अभी हाल ही में महिलाओं कि एक पत्रिका में हमने पढ़ा कि एक हजरत, टी.वी. पर अपना फेवरिट कार्यक्रम देखकर इतना हँस, इतना हँसे कि उनके प्राण पखेरू ही उड़ गए। बेचारे! वैसे उनके बेगम ने ठीक किया जो फौरन उस टी.वी केंद्र को एक शुक्रियानामा प्रेषित कर दिया कि "जनाब यूँ मेरी जिंदगी तो स्याह हो गई पर जो भी हो आपको धन्यवाद कहना अपना दिली फर्ज मानती हुँ क्योंकि आपके कार्यक्रम की बदौलत कम से कम मेरे शौहर हँसते हँसते खुदा को प्यारे हुए।"

हमने जरा अपनी बत्तीसियों को कसरत कराई नहीं कि बस सभी हमें यूँ घूरने लगते हैं जैसे पेट्रोल के दाम बढ़ाते ही वामपंथी दल मनमोहन सरकार को आँखे तरेरता है।

अब काश, कि हमारी बीवी यह पढ़ती और सबक लेती। आप ही बताइए भला हँसने से किसी का क्या नुकसान हो सकता है? पर हमारे यहाँ क्या पत्नी, क्या बच्चे। हमने जरा अपनी बत्तीसियों (फिलहाल न जाने कितनी बची हैं!) को कसरत कराई नहीं कि बस सभी हमें यूँ घूरने लगते हैं जैसे पेट्रोल के दाम बढ़ाते ही वामपंथी दल मनमोहन सरकार को आँखे तरेरता है। सभी हमारे इस गुडविल जेस्चर को उतना ही गुनाह मानने लगे हैं जैसे कर्फ्यु के दौरान चहारदिवारी फाँदकर बाहर आना। न जाने यह सिला किस जनम के कर्मों का है! अव्वल तो घर वाले हमें किसी भी सेंसिटिव समारोह में ले जाना ही नही चाहते और जो सौभाग्यवश हमें परमिट मिल भी जाए तो वयस्क बेटा और बेटी दोनों हमारी हँसी पर राशन लगा दिया करते हैं, हँसने से पहले आँखों ही आँखों में स्वीकृति का मौन आवेदन करना पड़ता है। उन्हें (और खुद हमें भी) हमेशा यह खटका लगा रहता है कि हमारी हँसी किसी प्रोहिबिटेड जोन में न फूट पड़े और यदाकदा हँसने के लिये हमें हरी झंडी जब दिखाई जाती तो अक्सर हमारा मूड ही उचट चुका होता है।

हमारी इस दयनीय स्थिति का बेहतर जायजा लेने के लिए जरूरी है कि आपको हमारी स्टोरी का फ्लैश बैक बतलाया जाए। दरअसल स्कूली दिनों में तो आज के ठीक विपरीत, हमारा "सेंस आफ ह्यूमर" काफी पुअर रेट किया जाता रहा। हमारे सहपाठी कोई भी "वन लाईनर लतीफा" (जैसे कि दो सरदारजी शतरंज खेल रहे थे) सुनाने के बाद हमारा चौखटा निहारते और इससे पहले कि स्थिति का इंडिया टी.वी.नुमा विश्लेषण करके हम हँसी का स्विच आन करते, ये जुमला भी जोड़ देते, "ये परसों हँसेगा"। इसके साथ ही छूटे ठहाकों के बीच हमारा मन तो जार जार आँसू बहाने का हो आता। कभी गलती से हम यदि किसी चुटकुले का अर्थ भाँपकर हँसने की कोशिश कर बैठते तो वही मित्र कह उठता,"क्यों परसों वाला मजाक अब समझ आया!"

फिर उस दिन हमने सीरियसली विचार किया कि आखिर किस खेत कि मूली है ये हास्य व्यंग्य जो मरदूत हमारे भेजे में आयकर नीतियों कि तरह उतरना ही नही चाहता! बस समझिये उसी दिन से हमने कमर कस ली और हास्य को अपने दैनिक रूटीन में ही शामिल कर लिया। सभी पत्रिकाओं के व्यंग्य स्तंभ जैसे फुहार, ठहाका, देखो हँस न देना आदि का ध्यानपूर्वक पठन, टी.वी पर प्रसारित हास्य कविता सम्मेलनों को पूरा देखना और उपयुक्त अवसर पाकर मंदहास या ठहाका लगाने का अभ्यास। यह भी पता चला कि च्यूइंगम के सहारे भी सदा हँसते व्यक्ति का छद्म रूप धरा जा सकता है। पर हमें क्या पता था कि हमारी इस नई नीति से कई मुसीबतें बरपा होंगी। अब जैसे उसी दिन कि बात लीजिए जिस दिन संस्कृत के पीरियड में शिक्षिका ये श्लोक पढ़ा रहीं थीं

