सफल-असफल बनने की सत्य तथाकथा
रवि रतलामी के हाथ वो नुस्ख़ा लग ही गया जिससे वे महान ही नहीं, महानतम बन गये
लेखकः रविशंकर श्रीवास्तव | July 12th, 2008
वन के चार दशक गुजार लेने के बाद पीछे मुड़कर जब मैंने देखा तो पाया कि मैं सफल तो कतई नहीं कहलाऊंगा। जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता के कोई खास झंडे गाड़े हों, जब मुझे दिखाई नहीं दिया तो मैं उदास हो गया। इसी उदासी में मैं टहलने निकल गया। सोचा था इस उदासी को गायों-गोल्लरों, ट्रैफ़िक और धूल भरी सड़कों में उड़ाकर आ जाऊंगा। वैसे भी, ऑटो-टैम्पो और सड़क के दोनों ओर रेहड़ी-खोमचे-ठेलों की भीड़ के बीच यदि आप सकुशल एक दो किलोमीटर की यात्रा बिना ठुके-ठोंके सप्रयत्न कर आएं, तो आपकी उदासी यकीनन कई दिनों के लिए छूमंतर हो जाएगी।
सड़क में एक सांड के सींग से बचने की कोशिश में मैं सीधे एक फेरी वाले के ठेले के ऊपर जा गिरा। वो कुछ सज्जन किस्म का आदमी था जिसने मुझे पलट कर गालियाँ नहीं दीं और मुझे तत्परता से उठाया। मेरी भी सज्जनता कुछ जागी और मैं ठेले पर विक्रय के लिए रखी सामग्रियों को उचटती निगाह से देखने लगा। वो किताब की दुकान थी। तमाम तरह की किताबें विक्रय के लिए उपलब्ध थीं। उन सबमें सबसे ऊपर एक किताब का चमकीला शीर्षक चमक रहा था – “उठो महान बनो”।
आह! यही तो मैं खोज रहा था। मैं सफल बनना चाह रहा था, महान बनना चाह रहा था। जरूर इस किताब में महान बनने के सस्ते सुंदर सरल तरीके होंगे। मेरी आंतरिक खुशी जाग उठी। मुझे लगा कि मेरे पास महान बनने का हथियार आ गया है। कांपते हाथों से मैंने उस किताब को उठाया। डरते डरते उसकी कीमत देखी – कहीं यह हजारों में न हो – महान बनाने वाली महान किताब कहीं कीमत में भी महान न हो। कीमत से तसल्ली हुई। वो जेब पर बहुत भारी नहीं हो रही थी। मैंने तत्काल उसे खरीद लिया और सीधे घर की ओर वापस लपका।
अब मेरे महान बनने में चंद लमहों की ही देरी थी। किताब का आद्योपांत पाठन करना था। चंद बातों को जीवन में उतारना था और बस हो गया। लौटते समय मेरे कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। कल्पना में मैंने देखा कि मैं महान से महानतम बन गया हूं और तमाम दुनिया के लोग मेरे अनुयायी बन गए हैं और मेरे जयकारे लगा रहे हैं। घर आकर मैंने बीवी की ओर हिकारत भरी नजरों से देखा कि वो हमेशा मुझे मेरी औकात से कम आंका करती है, मेरी असफलताओं पर टोकती रहती है, मेरे निठल्लेपन के ताने कसती रहती है, अब देखना – तेरा वही निठल्ला पति देखते देखते ही कैसे महान बनता है।
नहा-धोकर, किताब में धूप-बत्ती देकर उसका पारायण प्रारंभ किया। आंखें मुंद रही थीं, सिर भारी हो रहा था, मुँह से उबासी दूर हो नहीं रही थी, मगर मैं किताब पढ़ता रहा। इतनी गंभीरता से तो मैंने अपने बोर्ड के इम्तिहान की पढ़ाई भी नहीं की थी। मगर यहाँ मामला महान बनने का जो था। सो गुंजाइश ही नहीं थी। अठारह घंटे छत्तीस मिनट में किताब एक ही बैठक में आद्योपांत पढ़ गया। इस बीच कोई छब्बीस कप कॉफ़ी के उदरस्थ कर लिए और बीबी के छः ताने और स्मित हास्य के कोई आठ वार भी झेल लिए। किताब को मैंने पूरा पढ़ लिया था। उठो महान बनो। अब मैं उठ सकता था। मैं उठा और सीधे बिस्तरे पर जा गिरा। उसके बाद दो दिनों तक सोता रहा।
उठो महान बनो नाम की किताब पढ़ने के महीनों बीत जाने के बाद भी मुझे मेरी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। मैंने तो उसमें बताए तौर तरीकों को अपने ऊपर ओढ़ने आजमाने की ईमानदार कोशिश की थी। मगर महानता शायद मुझसे कोसों दूर थी। या इस शब्द से मेरा छत्तीस का आंकड़ा था। मैं फिर से गहन उदासी के दौर में फंस गया था।
