कोला में कीटनाशक पाये जाने के बाद कोई कहता है कि एमएनसी विकासशील देशों में निम्नतर स्वास्थ्य मानक चलने देतीं हैं, तो कोई एनजीओ पर शक करता है। क्या "एकीकृत खाद्य सुरक्षा व मानक अधिनियम" द्वारा आनुवांशिक इंजीनियरिंग से विकसित खाद्य पदार्थों के भारतीय बाजारों में प्रवेश के चोर दरवाजे खुल गये हैं? पढ़िये अफलातून देसाई और अर्जुन स्वरूप की रोचक बहस।
खाद्य निरंकुशता की ओर
अफ़लातून देसाई
र्वोच्च न्यायालय में सेन्टर फॉर पब्लिक इन्टरेस्ट लिटिगेशन ने नवम्बर 2004 में एक जनहित याचिका दाखिल की थी। इस में खाद्य मिलावट निवारण कानून के उल्लंघन के आधार पर कोला कम्पनियों के विरुद्ध कार्यवाई की मांग की गई थी। याचिका में आयुर्विज्ञान की प्रतिष्ठित अन्तर्राष्ट्रीय शोध-पत्रिकाओं के हवाले दिए गए थे। बहस के दौरान कोला कम्पनियों ने न्यायालय में नए “एकीकृत खाद्य सुरक्षा व मानक अधिनियम, 2005” की प्रति लहराते हुए दलील दी थी कि अदालत इस कानून के लागू होने का इन्तजार करे। अगस्त 2006 में सुनीता नारायण के सेन्टर फॉर साइंस एंड एंवायरमेंट (सी.एस.ई) की हालिया रपट से मची खलबली के बाद केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि इस रपट को वे राज्य सरकारों को भेज रहे हैं तथा वे ही इसकी पुष्टि और तत्पश्चात इस पर कार्यवाई कर सकती हैं। कुछ राज्यों में कार्यवाई हुई भी।
बहरहाल, नया “एकीकृत खाद्य अधिनियम” संसद के दोनों सदनों में पारित हो चुका है। यह कानून 1954 के खाद्य मिलावट निवारण कानून और 1955 के फल उत्पाद कानून जैसे कानूनों को समाप्त कर बनाया गया है। यह समयोचित है कि केन्द्र सरकार जनहित में खाद्य-उद्योग को अपने नियंत्रण में ले, नए अधिनियम में यह घोषणा है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री द्वारा सी.एस.ई की रपट राज्य सरकारों को भेजे जाने जैसे कदम को कम्पनियों द्वारा इस कानून का सहारा लेकर अब चुनौती दी जा सकेगी।
1977 में तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने कोका कोला कम्पनी (तब पेप्सी का आगमन नहीं हुआ था) के समक्ष दो शर्ते रखी थीं- पहली शर्त थी कम्पनी में विदेशी पूंजी 33 फीसदी से कम रखने की तथा दूसरी अपने उत्पाद का फार्मूला बताने की। कम्पनी ने दोनों शर्तों को कबूलने की बजाय भारत छोड़ना उचित समझा। उदारीकरण के दौरान विदेशी पूंजी की सीमा हट गई। पर सूचना का अधिकार देने वाली सरकार ने उसके बाद बने एकीकृत खाद्य सुरक्षा व मानक कानून में गैरजरूरी गोपनीयता बनाए रखने का प्रावधान कर दिया। कानून की धारा 16(6) के अनसार- खाद्य प्राधिकरण चाही गई गोपनीय सूचनाओं को किसी तीसरे पक्ष के समक्ष प्रकट नहीं करेगी तथा न ही प्रकट होने का कारण बनेगी, बस जन स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक जिन सूचनाओं का सार्वजनिक किया जाना अनिवार्य हो वे अपवाद होंगी। कोला के गुप्त फार्मूले की रक्षा के लिए भारत सरकार ने इस प्रावधान के अंर्तगत व्यवस्था दी है।
