ब्दुल कादर और मैं, दोनों 1947 की जून में फौज में भर्ती हुए। केरल के एक छोटे से शहर से आए दो सत्रह साल के छोकरे। हम मद्रास की एक भीड़ भड़क्के वाली सड़क पर नौकरी ढूँढ रहे थे। धोती और कमीज़ पहने, नंगे पैर गरम गरम कोलतार वाली सड़क पर घूम रहे थे, और ऊपर सूरज तमतमा रहा था। हम दफ़्तरों में घुसते, और हर जगह से मनाही सुन के वापस निकल आते। सब को कुछ तजुर्बेदार, अच्छे कपड़े पहने हुए चमचमाते लोग चाहिए थे। यार पहली नौकरी जब तक नहीं मिलेगी तब तक तजुर्बा कहाँ से आएगा? और दिखने में तो हम पतले दुबले, गँवारों की तरह ही थे।
इसी तरह शहर में मँडराते हुए, दुकानों के इश्तिहार देखते देखते हमें फौज में भर्ती का दफ़्तर दिखा। हमें भर्ती होने की ज़्यादा उम्मीद तो थी नहीं, क्योंकि हमें नहीं लगता था कि हम फौजी बनने लायक होंगे। लेकिन कादर ने कहा कि आज़माने में कोई हर्ज तो है नहीं, और हम दफ़्तर में दाखिल हो गए।
भर्ती का दफ़्तर कई अधनंगे नौजवानों से खचाखच भरा था। साक्षात्कार, लिखित परीक्षा, शारीरिक परीक्षा, स्वास्थ्य परीक्षा सब कुछ अफ़रा तफ़री में हो रहे थे। वर्दी पहने भर्ती करने वाले लोग चिल्ला चिल्ला के उम्मीदवारों को एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जा रहे थे।
नज़ारा देख कर हम पस्त हो गए। अपने शरीर के ढाँचे की आस पास के लोगों से तुलना करके हमें अपने आप पर दया आने लगी। कई हट्टे कट्टे दिखने वाले लोगों की भी भर्ती नहीं हो पा रही थी। फिर भी दया मिश्रित हेय दृष्टि से हमें देखने वाले एक वर्दीधारी के पास हम बढ़ गए। उसने हमसे स्कूल के प्रमाणपत्र माँगे, और हमने उसे पकड़ा दिए। उन्हें देखते ही, उसका नज़रिया ही बदल गया, जैसे कि वह कोई जादुई छड़ी हो। अचानक ही उसकी हममें दिलचस्पी बढ़ गई, और वह हमें एक अफ़सर के पास ले गया, जिसने हमसे कुछ पर्चे भरवाए। हमारा डॉक्टरी परीक्षण हुआ, वजन दोनों का कम था, लेकिन मेडिकल अफ़सर ने कहा कि ये तो कुछ दिन में बढ़ जाएगा। उन दिनों मेट्रिक पास कम ही मिलते थे और उन्हें “सिपाही क्लर्क” के तौर पर भर्ती किया जाता था। हमें कुछ पैसे दिए गए और कागज़ात भी, फिर एक ट्रक से मद्रास रेल्वे स्टेशन ले जाया गया, जहाँ हमारे लिए एक खास फौजी ट्रेन खड़ी थी। हमें बताया गया कि हमारी मञ्ज़िल है फ़िरोज़पुर, पञ्जाब, और यह भी कि वहाँ पर प्रशिक्षण केन्द्र वाले हमारी राह देख रहे होंगे।
कई इलाकों के दरम्यान एक हफ़्ते का सफ़र तय होने के बाद रेल फ़िरोज़पुर पहुँची, जहाँ फौजी प्रशिक्षण केन्द्र वालों ने हमारा स्वागत किया। यह केन्द्र फौज की नर्सरी है। यहाँ रंगरूट नादान बच्चों की तरह घुसते हैं, और बैठने, खड़े होने और चलने की फौजी शैली सीखते हैं। हमें वर्दी और असला दिया गया, साथ ही एक खटिया और लकड़ी का एक बक्सा भी, बड़े से बैरक में 50 लोग थे।
कहते हैं कि भारत में अनेकता में एकता है। लेकिन हिन्दुस्तानी फौज में, ये अनेकताएँ घुल कर एकता में बदल जाती हैं। यहाँ रंगरूट बतौर पंजाबी, मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मलयाली अन्दर घुसते हैं, पर प्रशिक्षण के बाद बतौर हिन्दुस्तानी बाहर आते हैं, सादी हिन्दी बोलते हैं, चावल और रोटी दोनों का ही आनन्द लेते हैं, धोती और पाजामा दोनो ही पहनते हैं। कदम से कदम हाथ हिलाते हुए चलते हैं, नज़र ठीक सामने। नाटे लम्बे, गोरे काले से इनके कदमों में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। धर्म, जाति, इलाके के फ़र्क से रैंक और फ़ाइल में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आस्तित्व में साथ रहना समा जाता है।
जैसा कि पहले कहा था, हमने जून 1947 में भर्ती ली और दो महीने में हिन्दुस्तान आज़ाद हो गया। कई सालों बाद जब मैंने एक दोस्त को यह बताया तो उसने कहा कि अंग्रेज़ों ने ठीक ही किया – मेरे जैसे फौजियों के साथ देश पर काबू पाना तो मुश्किल ही होता!
