Cover Story

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पनी जड़ों से जुड़ने की बात पर ग्राम्य जीवन की रोमानी छवि पेश करने की साधारण रवायत रही है। लेकिन उल्लेखनीय यह है कि ग्राम्य जीवन पर न्यौछावर होने वाले ये अधिकतर लोग शहरों में रहते हैं – या तो भारत में या कहीं और। इस तरह रूमानी रंग देने में छिपे विरोधाभास को ये नकार देते हैं – आखिरकार इनकी पिछली पीढ़ियाँ कुछ वाजिब कारणों से ही तो गाँव छोड़ के शहर आई थीं।

गाँवों के सबसे बड़े हिमायती थे मोहनदास गाँधी, जिनकी शिक्षा लन्दन में हुई थी, और उनकी वकालत का पेशा भी शहरी दक्षिण अफ़्रीका में था। उन दिनों गाँधी के सबसे कटु आलोचक थे अम्बेडकर, जिन्होंने अछूत के तौर पर ग्राम्य जीवन को देखा था। गाँधी की ग्रामीण गणराज्य की परिकल्पना को अतिभावनात्मक दृष्टि बताकर अम्बेडकर ने अपने समर्थकों से ग्रामीण उत्पीड़न से पीछा छुड़ा, पढ़ लिख कर, शहरी इलाकों में बस जाने को कहा।

आज हमारे पास विकल्प है कि या तो 6 लाख छोटे गाँवों के साथ जायें या 600 सुनियोजित, नए, चमचमाते शहरों के साथ। स्पष्टतः औसत भारतीय गाँव में रह रहा कोई भी व्यक्ति, जिसके पास जानकारी और धन हो, बोरिया बिस्तर उठा कर शहरों और नगरों में बस जाना चाहेगा।

एक रुख यह भी

बाजार के खेल

देश के छह लाख गांवों को कुछ सौ या हजार शहरों में तब्दील कर देना अव्यावहारिक ही नहीं, टेढ़ी खीर भी है। यह विडंबना ही है कि छह दशक तक गांवों को स्वर्ग बनाने की बात की जाये, और उसके बाद कहा जाये – नहीं, अब स्वर्ग के बदले शहर बसाये जायेंगे।

अनाज की रोज बढ़ रही कीमतों से लोग अभी ही इतने कष्ट में हैं। जब किसान शहरों में जा बसेंगे, तब क्या होगा? जाहिर है, तब खेत-खलिहान भी पूंजीपतियों के नियंत्रण में चले जायेंगे। जरूरी नहीं कि वे उन खेतों में अनाज ही उपजायें। वे उस जमीन पर फैक्टरियां भी लगा सकते हैं। जो खेती होगी भी, वह पूंजीवादी प्रणाली में ढली होगी। तब खाद्य पदार्थों की कीमतों का अपने बजट के साथ तालमेल बिठा पाना शहरी मध्य व निम्न वर्ग के बूते की बात नहीं रहेगी।

गांव के जो लोग शहर में जाकर रहेंगे, खासकर पुरानी पीढ़ी के लोग, खुद उनके लिए भी शहरी जीवन से सामंजस्य बिठा पाना उतना आसान नहीं होगा। कष्ट सहकर भी कृषि में मर्यादा देखनेवाला किसान शहर में मजदूर बनकर कभी खुश नहीं रहेगा।

जो राजनैतिक नेतृत्व आजादी के छह दशकों बाद भी ग्रामीणों को स्वच्छ पेयजल तक मुहैया नहीं करा सका, वो क्या उनके लिए सुविधा संपन्न चमचमाते शहर बनायेगा?

सवाल यह भी उठता है कि देश के 70 – 80 करोड़ ग्रामीणों को बसाने लायक शहरों को बनायेगा कौन? जो राजनैतिक नेतृत्व आजादी के छह दशकों बाद भी ग्रामीणों को स्वच्छ पेयजल तक मुहैया नहीं करा सका, वह एक-दो दशकों में उनके लिए सुविधाओं से संपन्न चमचमाता शहर बना देगा? फिर, इसके लिए पैसा कहां से आयेगा? यदि यह जिम्मेवारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की सोच है, तो क्या जरूरत थी देश की आजादी की? ईस्ट इंडिया कंपनी हमारा ‘भरण-पोषण’ कर ही रही थी।

दुनिया की दूसरी सबसे विशाल आबादी पूरी की पूरी शहरों में रहने लगेगी, तो पर्यावरण प्रदूषण के खतरे भयावह हो जायेंगे। वर्तमान में मौजूद शहरों व कस्बों का प्लास्टिक कचरा आस-पास की जमीन को बंजर बना रहा है। शहरों के पड़ोस में स्थित नदियां गंदा नाला बनती जा रही हैं। अभी यह हाल है, तो 600 या 6000 नये शहर अस्तित्व में आयेंगे तब क्या होगा?