तो जहाँ खाद्य उद्योग से जुड़ी विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति उदारता बरती गई है वहीं भड़भूजे, खोमचे वाले, दूध, दही, लस्सी और मिठाई बेचने वालों को लाइसेन्स के दायरे में ले आया गया है। आनुवांशिक इंजीनियरिंग से विकसित खाद्यान्न व खाद्य पदार्थों के भारतीय बाजारों में प्रवेश के चोर दरवाजे खोल दिए जाएंगे। नागरिकों के आहार सम्बन्धी अधिकार जिन कानूनों से सुरक्षा पाते थे उन्हें अप्रभावी बनाकर, जहरीले रसायनों और औद्योगिक प्रसंस्करण को कानूनी दर्जा देने की व्यवस्था इस कानून से हो जाएगी। युरोप और अमरिका में इन खाद्यान्नों पर जनता की पैनी नजर रहती है। अमरिका में बने जीन-रूपांतरित सोयाबीन के तेल पर यूरोप में रोक है। भारत सरकार ने ऐसे सोयाबीन तेल पर आयात शुल्क घटाकर 4 प्रतिशत कर दिया है जबकि मलेशिया, थाइलैण्ड आदि से आयात होने वाले पाम तेल पर 200 प्रतिशत तक का आयात शुल्क होता है।
वॉल मार्ट, मैक्डॉनाल्ड्स आदि के प्रबल समर्थक खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री सुबोध कांत सहाय लगातार कहते रहे हैं कि भारतीय किसान इन कम्पनियों के बड़े आपूर्तिकर्ता होंगे। अन्न स्वावलम्बन का इस देश को गर्व था, उसके पटरी से उतरने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है।
खाद्य गुणवत्ता निर्धारित करने की अंतर्राष्ट्रीय संस्था कोडेक्स एलिमेन्टारियस में खाने-पीने के धन्धे से जुड़ी इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अमेरिका अपने देश की नुमाइन्दगी देता है। फलस्वरूप अमेरीकी फार्मा ग्रेड फॉस्फोरिक एसिड जैसे अखाद्य रसायनों के पेय में प्रयोग पर कोडेक्स की मुहर लग जाती है।
कोला कम्पनियों का दावा है कि उनके भारतीय उत्पाद अन्तर्राष्ट्रीय मानकों पर खरे ठहरते हैं। क्या युरोप अथवा अमरिकी बाजारों में अधिकृत रूप से भारत में निर्मित उत्पाद वे बेच सकती हैं? कुछ माह पूर्व वाराणसी स्थित शीतल पेय संयंत्र पर उसके अटलान्टा मुख्यालय से एक अन्तर्राष्ट्रीय अधिकारी का आगमन हुआ था। उनके तथा परिवार हेतु कथित रूप से उसी कम्पनी का अमेरिका में निर्मित बोतलबन्द पानी और पेय के कैन भी लाए गए थे ताकि उन्हें भारत में बोतलबन्द किए गए पानी और कोला न पीना पड़े। मानदण्डों की बाबत इन कम्पनियों का पाखण्डपूर्ण आचरण सर्वविदित है।
केरल के प्लाचीमाड़ा गांव में बॉटलिंग संयत्र द्वारा भूगर्भ जल के दोहन तथा प्रदूषण के विरुद्ध स्थानीय लोगों का आन्दोलन गत तीन चार वर्षों से चल रहा है। संयंत्र राज्य प्रदूषण बोर्ड की पहल पर राज्य सरकार के प्रतिबन्ध के पूर्व ही बन्द कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय की समिति के समक्ष कम्पनी अपने कचरे में सीसे, कैडमियम जैसी खतरनाक धातुओं का मूल स्रोत नहीं बता रही थी।
कीटनाशक अवशेषों के सर्वव्यापी होने पर कोला कम्पनियां जो चिन्ता प्रकट कर रही हैं उससे यह भस्म नहीं होना चाहिए कि वे प्राकृतिक खेती के प्रसार के लिए इस देश में आई हैं। हालांकि आगामी दिनों में जनता की आँखों में धूल झोकने के लिए ऐसी परियोजनाएं कागज पर शुरु करने की तिकड़म तो वे कर ही सकती हैं। इस सन्दर्भ में माँ के दूध से लेकर सब्जी-भाजी में कीटनाशक अवशेषों की मौजूदगी का उल्लेख काफी हो रहा है। अत्याधुनिक खेती में नए बीजों के साथ-साथ निर्दिष्ट मात्रा में खाद, कीटनाशक और भारी सिंचाई का पैकेज तय होता है। ऐसी खेती के फलस्वरूप नीचे जा रहे भूगर्भ जल-स्तर तथा भूमि की कम होती उर्वरा शक्ति तो किसानों