मैं एक बार फिर उदासी दूर करने घूमने निकला तो अपने आपको उसी किताब दुकान पर पाया। इस दफ़ा सबसे ऊपर एक किताब चमकती दिखाई दे रही थी – “बेस्ट सेलर – कैसे पाएं सफलता।” वल्लाह! क्या किताब है। एकदम सही। सही समय पर सही किताब मिली मुझे। मैं अब तक हर क्षेत्र का असफल आदमी सफलता ही तो चाहता था। मुझे लगा कि दुनिया का हर सफल आदमी इस किताब में से होकर निकला है। और अब मेरी बारी है। मैंने अपनी जेब कुछ ढीली की और इस किताब को ले आया।
इस दफ़ा मैंने इस किताब के हर हिस्से को गौर से पढ़ा। ये नहीं कि अखंड-रामायण पाठ की तरह एक बैठक में पढ़ मारा। मैंने नोट्स बनाए, सूत्रों को, वाक्यांशों को रटा। मुझे लगा कि मेरी सफलता में अब बस आठ-दस दिनों की देरी है। मगर सूरज रोज सुबह उगता रहा और चन्द्रमा की कलियाँ रोज ब रोज कम होती रहीं – उसी रफ़्तार से। उनमें भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ और मेरी सफलता में भी बाल बराबर फर्क नजर नहीं आया। मैं फिर निराश हो गया।
निराशाओं के ऐसे दौर आते रहे और मैं अपनी निराशा दूर करने सड़क नापता रहा, सांड के सींग खाता रहा, और किताब दुकान पर गिरता रहा। वहां से अपने आपको बदलने के लिए, सफल होने के लिए, धनी बनने के लिए, स्मार्ट बनने के लिए, सुखी बनने के लिए, व्यवहार कुशल बनने के लिए तमाम किताबें लाता रहा, और पढ़ता रहा। मगर परिस्थितियों को नहीं बदलना था सो नहीं बदलीं। मेरे घर के दरवाजे की दिशा दक्षिण की ओर थी और वो भी वैसी ही बनी रही।
घोर निराशा में मैंने इन सारी किताबों को एकत्र किया और उस दुकान में वापस फेंकने के लिए ले गया। मैंने किताबों का गट्ठर उसके ठेले पर दे मारा। मारे क्रोध के मेरा माथा भन्ना रहा था मैं उसे क्रोध में कुछ बोलता – कि वो कैसी अनुपयोगी, बेकार, रद्दी अप्रभावी किताबें बेचता है – सामने एक नई नवेली चमचमाती किताब पर मेरी नजर पड़ी। किताब का नाम था – “चिंता छोड़ो सुख से जिओ”। आह! तो ये है अल्टीमेट, अंतिम किताब। मेरा गुस्सा काफूर हो गया। मैंने तत्काल उसे खरीदा और प्रसन्न मन घर वापस आया।
मेरी निराशा दूर हो चुकी है। हमेशा के लिए। ऐसा नहीं है कि मैंने किताब का पाठ कर लिया है और उसे पूरा पढ़ लिया है और उसके उपदेशों को जीवन में उतार लिया है। दरअसल, जब भी मैं उसे पढ़ने के लिए उठाता हूं, और उसका शीर्षक पढ़ता हूँ, मेरी सारी दुश्चिंताएं हवा में विलीन हो जाती हैं। मैं सारी चिंता वहीं छोड़ देता हूं – उस किताब को पढ़ने की चिंता को भी और मैं सुख से जीने लग जाता हूं। किताब को मैंने अपने इबादतगाह में सबसे ऊपर रख दिया है और इसका शीर्षक ही मुझे रोज-ब-रोज, हर वक्त प्रेरित करता रहता है। यह वो किताब है – ओह माफ कीजिए, यह किताब का वो शीर्षक है, जिसने मेरे जीवन में सर्वाधिक प्रभाव डाला है। जय हो।
मैं सफल हो गया हूँ। मैं महान हो गया हूँ। मैं धनवान, अरबपति हो गया हूँ – क्योंकि अब मैं इन बातों के लिए कतई कोई चिंता नहीं करता।
आप बताएं, क्या आप चिंता करते हैं? यदि हाँ, तो मेरी सलाह मानें – “चिंता छोड़ो सुख से जियो” नाम की यह किताब खरीद लाएं। पढ़ने व आत्मसात करने के लिए नहीं, उसकी पूजा करने के लिए – जैसे कि मैं करता हूं।
आपके द्वारा, मेरे ब्लाग पर प्रतिक्रिया देना अच्छा लगा, आपका परिचय जानकर और भी अच्छा लगा, मैं कल्पना भी नही कर सकता की लिनक्स जैसे जटिल कार्य का हिन्दी रूपांतरण भी रवि श्रीवास्तव ने किया है! शुभकामनायें !
I really enjoyed it reading in Hindi. Keep serving by writing and publishing good work.