शहरीकरण के समर्थकों का तर्क रहता है कि दूर-दूर बिखरे गांवों की बनिस्बत शहरों को बिजली, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, सुरक्षा आदि की सुविधाएं देने में आसानी होगी। तो क्या आप देश के गैर शहरी क्षेत्रों को इन सुविधाओं से वंचित कर देंगे? क्या उन इलाकों को एक बार फिर आदिम युग में ढकेल दिया जायेगा?

दरअसल, भारत के गांवों को शहर बनाने की बात बाजार की ताकतों के दबाव में की जा रही है। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में औद्योगिक प्रगति की रफ्तार तेज हुई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सक्रियता भी बढ़ी है। उन कंपनियों को अपना माल खपाने के लिए बाजार चाहिए। लेकिन आत्मनिर्भर गांवों की सोच इस बाजारवाद के विस्तार में बाधक है। भारत की ग्रामीण आबादी जब शहरों में रहने लगेगी तो वह अपनी छोटी मोटी जरूरतों के लिए भी बाजार की बाट जोहने को विवश होगी। शहरी भारत ग्रामीण भारत की तुलना में बेहतर उपभोक्ता साबित होगा।

– अशोक कुमार पाण्डेय

ग्रामीण लोगों की उन्नति को ग्राम के विकास के साथ जोड़ने से ही शायद यह गलत समझ पैदा हुई है कि ग्राम का विकास कर के ही ग्रामीण व्यक्ति उन्नत हो सकता है। इस तथ्य से, कि दसियों सालों से ग्रामीण इलाकों का विकास करने की कोशिश करने पर भी, ग्रामीण जनता का कुछ भला नहीं हो सका, यही पता चलता है कि समाधान कुछ और ही है।

हर विकसित वित्त व्यवस्था ने उन्नति के जिस मार्ग का अनुसरण किया है उसमें जनसंख्या का एक बड़े हिस्से की आय का मुख्य साधन खेतीबाड़ी रहता है, और क्रमशः कुल कामकाज में कृषि आधारित कार्य का हिस्सा बेहद कम रह जाता है। जैसे जैसे कृषि में उत्पादन क्षमता बढ़ती जाती है, कृषि क्षेत्र के कामगार कारखानों और सेवाओं की ओर बढ़ते हैं, जिनमें उत्पादकता और आय भी अधिक होती है। इस तरह हमेशा ग्राम-केन्द्रित, कृषि-केन्द्रित व्यवस्था से हटते हुए शहर-केन्द्रित, गैर-कृषि केन्द्रित व्यवस्था की ओर अन्तरण होता है।

ग्रामीण भारत में जो गरीबी दिखती है, उससे साफ़ है कि आर्थिक विकास उन्नति के लिए आवश्यक है। और, आर्थिक विकास शहरीकरण से ही सम्भव है। इसका कारण समझना कठिन नहीं है। शहरी इलाकों में जब अधिक लोग एक ही स्थान पर इकट्ठा हो जाते हैं तो माल और सेवाओं का प्रदाय ज़्यादा प्रभावी और सस्ता हो जाता है। उदाहरण के लिए बिजली जैसी ज़रूरी चीज़ को ही लें। ऊर्जा की उत्पत्ति और वितरण ऐसी जगहों पर महँगा पड़ेगा जहाँ सिर्फ़ कुछ सौ ही लोग रहते हैं। 1-2 मेगावाट के खास गांव के लिये बने संयंत्र से यदि महज़ 1000 लोगों के लिए बिजली पैदा करनी हो तो गाँव वालों को शहरियों के मुकाबले ज़्यादा पैसे देने पड़ेंगे – और ऐसा हो पाने की सम्भावना क्षीण है। इसीलिए तो गाँवों के स्तर पर लगातार बिजली की सप्लाई आना ही बहुत मुश्किल है। इसकी तुलना में, दसियों हज़ारों के लिए ऊर्जा प्रदान करना आर्थिक रूप से अधिक आसानी से सम्भव है।