को साफ-साफ दिखाई देने लगी है। कीटनाशकों द्वारा कीट-नाश का प्रभाव तो उसे दीखता है, दुष्प्रभाव स्पष्ट नहीं होते। इस प्रश्न पर निर्णय उस खाद्य पदार्थ से मिलने वाले पोषक तत्वों के आधार पर लिया जाना चाहिए। कोला पेय किसी आहार का विकल्प नहीं हैं, पेय जल का भी नहीं। कोला पेय हमें जो रिक्त कैलोरियां चीनी के कारण देता है उसका सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कोला कम्पनियों पर गठित संयुक्त संसदीय समिति ने इनके द्वारा भूगर्भ जल की लूट पर भी गौर किया था तथा समिति द्वारा जलसंसाधन मंत्रालय से यह अपेक्षा की गई थी कि इस बाबत स्पष्ट नीति बनाई जाए।
अमेरिकी बाल रोग विशेषज्ञों के संघ ने स्कूलों को कोला मुक्त करने की भारी वकालत की थी। एक प्रस्ताव पारित कर बच्चों के स्वास्थ्य पर विशेष तौर पर मोटापे, हड्डी व दाँत के कमजोर होने पर इस संघ की प्रतिष्ठित शोध-पत्रिका “पीडियाट्रिक्स” ने दावा किया था कि यदि शैशव को कोला-मुक्त नहीं किया गया तो बाल-मोटापे की महामारी आ जाएगी जो आगे चलकर मधुमेह की महामारी का रूप धारण कर लेगी। बाल रोग विशेषज्ञों व अभिभावकों के अभिमान के फलस्वरूप अमरीकी विद्यालय परिसर कोला मुक्त हुए हैं। बच्चों में कोला की खपत बढ़ने के चलते दूध की खपत घटने के भी व्यवस्थित अध्ययन हुए हैं। अब विदेशों में बच्चों को ध्यान में रखकर विज्ञापन न बनाने तथा प्री-स्कूलों को कोला-मुक्त रखने की बात कम्पनियों को भी कबूलनी पड़ी है।
प्रसिद्ध समाजवादी चिन्तक सfच्चदानन्द सिन्हा ने स्पष्ट किया है कि उपभोग जीवन के लिए जरूरी है लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति, निहायत गैर-जरूरी और नुकसानदेह वस्तुओं व सेवाओं की भी भूख पैदा कर देती है। पूंजीवाद की कोख से यह अपसंस्कृति पैदा होती है फिर पूंजीवाद को ही शक्ति देने में लग जाती है। कोला में कीटनाशकों के तड़के से मची हलचल से प्रतीत हो रहा है कि हमारे देश में यह अपसंस्कृति जड़ जमा चुकी है। क्या हम उपभोक्तावाद (उपभोग नहीं) को सिर्फ परिष्कृत करके ही सन्तुष्ट हो जाएंगे?
सी.एस.ई की गड़बड़ाईं प्राथमिकतायें
अर्जुन स्वरूप
न् 2003 और 2006 में भारत में कोला पेय पदार्थों में कीटनाशकों की उपस्थिति द्वारा कंटैमिनेशन यानि संदूषण पर खासा बवाल मचा है। दोनों ही मामलों में अभियोक्ता एक ही है, सेंटर फॉर साइंस एंड एंवायरमेंट (सी.एस.ई) नामक एक गैर सरकारी संस्थान। गौरतलब है कि सी.एस.ई देश की एकमात्र ऐसी संस्था है जिसने यह मुद्दा उठाया (या जैसा की कईयों का मत है, निर्मित किया)।
इस विषय पर जैसे जैसे बहस बढ़ी है विभिन्न बिंदु उभर कर सामने आये हैं। आखिर कोला पेय में संदूषण क्यों है? क्या भारतीयों को इनसे खतरा है? हम जो भी खाते या पीते हैं उसमें संदूषण होता है तो फिर केवल कोला पर ही ऊंगली क्यों उठाई जाये? पेप्सीको तथा कोक को तो उच्च मापदंडों का पालन करना चाहिये तो क्या वे जानबूझकर भारत जैसे विकासशील देश में निम्नतर स्वास्थ्य मानकों का अनुपालन चलने दे रहे हैं? क्या भारत की सरकार हमारे स्वास्थ्य की सुरक्षा हेतु कड़े नियमन लागू करने में अक्षम है? और इस मामले में गैर सरकारी संस्थायें यानी एन.जी.ओ इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं?
