
सामने शिक्को हलवाई।
खरबूजे के मौसम में
बीकानेरी रसगुल्लों की तरह
हुलसी फिरती हो,
तुम्हारे लहंगे ने बुहार दिया है
सुबह से पूरा घर।
चौके में से चम्मच
चोंच में दबाकर उड़ गया है कौआ,
तुम दीवार पर कुहनी टिकाकर
हँस-हँसकर बता रही हो
कि कौन आने वाला है!
कहाँ से लाती हो
इतनी किलकारियाँ भरते शब्द
कि सब खरीदकर ले आए हैं डिक्शनरी,
बोलती हो तो
तुम्हारे होठों में पड़ते हैं
डिंपलिया गड्ढे,
कितना बोलती हो सुनन्दा
कि मोहल्ले में अफीम बिकनी
बन्द सी हो गई है।
2
चाँद बहुत दूर है,
बसों की भी हड़ताल है,
कोई कब तक पीता रहे
रूखी आशाएँ?
साल भर ही तो बीता है
जब तीज पर
कलाई तक मेंहदी लगे हाथों से
तुम पोंछ दिया करती थी
गाँव भर के माथे की सलवटें।
कहाँ गया वो जादूगर किराएदार
बिना नोटिस के
तुम्हारी आँखें खाली करके,
भड़ भड़ बजते रहते हैं
खाली चौबारे के किवाड़।
बेसुध सी डगमगाती हुई चलती हो
और उस पर भी ठहर जाती हो
फ़िल्मों के पोस्टर देखकर
उदास पानी की तरह।
भला कहाँ करता होगा कोई इतना प्यार
कि बिछुड़ने की सालगिरह पर
सूजी का हलवा बनाते हुए
गर्मजोशी से गुनगुनाता रहे
‘मैं तैनू फेर मिलांगी’,
ऊपर वाले शेल्फ में
काँच की डिब्बी में रखा रहे
शांत सा पोटेशियम सायनाइड,
जिस पर चिप्पी लगाकर लिखा हो
मीठा सोडा।
श्श्श्श्श….
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