आशीष का सवाल है कि “बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया” कहावत का चलन कब से शुरु हुआ?
रुपये-पैसे के बारे में सारे सवाल के जवाब तो भैये कार्ल मार्क्स ही बता पायेंगे तुमको, या फिर पढ़ों “दास कैपिटल”। पर जितना अपन को पता है उससे यही बता सकते हैं कि जब से दुनिया को पता चला होगा कि बाप-भाई के बिना तो काम चल सकता है लेकिन रुपये के बिना नहीं, तभी से यह मुहावरा चलन में आ गया होगा। वैसे भी बिना पैसे का बाप गधा समान माना जाता है जबकि पैसे वाले गधे को भी लोग बाप बनाने के लिये लपकते हैं। पैसा होगा तो कोई गधा भी बाप बनने की सारी प्रकियाओं को बाईपास कर दे, जबकि पैसा न होने पर बाप बनने की सारी प्रकियाओं को पूरा करने के बाद भी लोग गधे बने रहते हैं। अगर यह सच न होता तो लोग अपने बाप-भाई को छोड़कर पैसा कमाने के लिये अपने घर से दूर गधों की तरह क्यों खटते?
आलोक समझ नहीं पा रहे कि बंगलौर में नारियल की चटनी में इतनी मिर्ची क्यों डालते हैं?
हुआ कुछ ऐसा भाई कि नारियल ने एक बार सोचा कि हम इतने लोगों की जीविका चलाते हैं देखें लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं। उसने एक मार्केट सर्वे कराया अपनी छवि के बारेमें जानने के लिये। जो रपट आई वो चौंकाने वाली थी। हर बुरे और कठोर आदमी के लोग कहते, “उसका व्यक्तित्व नारियल की तरह उपर से कठोर लेकिन अंदर से मुलायम है।” हर लगुये-भगुये को लोग कहते वह नारियल की तरह है। फिर क्या था, गुस्सा आ गया नारियल को। उसने मिर्ची के साथ गठबंधन कर लिया। यह सोचकर कि जहां नारियल पाया जाता है वहां मिर्ची भी बहुतायत में पायी जाती है। सो यह नारियल-मिर्च गठबंधन भविष्य की संभावनाओं को देखते हुये बनाया गया है। अब बंगलौर चुँकि राजधानी है सो इस गठबंधन का असर सबसे ज्यादा वहीं दिखता है। अब गठबंधन के टिकाउपन का पता तो अपन को क्या उपरवाले को भी नहीं।
झूठ सफेद होता है, लेकिन फिर झूठे का मुँह काला क्यों होता है?
इसके जवाब जानने के लिए इतिहास की झरोखे से बाहर झांकना जरूरी है। पहले लोग जब झूठ बोलते थे तो उसकी सजा तय थी – कौवे से कटवाना। इधर आपने झूठ बोला उधर कौवा काट गया। इसीलिये यह गाना भी चल निकला – झूठ बोले कौवा काटे, काले कौवे से डरियो। कौवे बड़ी ईमानदारी से यह काम करते थे। इधर किसी ने झूठ बोला नहीं कि उधर कौवे ने आकर काट लिया। बस यहीं से लफड़ा हो गया। कौवे की कार्य समर्पणता देखकर उसे ढेर सारे काम सौंप दिये गये। किसी अतिथि के आने की सूचना देना हो मुंडेर पर कौवा बोले, किसी अपशकुन की सूचना देनी हो तो कौवे की ड्यूटी, मतलब काम बेहद बढ़ गया। इधर आबादी बढ़ी तो लाज़मी है झूठ भी बढ़ा। उधर कौवे कम हो गये। आदमियों ने भले न अपनाया हो पर कौओं ने परिवार नियोजन पर ध्यान दिया। तो कौओं की संख्या काम के मुकाबले बहुत कम हो गयी। झूठे लोगों को काटने का काम पिछड़ता चला गया।