आईये इन मुद्दों की बिंदुवार चर्चा करें।
पहला और सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है कोला तथा खानपान और पेय पदार्थों में संदूषण का स्तर। सी.एस.ई की जाँच के नतीजों के अनुसार कोला में यह मान्य स्तर से 24 गुना अधिक है। चलो माना! पर क्या सी.एस.ई को यह ज़िक्र नहीं करना चाहिये कि यह “मान्य स्तर” कितना है और किसके लिये लागू होता है? कोला एक कॉम्पलेक्स यानि मिश्रित उत्पाद है जिसमें तीन संश्लिष्ट होते हैं, 90 फीसदी पानी, तकरीबन 8 फीसदी चीनी और शेष कोला कांसेंट्रेट। गौर करने की बात यह है कि पानी के लिये तो जाँच प्रोटोकॉल और मानक मौजूद हैं पर कोला के लिये नहीं। जिन मानकों का सी.एस.ई प्रयोग करती है वे भूगर्भिय जल के लिये लागू होते हैं और यह मानक, जिसमें संदूषण की मान्य मात्रा दशमलव एक पार्ट प्रति बिलियन (पी.पी.बी) है, भारत तथा युरोपिय संघ दोनों ही मानते हैं। अगर हम सी.एस.ई के दावे, यानि कोला पेय में 11.85 पी.पी.बी के संदूषण, को मान भी लें तो यह जानना ज़रूरी होगा कि इंफेट फूड या शिशु आहार, जिसमें ज़ाहिर तौर पर सर्वाधिक सुरक्षा की ज़रूरत होगी, में कीटनाशक रेसीड्यू या अवशेषों का विश्वव्यापी मान्य मानक 10 पी.पी.बी है। चीनी के लिये विश्वव्यापी मानक 400 पी.पी.बी है। इसी से स्पष्ट है कि कोला पूर्णतः सुरक्षित है तथा इनमें कीटनाशक अवशेषों की मात्रा उचित सीमाओं से कहीं कम हैं।
इससे एक बात और ज़ाहिर होती है वह यह कि कोला कंपनियाँ काफी कठोर सफाई प्रक्रिया का पालन करती हैं। पर हम उनकी तारीफ करने के बजाय उनकी निंदा कर रहे हैं!
यह एक और चौंकाने वाले तथ्य की ओर इशारा करता है कि भारतीय फूड चेंस यानी खाद्य श्रंखलाओं में संदूषण का स्तर दुनिया में विद्यमान सबसे कम स्तरों में से एक है। भले ही यह किसी योजना या सोची समझी नीति का परिणाम न हो पर है यह सच। यहाँ तक की भारत में उपलब्ध सेब, चीनी और चाय जैसे खाद्य पदार्थ, जिनमें कीटनाशक संदूषण का स्तर कोला से कई गुना अधिक होता है, युरोप और उत्तरी अमेरिका की तुलना में सुरक्षित हैं। इसकी विश्व खाद्य रपट से पुष्टि हुई है। निश्चित ही यह भारत के लिये अत्यंत गर्व का विषय है।
इस पृष्ठभूमि के साथ मानकों पर हो रही बहस पर नज़र डालनी चाहिये। क्या भारत में सी.एस.ई द्वारा चाहे जा रहे उच्चतर मानकों की वाकई ज़रूरत है? क्या यह सामान्य नागरिक के जीवन में किसी तरह की बेहतरी लायेगा? विश्व स्तर पर यह मानक ALARA या ALOP में से किसी एक पर आधारित होते हैं। ALARA का मतलब है “एज़ लो एज़ कैन बी रीजनेब्ली अचीव्ड” यानि की तर्कसंगत रूप से जितना संभव हो उतना न्यूनतम माप। ALOP का अर्थ है “एक्सैपटेबल लेवल्स आफ प्रॉटेक्शन” यानि सुरक्षा के स्वीकार्य स्तर। पहला मानक युरोपीय संघ द्वारा परिकल्पित है जबकी दूसरा, जिसका अनुपालन संप्रति भारत में होता है, स्वास्थ्य के लिये जोखिम के मुल्यांकन पर आधारित तकनीक है। सी.एस.ई युरोपीय मानकों के अनुपालन पर जोर देता है।