लेकिन आज़ादी की कगार पर भारत हम नए रंगरूटों के बारे में कुछ और ही सोच रहा था। फ़िरोज़पुर के प्रशिक्षण केन्द्र पहुँचने के कुछ हफ़्तों के अन्दर ही पूरे उत्तरी इलाके में दंगे शुरू हो गए। शहर में दंगे हुए। हमने अब तक एक बन्दूक तक नहीं उठाई थी। अब हमें बन्दूकें दी गईं और हमें “शान्ति दल” में परिवर्तित कर दिया गया।
हम सड़क पर कवायद करते, कन्धे पर बन्दूक रहती, दंगाइयों के मन में भगवान का डर डालने की कोशिश करते। किसी को असलियत नहीं पता थी – कि हम फौज के एक हफ़्ते पहले भर्ती हुए बच्चे हैं, हमारी टोपियों के नीचे जो चेहरे थे उनपर अभी तक बाल भी ठीक से नहीं आए थे, और हमें न बन्दूक में गोली भरनी आती है न उसे चलाना आता है। लेकिन यह ढोंग सफल रहा।
घर जल रहे थे, और सड़कों पर लाशें पटी पड़ी थीं। लोग एक दूसरे को मार रहे थे, अक्सर अनजान लोगों को भी। सभी पागलपनों की तरह इस पागलपन की भी कोई वजह नहीं थी।
इस मानव निर्मित हादसे के बाद आई कुदरत की कहर। फ़िरोज़पुर में बाढ़ आ गई। कुछ रंगरूटो को सतलुज के किनारे बाँधों को दुरुस्त करने के लिए भेजा गया। लेकिन पानी हमसे ज़्यादा तेज़ था – हमें वापस बैरकों की और दौड़ना पड़ा, बाढ़ का पानी हमारे पीछे पीछे आ रहा था। फिर बैरक से भी और सुरक्षित जगह भागना पड़ा, बन्दुकों और असले के साथ।
चार मील का यह कठिन सफ़र था। मैं और दोस्त अब्दुल कादर अपने कन्धों पर बन्दूक टाँगे थे और दोनो के बीच में असले का बक्सा था। बक्सा बहुत भारी था और मुझे लग रहा था कि मेरा हाथ कन्धे से अलग हो जाएगा। रास्ते में हमें कई ऐसे बक्से झाड़ियों में फिंके दिखे। हमें बक्से की कोई रसीद नहीं दी गई थी, और न ही किसी को याद रहता कि बक्सा हमें दिया गया है। मेरे मन में विचार आया कि अपने बक्से को भी वहीं छोड़ फेंकें।
“इस झाड़ी में फेंक देते हैं। कोई नहीं देख रहा है,” मैंने कादर को कहा।
“अल्लाह देख रहा है,” कादर ने शान्त स्वभाव से कहा। मुझे गुस्सा आया। मैं एकदम लस्तपस्त दर्द से कराह रहा हूँ, और ये भाईसाहब भगवान के नाम पर मुझ पर और अत्याचार कर रहे हैं।
“मैं इसे और नहीं उठा सकता,” मैं फुसफुसाया।
“ठीक है,” उसने कहा, उसी शान्त भाव से। “बक्सा मुझे दो, मैं उठाता हूँ।”
कादर ने अपने कन्धे पर बक्सा रखा और ऐसे चल पड़ा जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। वैसे वह मुझसे भी कमज़ोर था। उसका दर्द मुझे नज़र आ रहा था।
“गलती हो गई यार,” मैंने कहा, और बक्से का दूसरा सिरा पकड़ लिया। फिर सारे रास्ते हम उसे चुपचाप ले कर चलते रहे।
हमने अपनी बन्दूकें और बक्सा गोदाम में जमा करा दिए, लेकिन और कइयों ने नहीं भी किए। वैसे भी यह कमी, बाढ़ में हुए नुकसान के नाम पर लिख दी जाने वाली थी।
कादर की बदौलत पूरी ज़िन्दगी अपने ज़मीर पर यह बोझ लिख कर रखने से मैं बच गया।