कुछ तकनीकी समस्यायें भी रहीं। लोग झूठ बोलकर इन्तजार करते कि कौवा आये काट जाये लेकिन कौवे आते नहीं। कहते, “सौ-पचास झूठ हो जायें तब बताना। एक साथ काट दूंगा आकर।” आधा झूठ तो युधिष्ठिर जैसे लोग बोल गये लेकिन कौवा आधा काटे कैसे? उधर नेता लोग देश सेवा के नाम पर काटे जाने के खिलाफ अदालती ‘स्टे’ ले आये। इन सब समस्याओं के चलते यह तय किया कि झूठ बोलने पर काटने का ‘सिस्टम’ पुराना है कुछ नया किया जाये। तो फिर यह तय हुआ कि ‘कलर कोडीफिकेशन’ की तर्ज पर जो झूठ बोले उसका मुंह रंग दिया जाये जैसे किसी गुणता निरीक्षण अनुभाग में निरीक्षण करने के बाद वस्तुयें रंग दी जाती हैं। अब जैसा कि आप जानते और मानते है कि झूठ सफेद होता है तो यह तय किया गया कि झूठ बोलने वाले का मुंह काला कर दिया जाये ताकि ‘कलर कन्ट्रॉस्ट’ के कारण झूठ दूर से दिख जाये। इसीलिये झूठे का मुँह काला होता है। कैसे सवाल हैं यार संपादक जी, जवाब देने के चक्कर में सौ झूठ हमें भी बोलने पड़ गये।
आलोक फिर पूछते हैं कि विदेश से वापस आ के हिन्दुस्तानियों को अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के अलावा सब लोग बदतमीज़ क्यों लगते हैं?
सवाल कुछ गड़बड़ लग रहा है, आलोक महाशय! होता दरअसल यह है कि जब कोई प्रवासी विदेश से घर आता है तो वह देखता है कि कौन उसके लिये रहने का बढ़िया इन्तजाम करता है, मुफ्त की गाड़ी, मय ड्रायवर (क्योंकि हिन्दुस्तान के रास्ते और गीयर वाली गाड़ी चलाना वह भूल चुका है) जुटा सके, प्रवास के हर खर्चे को छोटा-मोटा समझकर उसे भुगत सके। ऐसे लोगों को ही वह अपना दोस्त तथा रिश्तेदार समझता है। इसके उलट जो बिना किसी सुविधा की औकात के उसके आसपास किसी आशा में मंडराते रहते हैं उन्हें वह बदतमीज समझता है। वैसे इस बारे में मेरा छोटा लड़का कहता है कि जो जैसा होता वह दूसरों के बारे में वैसा ही सोचता है। पर यह सवाल काहे पूछ रहे हो आलोक भाई, आपको तो वापस आये काफी दिन हो गये!
आग लगने पर ही पानी भरने की याद क्यों आती है?
जब हमने यह प्रश्न ठेलुहा से पूछा तो प्रतिप्रश्न किया गया, “आग लगने पर पानी की याद नहीं आयेगी तो क्या आग की याद आयेगी?”। हमें लगता है कि इसका जवाब भारतीय संस्कृति के गर्भ में छिपा है। भारतीय संस्कृति में संग्रह की प्रवृत्ति वर्जित मानी गई है। भगवान से आदमी केवल इतना मांगता है जितने में वो परिवार सहित खा ले और कोई अतिथि आ जाये तो उसको निपटा ले।
साईं इतना दीजिये जामें कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय।
अब आग लगने के पहले पानी का इन्तजाम करना मतलब संग्रह की प्रवृत्ति। संस्कृति की अवमानना, संसाधनों का दुरुपयोग। पता चला कि आप पानी का इन्तजाम किये बैठे हो और आग है कि लग के ही नहीं दे रही। सारा इन्तजाम बेकार हो गया न! इसीलिये सुरक्षित तरीका यही यही है कि जब आग लगे तभी पानी का इन्तजाम किया जाये। फिर भी अगर किसी को बुरा लगता है इस दशा पर तो उसके लिये चुल्लू भर पानी काफी है जो कि किसी भी ‘बिसलरी’ की बोतल में आ जायेगा। इसके अलावा ठेलुहा समुदाय के लोग इसलिये भी पहले से पानी का कोई इन्तजाम नहीं रखते क्योंकि उनको भरोसा होता है कि जब भी आग लगेगी वो राग मल्हार गाकर पानी बरसवा लेंगे-आग लगी हमरी झोपड़िया में हम गायें मल्हार।
फ़ौलादी सिंह पे हिन्दी पिक्चर क्यों नहीं बन रही है?