लेखक सी.एस.ई से इस सवाल का जवाब चाहेगाः भारत तो पहले से ही ALOP आधारित मानक का पालन करता है, जिसका अपनुपालन कर रहे उत्पादों से उपभोक्ताओं को सेहत का कोई जोखिम नहीं होता, फिर युरोपीय मानकों को मानने पर बल क्यों दिया जा रहा है? इससे तो कोई ठोस फायदे भी नहीं हैं।
हाँ इसका यह जवाबी तर्क दिया जा सकता है कि भले ही कोई ठोस फायदा न हो पर अगर इनका कार्यावन्यन सीधा सादा है तो इसको अपनाने में हर्ज़ की क्या है। दरअसल इसमें हमारा काफी नुकसान है। उच्चतर मानकों को अपनाने से ये मानक सारे कृषि आधारित उत्पादों पर भी लागू होंगे और जब भारत से निर्यातित सामग्री भी इसी मानक की कसौटी पर परखी जायेगी तो सारे निर्यात, खास तौर पर युरोपीय संघ को किये जा रहे निर्यात, पर अंकुश लग जायेगा। यह मानक लागू करने से युरोपीय संघ के राष्ट्रों का कुछ खास नहीं बिगड़ने वाला, पर भारत के कृषिक्षेत्र पर इसके परिणाम प्रलयंकारी होंगे।
अंत में लेखक की राय है कि हमें सी.एस.ई की भुमिका की भी पड़ताल करनी चाहिये। सी.एस.ई प्रेस काँफ्रेंस के द्वारा “जनता का स्वास्थ्य खतरे में है” और “सार्वजनिक नीतियाँ उपहास का पात्र बन गई हैं” जैसे व्यक्तव्य देने से ज़रा भी नहीं हिचकिचाती। तथापि भारत स्थित अनेक अन्य प्रयोगशालाओं, जिनमें खाद्य विज्ञान और टॉक्सिकोलॉजी के श्रेष्ठ वैज्ञानिक कार्यरत हैं, ने सी.एस.ई की जाँच पद्धतियों और प्रणालियों पर आक्षेप किये हैं। भारत की किसी और प्रयोगशाला ने सी.एस.ई के निष्कर्षों और जाँच तकनीक की पुष्टि नहीं की है। यह एक महत्वपूर्ण बात है।
दरअसल जब कभी सी.एस.ई को अपनी जाँच प्रणाली या तकनीकी योग्यता को प्रमाणित करने को कहा गया तो वे ऐसा नहीं कर पाये। सी.एस.ई के पास NABL प्रमाणन नहीं है जो को भारत की 15 अन्य प्रयोगशालाओं के पास है। एक टीवी कार्यक्रम में, जिसमें खाद्य विज्ञानी डॉ खंडल और सी.एस.ई प्रमुख सुनीता नारायण आमंत्रित थे, डॉ खंडल ने सी.एस.ई के परीक्षणों में कई विसंगतियों को ज़ाहिर किया और वे कोई भी जवाब देने में असमर्थ रहीं। पंजाब की राज्य सरकार, जिसने कोला पेयपदार्थों की जाँच अपनी प्रयोगशाला में करवाई है, ने सार्वजनिक बयान दिया है, “सी.एस.ई का संभवतः कोई व्यक्तिगत अजेंडा है”। अगर वाकई यह सच है तो यह जानकारी निःसंदेह बड़ी रोचक होगी।
सी.एस.ई 25 वर्ष पुराना संस्थान है, 1982 में अनिल अग्रवाल ने इसकी स्थापना की। नई दिल्ली में, जहाँ लेखक रहते हैं, प्रदूषण कम करवाने में संस्थान की भूमिका को काफी प्रशंसा मिली और वे इस तारीफ के हकदार भी हैं। पर लगता है कि इनकी प्राथमिकतायें गड़बड़ा गई हैं। सी.एस.ई के सार्वजनिक बयान सनसीखेज़ और भ्रामक रहे हैं, इनका विज्ञान त्रुटिपूर्ण और धूर्ततापूर्ण और इनकी मंशा संदिग्ध रही है। उम्मीद है कि एक समय उत्कृष्ट रहा यह संस्थान पुनः अपना स्थान प्राप्त करेगा जिससे हम सब लाभान्वित हों।
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