क शताब्दी पूर्व राजनैतिक आज़ादी का विचार शिक्षित अभिजात वर्ग में बहस का मुद्दा हुआ करता था। यह बहुतायत का जनप्रिय आन्दोलन होने की बजाय गिने चुनों के बीच बुद्धिगत माथा पच्ची का विषय बना था। ऐसा नहीं कि उस समय भारतियों में उपनिवेशवाद से राजनैतिक निजात पाने की अभिलाषा नहीं थी, बात बस यह थी कि आज़ादी की यह संकल्पना आम लोगों के पल्ले नहीं पड़ती थी। ये महात्मा गाँधी जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ही थे जिन्होंने अभिजात वर्ग के लक्ष्यों को ऐसे आसान मंत्र में गढ़ दिया कि वह हर किसी को समझ आ सके। प्रत्येक व्यक्ति को उन्होंने एक सरल सस्ता हथियार दिया, अहिंसात्मक अवज्ञा, जिससे स्वतंत्रता की लक्ष्य प्राप्ति की और बढ़ा जा सके।
एक शताब्दी पश्चात भारत कुछ ऐसी ही स्थिति में है, इस बार खोज है आर्थिक स्वतंत्रता की। 1947 में मिली राजनैतिक आज़ादी के बाद और 90 के दशक के सुधार कार्यक्रमों के बाद भी, भारत अभी तक आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं है। आम राजनेताओं द्वारा कुशलता से इस्तेमाल की गई समाजवादी विचारधारा के अवशेष आज भी मजबूत राजनैतिक अस्तित्व रखते हैं क्योंकि इसके विकल्प – मुक्त बाजार पूंजीवाद – को इस रूप में कभी पैकेज नहीं किया गया जो उन कई करोड़ों लोगों को स्वीकार्य हो जिन्हें इसकी वाकई दरकार है।
मुंबई स्थित अर्थशास्त्री अजय शाह ने लिखा है, "भारत में एक बड़ा तबका मुक्त अर्थव्यवस्था पर आधारित मुक्त विचारों वाला मुल्क बनने की चाह रखता है। पर भारत का इस दिशा में क्रमविकास होने के आसार कम ही दिखते हैं। 60 और 70 के डसक में पले बढ़े असंख्य लोग आर्थिक नीतियों पर समाजवादी रुझान रखते हैं। केंद्र की मौजूदा सरकार ऐसे गठबंधन पर टिकी है जिसमें 2004 के चुनावों में महज़ 5 प्रतिशत वोट पाने वाले वाम दल को, जो बंद अर्थव्यवस्था और चीन व रूस के प्रति नर्म रुख वाली विदेश नीति के पक्षधर हैं, हर कानूनी मामलों में वीटो का अधिकार मिला हुआ है। शिव सेना पुस्तकें जला देती है।" समाज और अर्थव्यवस्था के तौर पर हर हम बढ़ती वैयक्तिक स्वतंत्रता के बल पर हम एक आधुनिक व उदार समाज कैसे बन पायेंगे?
भारत में उद्यमिता के गुणियों की कभी कमी नहीं रही। यूँ तो स्वाधीन भारत में कई उद्यम नेहरू के समय से मौजूद समाजवादी बैसाखियों पर आश्रित हो गये थे पर जो टिके रहे वो सरकार के दमनकारी रवैये के बावजूद सफल हुये। भारत की भीमकाय सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों कि भांति कुछ इसलिये सफल हुये क्योंकि सरकार उनको नियमों के शिकंजे में कसने में नाकामयाब रही। और कुछ ऐसे जिन्होंने समाजवादी पद्धति में बचाव के रास्ते खोज कर वारे न्यारे कर लिये। समाजवाद ने भारतीय उद्यमों को अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर लोहा लेने के लायक छोड़ा ही नहीं। गनीमत है कि इसका दुष्प्रभाव संपूर्ण परिदृश्य पर नहीं पड़ा। ऐसे सेंकड़ों हज़ारों छोटे व्यवसाय हैं जिन्होंने सख्त श्रमिक कानूनों और औद्योगिक लाइसेंसिंग के बावजूद उद्यमिता का सहजज्ञान संजो कर रखा।
आज भारत में मुक्त बाजार पूँजीवाद की वकालत करने वाले तो बहुतेरे हैं लेकिन कोई भी माई का लाल अपनी विचारधारा को ऐसे रूप में ढाल नहीं पाया जिसे, भौगोलिक, धार्मिक, सामुदायक और भाषाई तौर पर वृहद इन ढेरों निर्वाचन क्षेत्रों को प्रस्तुत किया जा सके। आर्थिक स्वातंत्र्य इन कारकों को चीर कर तभी कारगर हो सकता है जब इस ऐसे रुप में प्रस्तुत किया जा सके जो आम जनता को अपना लगे। इसमें वह शक्ति है जो विश्व की 20 प्रतिशत जनसँख्या की किस्मत सीधे बदल कर रख दे। और जब यह हो जावे तो कम ही आसार हैं कि शेष जनसंख्या इसके असर से अछुती रह जायेगी। ऐसे लोगों को खोजना कठिन नहीं जिन्हें 15 वर्ष पूर्व पी वी नरसिंहराव सरकार द्वारा प्रारंभ आर्थिक उदारीकरण की बयार से लाभ मिला हो। पर वे इसे स्वीकारते नहीं हैं
यूं तो आर्थिक स्वातंत्र्य के लिये एक गाँधी लाना बहुत बड़ी चुनौती है, पर जितने इसके फायदे दिखते हैं ऐसी चुनौती स्वीकार करना उपकारी ही होगा। लेखक ने अपने पेशे की शुरुवात दूरसंचार उद्योग से ITU के इस विचार के आधार पर की थी कि टेली घनत्व (दूरसंचार के फैलाव) में 1 प्रतिशत बढ़त से तिगुनी आर्थिक प्रगति होती है। ऐसा हुआ भी। पहले तो सिंगापुर में, जहाँ ब्रॉडबैण्ड के विस्तारण से न केवल आर्थिक परिदृश्य में स्वस्थ स्पर्धा को बढ़ावा मिला बल्कि उसने निर्माण से सर्विस क्षेत्र में भी पदार्पण किया। फिर भारत, जहाँ दूरसंचार के क्षेत्र में निजिकरण से आईटी इनेबल्ड सेवाओं के क्षेत्र में क्रांति आई। जब टेली घनत्व (या ब्रॉडबैण्ड के फैलाव) में इतने सूक्ष्म बदलाव से समाज और अर्थव्यवस्था पर इतना गहरा असर पढ़ता हो तो निश्चित ही आर्थिक स्वतंत्रता घनत्व में छोटे सी बढ़त से भी लोगों की जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। जिस प्रकार गाँधी जी ने राजनैतिक स्वतंत्रता का विचार सरल तरीके से प्रस्तुत किया शायद आर्थिक स्वतंत्रता के विचार को भी यूं प्रस्तुत किया जा सके।
आज के भारत को निश्चित ही मुक्त बाजार के गांधी की ज़रूरत है। सवाल यह है कि क्या हम समय रहते उन्हें तलाश पायेंगे?
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