वन्स अपान अ टाइम हम छात्रावस्था में छात्रावास में टेलीविजन देख रहे थे, चित्रहार चल रहा था। कोई हीरोईन टाइप की महिला डान्सरत थी। किसी ने सवाल उछाला, “ये कौन हीरोईन है?” हमारे एक दोस्त ने मासूमियत से जवाब दिया, “पता नहीं यार, आजकल मैं हीरोईनों के टच में नहीं हूँ।” तो भैया, हम भी आजकल फौलादी सिंह के टच में नहीं हैं। इसलिये फौलादी सिंह के बारे में जानने के लिये हम अपनी सुपुत्र की शरण में गये। उसने बताया कि फौलादी सिंह के बारे में अभी तक हालीवुड में कोई पिक्चर नहीं बनी। अब जब हालीवुड में नहीं बनी तो बालीवुड में कैसे बनेगी! अगर सही में हिंदी में पिक्चर बनवाना है फौलादी सिंह पर तो पहले अंग्रेजी में कोई ऊलजलूल पिक्चर बनावायी जाये उसपर उसके बाद हिंदी में उसकी नकल की जाये। सीधे-सीधे हिंदी में फौलादी सिंह पर पिक्चर बनाना तो हिंदी फिल्म निर्माण प्रक्रिया का सरासर उल्लंघन होगा।
जीतेन्द्र का सवाल है कि तोगडिया जी हमेशा गुस्से मे क्यों रहते है?
भइया जीतेन्दर, हमें पता नहीं कि ये तोगड़िया जी कौन हैं, क्या करते हैं पर जब उनके बारे में सवाल पूछा जा रहा है तो लगता है कि कोई बड़े आदमी ही होंगे-हाकिम-हुक्काम टाइप। जहां तक गुस्से की बात है तो भारतीय संस्कृति में गुस्सा बड़ी ‘कूल’ चीज माना जाता रहा है। ससुराल में दामाद का गुस्सा, सास का बहू पर गुस्सा, अमीर घर की लड़की का ससुराल वालों पर गुस्सा तो लोग जानते-भोगते ही हैं। इतिहास में भी परशुराम, दुर्वासा, शिव शंकर आदि लोग अपने इंस्टैंट कोप के कारण प्रसिद्ध रहे हैं। पुराने समय में मनमाफिक काम न होने पर गुस्सा करने का रिवाज था। जैसे गोस्वामी तुलसीदास ने बताया भी:
विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत,
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।
तो रामचन्द्र जी ने तीन दिन तक प्रार्थना का ‘रूट फालो’ करने के बाद भी काम न होने पर गुस्से पर ‘स्विचओवर’ किया। पर अब जमाना बहुत तेज हो गया है। तीन दिन बहुत होता है, बड़े लोग तड़ से गुस्सा कर देते हैं। पर अगर गुस्से का कारण जानना हो तो जैसा श्रीलाल शुक्ल जी बताते हैं-
“इन हाकिम लोगों को पचास तरह की बीमारियां होती हैं। कब्ज, गैस, डायबिटीज, दुष्चिन्ता, नामर्दी, बवासीर आदि। इनका हाजमा दुरुस्त नहीं रहता। चिड़चिड़े हो जाते हैं और ऊलजलूल हरकतें करते हैं। वास्तव में अपने को कोस रहे होते हैं। तो ऐसे में इनसे डरना नहीं चाहिये और जब ये लोग गुस्सा कर रहे हों तो चुपचाप सोचना चाहिये कि कैसे इन्हें बुत्ता दिया जाये।”
तो मुझे यही लगता है कि आपके तोगड़ियाजी को कुछ यही समस्यायें होंगी जो श्रीलाल शुक्लजी ने बताईं। लोग यह भी कहते हैं कि गुस्सा करने वाले के दिमाग में कोई माईक टाईसनी वायरस घुस जाता है और गुस्सेल प्राणी हरसंभव ऊलजलूल हरकतें करता है।
वाजपेयी जी की जबान बार-बार फिसल क्यों जाती है?