कमले कमला शेते हरः शेते हिमालये।
क्षीराब्धौ च विष्णुः शेते सत्ये मत्कुणशंकया।।

मौके की बात है कि अपन कक्षा में उसी समय हँसी का अभ्यास कर रहे थे, टीचरजी को लगा कि हम श्लोक का गुणार्थ बूझ कर हँसे। सो तपाक से हमें अर्थ बताने का निर्देश दे बैठी। अब हमें काटो तो खून नही। दो तमाचे चखने के बाद हमारी ज्ञान इंद्रियों ने सूचित किया कि यह कोई साधारण
श्लोक नहीं बल्कि एक हास्य श्लोक था, खटमल के डर से क्षीरसागर में रहते विष्णु और हिमालय पर सोते शिवजी के बारे में। एक बार फिर हम चुटकुले के हाथों शहीद हुए।

Advt for Debashish

अब तो हमें घर में हँसने से उतना ही डर लगता है जितना सरकार को कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने से।

इधर घर पर हम मौका देखकर हम जरा हँसी क्या बिखेरते, दादीमाँ का पोपले मुँह से उलाहना डिस्पैच होता, "अरे मुए, फक्कड़ों कि नाई खीसें निपोरता रहता है! मसखरा है क्या? ये क्या बंदर की तरह हमेशा खीं खीं करता है।" खैर वक्त कटता गया और शादी के बाद हमारी खिंचाई का सारा दारोमदार पत्नी व बच्चों पर आ गया। कभी हम उनकी सहेली द्वारा शहर के ही सस्ते स्टोर से खरीदी साड़ी को हसबेंड से बनारस से मँगाने कि कथा को व्यंग्य समझकर हँस देते दो बाद में पत्नी हमारी आरती उतार कहती, "अरे कैसे निरेबुद्धू के पल्ले बंध गयी मैं, इनकी नामुराद हँसी हमेशा गलत वक्त पर ही फूटती है। अब बेचारी एक झूठ बोलती है तो चार धैर्यपूर्वक सुनती भी तो है"। अपने व्यंग्यग्रहण शक्ति प्रदर्शन से किसी का मखौल उड़ जाएगा यह तो हमनें कल्पना भी नहीं की थी।

अब तो हमें घर में हँसने से उतना ही डर लगता है जितना सरकार को कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने से। कई बार अपनी पैरवी की। छोटी बेटी को पास बैठाकर उसे एक पत्रिका के लेखाँश पढ़कर सुनाए, "देखो बेटा क्या लिखा है, हँसना स्वास्थ्य के लिये अच्छी वर्जिश है। इससे ऊब, उदासी, तनाव, अवसाद चुटकी बजाते दूर हो जाते हैं। हँसते मस्तिष्क को उत्प्रेरणा मिलती है।" इससे पहले कि हम आगे पढ़ें हमारी नन्हीं बेटी सिर हिलाते हिलाते जम्हाई लेकर बोर होने का संकेत दे देती। पर फिर भी हमें सुकून मिलता कि चलो कम से कम ये तो अपने पाले में है। पर जब इतवार को टीवी पर "एलिस की अनोखी दुनिया" देखते वही नन्ही खिलखिलाकर कहती, " पापा ये डचेस की बिल्ली तो बिल्कुल आप जैसी है, हमेशा बिना बात ही हँसती रहती है", तो हमारा सारा भ्रम टूट जाता। गर मैं बेटे कि डेनिम पैंट के घुटने पर एक छेद देखकर हँसता और कहता "अरे, यह पहन कर बाहर जाओगे" तो बेटा और उसके दोस्त खीज उठते,"क्या पापा आप भी, क्या फैशन भी अब हँसने की चीज हो गई है!"

बाप रे! ट्रेजेडी किंग यूसुफ साहब जैसे सारी दुखद बातें शायद हमारे ही साथ होती हैं, पर हाँ गनीमत है कि किसी पहलवान के केले के छिलके से फिसलने और पार्टियों में मेहमान के जबड़ों से दूर छिटके मुर्गे कि टाँग के वाकये पर हँसकर हमने धौल या गालियाँ नही खाई वरना हमारी दंतकथा पूर्ण हो जाती। वैसे, पड़ोसी अब हमारी हँसी को बिल्ली के रास्ता काट जाने से भी ज्यादा अपशगुन मानते हैं।

आप ही फैसला किजिए जब हँसी नही आती थी तो उपहास का पात्र बनते थे, अब ताबड़तोड़ रावणनुमा ठहाके लगा लेते हैं तो भी भृकुटियाँ उठती हैं। गोया फकत एक पेशी की हरकत से जो तनाव हमें झेलना पड़ा उससे तो खुश रहने के तमाम मेडिकल फायदों का ही बेड़ा गर्क हो गया। आजकल तो तन्हाई में बस यही गुनगुनाते हैं हँसे…न हँसे हम!