आर्थिक विकास, और आर्थिक उन्नति के लिए अगर विश्लेषण करना हो तो ग्राम के आधार पर विश्लेषण करना सही नहीं है। ग्राम विकास पर ज़ोर देने से दुष्प्राप्य संसाधन, जो कि और कहीं बेहतर ढंग से काम में आ सकते थे, बर्बाद होते हैं। यही संसाधन शहरों के विकास में काम आ सकते थे। भले यह विरोधाभासी लगे पर वास्तव में ग्रामीण लोगों के विकास के लिए शहरी विकास की ज़रूरत है।

मुम्बई या दिल्ली की समस्याओं का समाधान यही है कि इन महानगरों के दर्जे में कमी लाकर नये शहरों को बढ़ावा दिया जाय जिसके महानगरों की ओर सामुहिक पलायन पर भी लगाम लगेगा।

करीब 70 करोड़ भारतीय गाँवों में रहते हैं। स्पष्ट है कि मौजूदा शहरों में जा कर उनका शहरीकरण सम्भव नहीं है – यह शहर फट पड़ने की कगार पर हैं। लगभग सभी भारतीय शहर और महानगर अनियोजित हैं, और वहाँ ज़मीन व अन्य संसाधनों का प्रभावी उपयोग नहीं होता है। उनके मौजूदा नागरिकों के लिए ही ये अनुपयुक्त हैं, तो करोड़ों अतिरिक्त लोगों को यहाँ बसाने की बात करना ही व्यर्थ है। इस देश को नए शहर चाहिए, ताकि उन करोड़ों लोगों को वहाँ जगह दी जा सके।

वास्तव में, दिलचस्प तौर पर मुम्बई या दिल्ली की समस्याओं का समाधान यही है कि इन महानगरों के भारतीय वित्त व्यवस्था में बने केंद्रिय दर्जे में कुछ कमी लाई जाये और नये क्षेत्रीय शहरों को बढ़ावा दें ताकि महानगरों की ओर सामुहिक पलायन पर भी लगाम लगे। लोग अक्सर भूल जाते हैं कि न्यूयॉर्क एक समय पर बेकार, रहने के लिए नाकाबिल, और महाप्रदूषित शहर माना जाता था। इस महानगर की समस्याओं का थोड़ा समाधान तो कई अलग केन्द्रों के निर्माण से हुआ, जैसे कि शिकागो, सेंटलुई व पश्चिम के शहरों से, जिससे न्यूयॉर्क पर दबाव थोड़ा घटा।

भारत अपना भविष्य खुद चुन सकता है। उदाहरण के लिए, 2030 में क्या अधिकतर भारतीय 6 लाख छोटे गाँवों में केवल अपने खाने के लिए पर्याप्त खेती कर रहे होंगे या क्या वे 600 नियोजित, चमचमाते शहरों में (या एक लाख जनसंख्या वाले 6000 शहरों में ही) कृषि-इतर क्षेत्रों में काम कर के अच्छा सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन जी रहे होंगे?

हमारा भविष्य इस पर निर्भर है कि हम अपने संसाधनों का इस्तेमाल कैसे करते हैं। यह स्वर्णिम भविष्य बनाना भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी और निश्चित रूप से सबसे अधिक सन्तुष्टि और गौरव भी प्रदान करेगी। लोगों को गाँवों और खेती में फँसा के रखने के बजाय नए शहरों के निर्माण पर तवज्जो होनी चाहिए, ताकि आर्थिक उन्नति हो और लोगों का विकास हो।

अतानु के सह लेखक रूबेन अब्राहम इण्डियन स्कूल ऑफ़ बिज़नेस में कॉर्नेल/आईऍसबी बेस ऑफ़ द पिरामिड लर्निङ्ग लैब के निर्देशक हैं। अतानु/रूबेन के मूल अंग्रेज़ी लेख का हिन्दी अनुवाद किया है आलोक कुमार ने।