हर आदमी जिंदगी में कभी न कभी फिसलता जरूर है। यह नियम है। वाजपेयी जी विद्वान हैं, संयमी हैं। बचपन, जवानी में कभी नहीं फिसले। पर अब बुजुर्गियत में भी वाजपेयी जी जिंदगी के नियमों का उल्लंघन नहीं करते। लिहाजा फिसलन के सार्वभौमिक सिद्धान्त का पालन करते हैं। वाजपेयी जी के व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पहलू उनकी भाषण कला है जो कि जबान से संचालित होती है। इसीलिये फिसलन के नियम का पालन करने में वह फिसल जाती होगी। इसलिये आप भी कहीं फिसलना चाहते हो अभी फिसल लो। बाद में मजबूरी की फिसलन में वो मजा कहां!
और अंततः
हिन्दी चिट्ठाकार फुरसतिया से सवाल पूछने मे झिझकते क्यों है?
यार जीतेन्दर, तुम कहते हो लोग फुरसतिया से जवाब पूछने में झिझकते क्यों हैं? उधर कुछ भाई लोग तकादा करते हुये पूछते हैं, “फुरसतिया को जवाब देने की फुरसत क्यों नहीं मिलती?”। कोई कहता है कि बहुत मेहनत लगती होगी जवाब देने में वहीं भाई लोग कहते हैं कि उतना मजा नहीं आया इस बार। जब मैं सोचता हूँ तो हर एक के सवाल सही लगते है। बहरहाल सवाल पूछने में झिझक के कुछ कारण जो मुझे लगते हैं वे हैं
- लोग यह मानते हैं कि जो सवाल वो सोच रहे हैं वो टेलीपैथी से फुरसतिया तक पहुंच जायेंगे तो बेकार टाइप करने तथा ई-मेल की जहमत क्यों उठाई जाये?
- कुछ लोग यह मानते हैं कि जो सवाल उनके मन में उठ रहे हैं उनका जवाब देना फुरसतिया के बस की बात नहीं।
- कुछ संकोची यह मानते हैं कि उनके सवाल पढ़कर लोग हंसेंगे।
- कुछ लोग कहते हैं कि पहले वाले जवाब तो मिले नहीं, नये सवाल क्यों पूछें जायें?
- जो इस किसी में शामिल नहीं हैं उनके दिमाग की उत्सुकता, कौतूहल तथा चुहल वाला हिस्सा सुन्न पड़ गया है। उनको किसी डाक्टर झटका की अविलम्ब जरूरत है।
फुरसतिया का अवतार ले कर हर महीने ऐसे ही रोचक सवालों के मज़ेदार जवाब देंगे अनूप शुक्ला। उनका अद्वितीय हिन्दी चिट्ठा “फुरसतिया” अगर आपने नहीं पढ़ा तो आज ही उसका रसस्वादन करें। आप अपने सवाल उन्हें anupkidak एट gmail डॉट कॉम पर सीधे भेज सकते हैं, विपत्र भेजते समय ध्यान दें कि subject में “पूछिये फुरसतिया से” लिखा हो। इस स्तंभ पर अपनी प्रतिक्रिया संपादक को भेजने का पता है patrikaa एट gmail डॉट कॉम
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