वह दिन बहुत उग्र थे। लोग हिले हुए थे, मानसिक और शारीरिक दोनो तरह से। लोगों को एक मुश्त अपनी ज़मीन से उखाड़ा जा रहा था। कई मुस्लिम सिपाही, खास तौर पर उत्तरी इलाकों के, अपने मादरे वतन पाकिस्तान जाने का इरादा रख रहे थे। जिनके घर पाकिस्तान वाले इलाकों में थे, उनके लिए तो यह फैसला लेना मुश्किल नहीं था। लेकिन जिनके घर हिन्दुस्तान वाले इलाकों में थे, उनके लिए यह फैसला मुश्किल था। पन्थ उनकी जड़ों को हिला रहा था। लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक एकरसता उनको जड़ें उखाड़ने से रोक रही थी।
मैंने कादर को मज़ाक में पूछा कि वह कौन से देश में जाएगा। मुझे पता था कि वह पाकिस्तान नहीं जाने वाला, मालाबार में अपना घर छोड़ के एक अजीब इलाके में, जहाँ की संस्कृति और भाषा भी अलग होगी, क्यों जाएगा भला। मैं तो उससे केवल मज़ाक कर रहा था। लेकिन उसके जवाब ने मुझे हैरान कर दिया।
“मैं मुसलमानों के वतन जाऊँगा।”
“बेवकूफ़!” मैंने कहा। “कालीकट में अपने घर और दोस्त छोड़ के वहाँ जाओगे जहाँ कोई तुम्हें पहचानता तक नहीं? तुम हिन्दुस्तान में क्यों नहीं रहते?”
“क्योंकि मैं हिन्दुस्तान में नहीं रहना चाहता। मैं मुसलमानों के वतन में रहना चाहता हूँ,” पूरी संजीदगी के साथ जवाब आया।
अजीब इंसान है, मैंने सोचा। अब तक तो इस बाशिंदे ने अपने पन्थ से कोई बहुत बड़ा प्यार नहीं दिखाया था। बल्कि नाम न पता हो तो किसी को पता भी नहीं होता कि वह मुसलमान है।
दो दिन के बाद उसे प्रशिक्षण केन्द्र के मुख्यालय में बुलाया गया, जहाँ उसे लिखित में अपना चुनाव करना था। वहाँ से वापस आने पर मैंने उसे फिर पूछा: “कौन से देश जा रहा है तू?”
“मुसलमानों का वतन,” उसने पहले की तरह दोहराया।
“पाकिस्तान?”
“नहीं।”
“हिन्दुस्तान?”
“नहीं।”
“क्या? मज़ाक कर रहा है क्या?”
“हिन्दुस्तान के बारे में कोई बात नहीं हुई थी।”
“तो?”
“मैंने भारत को चुना है, जो मुसलमानों का भी वतन है।”
मेरा विश्वास है कि अब्दुल कादर से ही मैंने पन्थनिरपेक्षता के मूलभूत सिद्धान्त सीखे हैं।
1947 में हमने कभी “राष्ट्रीय एकता” का नाम नहीं सुना था। न ही हमें पन्थनिरपेक्षता के बारे में ज़्यादा पता था। शायद तब तक इन ऊँचे उसूलों को नाम नहीं दिया गया था। लेकिन इन कुछ हफ़्तों में, जब भारत को आज़ादी की खुशी और बँटवारे का दुःख था, हम, कुछ सौ एक फौजी रंगरूट, जो कि ब्रिटिश भारत के अलग अलग हिस्सों से आए थे, एक पन्थनिरपेक्ष राष्ट्रीय सेना में विलीन हो गए, और आज़ाद भारत के पहले सैनिक बने।
इस मूल अंग्रेज़ी आलेख का हिन्दी रूपांतरण किया है आलोक कुमार ने। इसी प्रतियोगिता में हिन्दी श्रेणी में पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज के निबंध “हम ही हैं हिंदू और मुसलमान” को प्रथम पुरस्कार मिला। यह निबंध आप अभिव्यक्ति में पढ़ सकते हैं।
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